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Sunday, September 18, 2011

दैनिक ट्रिब्यून के 18 सितम्बर के सम्पादकीय का शीर्षक दोहा

आंगन में उगने लगे, नागफनी के फूल

Posted On September - 18 - 2011

पहले ऐसी खबरें विदेशों से आती थीं कि एक अल्पवयस्क किशोरी ने बच्चे को जन्म दे दिया है, लेकिन फरीदकोट के एक मेडिकल कालेज में नौ सितंबर को एक बारह वर्षीय लड़की ने एक बच्ची को जन्म देकर भारतीय समाज में दरकते मूल्यों का आईना दिखा दिया। यह घटना विचलित करती है। लड़की का परिवार लोकलाज के भय से हरियाणा के किसी शहर को छोड़कर फरीदकोट चला आया था। जाहिरा तौर पर यह व्यथित करने वाली घटना करीबी रिश्तों के घात की परिणति है। राष्ट्रीय स्तर के आंकड़े बता रहे हैं कि हमारी परिवार संस्था के करीबी लोगों द्वारा अबोध बालिकाओं को वासना का शिकार बनाने के मामले बढ़ रहे हैं। घरों में आने-जाने वाले करीबी लोग और आसपड़ोस के परिचित कई लोग अनेक ऐसे अपराधों में लिप्त पाये गये हैं, जिन पर शक नहीं किया जाता। शायद ऐसे ही किसी विश्वासघाती का शिकार यह लड़की भी हुई। जाहिर तौर पर किसी अपने की हवस का शिकार बनी यह लड़की घर वालों के भय से हकीकत बयां न कर सकी। जिसका खमियाजा परिवार को अपना घर-बार छोड़कर तथा जीवनपर्यंत की सामाजिक उपेक्षा के दंश के रूप में भुगतना पड़ेगा। इससे न केवल इस लड़की का भविष्य अंधकारमय हुआ बल्कि नवजात शिशु का भविष्य भी दांव पर लग गया। कौन उसे पिता का नाम देगा और कौन उसकी परवरिश करेगा? ताउम्र उसे समाज के उलाहनों व तंज़ों के बीच जीवनयापन को विवश होना पड़ेगा। ऐसे सामाजिक परिवेश में शर्मसार करने वाली घटनाओं को जन्म देने वाले हालात पर व्यंग्य करते हुए कवि रघुविन्द्र यादव लिखते हैं :-
गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल,
आंगन में उगने लगे, नागफनी के फूल।

वास्तव में यह एक कटु सत्य है कि तमाम आक्रांताओं के हमलों ने भारतीय समाज को उतनी क्षति नहीं पहुंचाई जितनी पश्चिमी सांस्कृतिक आक्रमण ने पहुंचाई है। पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण तथा संयुक्त परिवारों के विघटन के चलते एकल परिवार पर बड़े-बूढ़ों का साया जब से हटा है, समाज में कई तरह की विद्रूपताओं ने जन्म लिया है। सामाजिक संस्थाओं की समाज पर पकड़ ढीली होने से नई पीढ़ी निरंकुश हो चली है। संचार माध्यमों के खुलेपन तथा बेलगाम टीवी व अश्लील दृश्यों-संवादों-गीतों से लबरेज फिल्मों ने यौन कुंठाओं को जन्म दिया। इंटरनेट पर खुलने वाली सैकड़ों-हज़ारों अश्लील वेबसाइटों ने वासना की आग में घी डालने का काम किया। चंद रुपयों की खातिर बदन उघाडऩे को तैयार बैठी प्राडक्ट बनी स्त्री ने वासनाओं को विस्तार दिया। इससे समाज के एक तबके की सोच बदली। वह स्त्री को उपभोग की वस्तु मानने लगा। महानगरों में व्याप्त खुलेपन का खमियाजा गांव-देहात की अबोध बालाओं ने झेला। स्त्री के प्रति आये दिन होने वाले यौन अपराध इसी शृंखला का हिस्सा हैं। निठारी गांव का सच सारी दुनिया ने देखा, जब छोटी-छोटी बच्चियों को हवस का शिकार बनाया गया। नर-पिशाचों के कुकृत्य पर तंज़ करते हुए कवि लिखता है :-
इंद्र-वासना को मिले, जब कलयुग की छांव,
‘होरी’ जन्मेगा