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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, June 22, 2011

सत्य फिरे भयभीत

दोहे 

सत्य कहे यारी गयी, स्पष्ट कहे सम्बन्ध.
अब तो केवल रह गए, स्वार्थ के अनुबंध.

झूठों के दरबार हैं, सच पर हैं इल्जाम.
कैसे होगा न्याय अब, बोलो मेरे राम?

सच के जो साथी बने, सदा रहे कंगाल.
साधक थे जो झूठ के, खूब डकारा माल.

टूट रही हैं वर्जना, बदल रहे व्यवहार.
चलना सच की राह पर, हुआ बड़ा दुश्वार.

सच को सच कैसे लिखे, जिसका बिका ज़मीर.
अमर कबीर हो गया, लिख जनता की पीर.

ताक़त के बल चल रहा, दुनिया का व्यवहार.
झूठ बुलंदी छो रहा, सत्य खड़ा लाचार.

सुनते आये हैं सदा, होती सच की जीत.
झूठ मगर निर्भय यहाँ, सत्य फिरे भयभीत.

शपथ उठाकर राम की करते झूठे कौल.
सत्य, धर्म औ' न्याय का, उड़ता रोज़ मखौल.

हमको जिद थी सत्य की, उसे झूठ था रास.
झूठे को सत्ता मिली, हमें मिला वनवास.

सत्य सदा कड़वा लगे, सुनना चाहे कौन.
'यादव' बचना झूठ से, बेशक रहना मौन.

गला घोंट कर सत्य का, ऊँची भरी उड़ान.
मिट्टी में मिलना पड़ा, मानव था नादान.

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