समर्थ दोहाकार का यथार्थ बोध
पुस्तक समीक्षा
अरुण नैथानी
भारतीय लोकजीवन के कवियों ने आदिकाल से अपनी बात कहने के लिए दोहों का सहारा लिया। कल्हड़ आदि से शुरू हुई यह परंपरा वीरगाथा काल में तब समृद्ध हुई जब पृथ्वीराज रासो से लेकर वीसल देव ने हृदयस्पर्शी रचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया। दोहों की सरलता इनका अभीष्ट गुण है। कालांतर आध्यात्मिक सत्यों को उद्घाटित करने के लिए दोहों का खूबसूरत उपयोग हुआ। कबीर, नानक, रैदास, दादू, रहीम आदि ने जाति-बंधनों व धार्मिक आडंबरों पर गहरी चोट करते हुए इस छंद विधा को सार्थक बनाया। लेकिन समय ने करवट ली और रीतिकाल के बाद आधुनिक काल तक दोहा परंपरा हाशिये पर चली गई। छायावाद में दोहे नजर नहीं आये। लेकिन बदलते वक्त के साथ आज $गज़लकारों के साथ दोहा लिखने वालों की बाढ़ आई हुई है। यही वजह है कि पद्मभूषण गोपाल दास नीरज को लिखना पड़ा कि ‘दोहा, काव्य की वह कला है जो होंठों पर तुरंत बैठ जाती है, इसलिए इसकी भाषा प्रसाद गुण लेकिन काव्य गाम्भीर्य होना चाहिए।’
इसमें दो राय नहीं कि दोहा एक मारक छंद रहा है। कविराज बिहारी लाल के दोहों की मारक क्षमता का अवलोकन करते हुए समीक्षकों ने कहा था—देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर। हालांकि, आज दोहों में वह भाषा सौंदर्य व मारक क्षमता नजर नहीं आती, लेकिन इस प्रभावकारी विधा में खूब लिखा जा रहा है। अत: अड़तालीस मात्राओं वाला छंद खासा लोकप्रिय है। चर्चित दोहाकार डॉ. रामनिवास मानव लिखते हैं कि तीन दशक पूर्व मैंने जब हरियाणा में दोहे लिखने शुरू किए तो इक्का-दुक्का लोग छिटपुट रूप में, दोहे लिख रहे थे लेकिन आज तमाम दोहाकार इस विधा में हाथ आजमा रहे हैं। इसी क्रम में अपने पहले दोहा-संग्रह ‘नागफनी के फूल’ के जरिये कवि रघुविन्द्र यादव भी इस पंक्ति में शामिल हो गए हैं। उनकी मान्यता है कि हमारे जनजीवन में हर जगह कैक्टस उग आए हैं। सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करते 25 शीर्षकों में विभाजित उनके सवा चार सौ दोहे समीक्ष्य कृति में शामिल हैं।
समीक्ष्य कृति में रचनाकार दोहों की प्रस्तुति में पाठकों से संवाद करता प्रतीत होता है। रचनाकार का दायित्व है कि वह देशकाल व समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरे और नीर-क्षीर विवेचन के साथ भावों को अभिव्यक्त करे। इस दायित्व को रचनाकार ने दोहों को 25 विषयों के अनुरूप विभाजित किया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या रचनाकार को सिर्फ निर्मम आलोचक के रूप में सामने आना चाहिए? क्या इससे पाठक वर्ग में हताशा उत्पन्न नहीं होती है? क्या छंदकार को क्षरण के पराभव से उबरने का संदेश नहीं देना चाहिए? क्या समाज सौ फीसदी पतनशील है? बहरहाल, रचनाकार विम्ब विधान के जरिये कथन के सम्प्रेषण की सार्थक कोशिश करते हैं। प्रस्तुत दोहे में कनक शब्दों के दो अर्थों का वे सटीक उपयोग करके भाषा के अलंकारिक पहलू की सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं :-
कनक हुई जब खेत में, दो कौड़ी था मोल,
लाला के गोदाम से, बिकी कनक के मोल।
‘बेटी ऐसी फूल’ शीर्षक जहां सकारात्मक सोच व आशावाद की बानगी पेश करता है, वहीं संकलन का प्रस्तुत दोहा परंपरावादी सोच का प्रतिनिधित्व करता है :-
बेटी किसी गरीब को, मत देना भगवान,
पग-पग पर सहना पड़े, अबला को अपमान।
समीक्ष्य कृति में रचनाकार कवि, लेखकों, पत्रकारों व संपादकों को खूब खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकते। वह लगभग सभी कलमकारों (एकाध अपवाद छोड़कर) को एक तराजू में तोलते हैं :-
कलमकार बिकने लगे, गिरवी रख दी शर्म,
बस नेता की चाकरी, समझें अपना धर्म।
छपे नहीं अखबार में, आमजनों की पीर,
संपादक को चाहिए, गुंडों पर तहरीर।
इसके अलावा रचनाकार मौजूदा समय की धड़कनों को गहरे तक महसूस करते हैं। वे आपाधापी के माहौल में दरकती आस्थाओं, धर्म के पाखंड, जातीय आडंबर तथा राजनीतिक विद्रूपताओं को बेनकाब करने से गुरेज नहीं करते। यह बात अलग है कि उनके तेवर तीखे ज़हर-बुझी कटार सरीखे हैं। बानगी देखिए :-
‘यादव’ का है कुल बड़ा, फूट गले की फांस,
केशव की बंसी बजी, बजे वंश में बांस।
सास-ससुर लाचार हैं बहू न पूछे हाल,
डेरे में ‘सेवा’ करे, बाबा हुआ निहाल।
रघुविन्द्र यादव के संकलित दोहे भाषा की सहजता, कथ्य की दृष्टि, अलंकार-बिंब योजना व सम्प्रेषण के नजरिये से अपने उद्देश्य में सफल प्रतीत होते हैं। अलीगढ़ के ख्यातिनाम दोहाकार अशोक ‘अंजुम’ की टिप्पणी सटीक है—बहुत बड़ा परिवार है दोहाकारों का… कहां तक नाम गिनाएं जाएं… रघुविन्द्र यादव इस परिवार के नये व सशक्त सदस्य हैं। बहरहाल, कलेवर की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक, पठनीय व दोषमुक्त है।
भारतीय लोकजीवन के कवियों ने आदिकाल से अपनी बात कहने के लिए दोहों का सहारा लिया। कल्हड़ आदि से शुरू हुई यह परंपरा वीरगाथा काल में तब समृद्ध हुई जब पृथ्वीराज रासो से लेकर वीसल देव ने हृदयस्पर्शी रचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया। दोहों की सरलता इनका अभीष्ट गुण है। कालांतर आध्यात्मिक सत्यों को उद्घाटित करने के लिए दोहों का खूबसूरत उपयोग हुआ। कबीर, नानक, रैदास, दादू, रहीम आदि ने जाति-बंधनों व धार्मिक आडंबरों पर गहरी चोट करते हुए इस छंद विधा को सार्थक बनाया। लेकिन समय ने करवट ली और रीतिकाल के बाद आधुनिक काल तक दोहा परंपरा हाशिये पर चली गई। छायावाद में दोहे नजर नहीं आये। लेकिन बदलते वक्त के साथ आज $गज़लकारों के साथ दोहा लिखने वालों की बाढ़ आई हुई है। यही वजह है कि पद्मभूषण गोपाल दास नीरज को लिखना पड़ा कि ‘दोहा, काव्य की वह कला है जो होंठों पर तुरंत बैठ जाती है, इसलिए इसकी भाषा प्रसाद गुण लेकिन काव्य गाम्भीर्य होना चाहिए।’
इसमें दो राय नहीं कि दोहा एक मारक छंद रहा है। कविराज बिहारी लाल के दोहों की मारक क्षमता का अवलोकन करते हुए समीक्षकों ने कहा था—देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर। हालांकि, आज दोहों में वह भाषा सौंदर्य व मारक क्षमता नजर नहीं आती, लेकिन इस प्रभावकारी विधा में खूब लिखा जा रहा है। अत: अड़तालीस मात्राओं वाला छंद खासा लोकप्रिय है। चर्चित दोहाकार डॉ. रामनिवास मानव लिखते हैं कि तीन दशक पूर्व मैंने जब हरियाणा में दोहे लिखने शुरू किए तो इक्का-दुक्का लोग छिटपुट रूप में, दोहे लिख रहे थे लेकिन आज तमाम दोहाकार इस विधा में हाथ आजमा रहे हैं। इसी क्रम में अपने पहले दोहा-संग्रह ‘नागफनी के फूल’ के जरिये कवि रघुविन्द्र यादव भी इस पंक्ति में शामिल हो गए हैं। उनकी मान्यता है कि हमारे जनजीवन में हर जगह कैक्टस उग आए हैं। सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करते 25 शीर्षकों में विभाजित उनके सवा चार सौ दोहे समीक्ष्य कृति में शामिल हैं।
समीक्ष्य कृति में रचनाकार दोहों की प्रस्तुति में पाठकों से संवाद करता प्रतीत होता है। रचनाकार का दायित्व है कि वह देशकाल व समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरे और नीर-क्षीर विवेचन के साथ भावों को अभिव्यक्त करे। इस दायित्व को रचनाकार ने दोहों को 25 विषयों के अनुरूप विभाजित किया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या रचनाकार को सिर्फ निर्मम आलोचक के रूप में सामने आना चाहिए? क्या इससे पाठक वर्ग में हताशा उत्पन्न नहीं होती है? क्या छंदकार को क्षरण के पराभव से उबरने का संदेश नहीं देना चाहिए? क्या समाज सौ फीसदी पतनशील है? बहरहाल, रचनाकार विम्ब विधान के जरिये कथन के सम्प्रेषण की सार्थक कोशिश करते हैं। प्रस्तुत दोहे में कनक शब्दों के दो अर्थों का वे सटीक उपयोग करके भाषा के अलंकारिक पहलू की सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं :-
कनक हुई जब खेत में, दो कौड़ी था मोल,
लाला के गोदाम से, बिकी कनक के मोल।
‘बेटी ऐसी फूल’ शीर्षक जहां सकारात्मक सोच व आशावाद की बानगी पेश करता है, वहीं संकलन का प्रस्तुत दोहा परंपरावादी सोच का प्रतिनिधित्व करता है :-
बेटी किसी गरीब को, मत देना भगवान,
पग-पग पर सहना पड़े, अबला को अपमान।
समीक्ष्य कृति में रचनाकार कवि, लेखकों, पत्रकारों व संपादकों को खूब खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकते। वह लगभग सभी कलमकारों (एकाध अपवाद छोड़कर) को एक तराजू में तोलते हैं :-
कलमकार बिकने लगे, गिरवी रख दी शर्म,
बस नेता की चाकरी, समझें अपना धर्म।
छपे नहीं अखबार में, आमजनों की पीर,
संपादक को चाहिए, गुंडों पर तहरीर।
इसके अलावा रचनाकार मौजूदा समय की धड़कनों को गहरे तक महसूस करते हैं। वे आपाधापी के माहौल में दरकती आस्थाओं, धर्म के पाखंड, जातीय आडंबर तथा राजनीतिक विद्रूपताओं को बेनकाब करने से गुरेज नहीं करते। यह बात अलग है कि उनके तेवर तीखे ज़हर-बुझी कटार सरीखे हैं। बानगी देखिए :-
‘यादव’ का है कुल बड़ा, फूट गले की फांस,
केशव की बंसी बजी, बजे वंश में बांस।
सास-ससुर लाचार हैं बहू न पूछे हाल,
डेरे में ‘सेवा’ करे, बाबा हुआ निहाल।
रघुविन्द्र यादव के संकलित दोहे भाषा की सहजता, कथ्य की दृष्टि, अलंकार-बिंब योजना व सम्प्रेषण के नजरिये से अपने उद्देश्य में सफल प्रतीत होते हैं। अलीगढ़ के ख्यातिनाम दोहाकार अशोक ‘अंजुम’ की टिप्पणी सटीक है—बहुत बड़ा परिवार है दोहाकारों का… कहां तक नाम गिनाएं जाएं… रघुविन्द्र यादव इस परिवार के नये व सशक्त सदस्य हैं। बहरहाल, कलेवर की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक, पठनीय व दोषमुक्त है।
०समीक्ष्य कृति : नागफनी के फूल (दोहा संग्रह) ०रचनाकार : रघुविंद्र यादव ०प्रकाशक : आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल ०पृष्ठ : 80 ०मूल्य : रुपये 100/-.
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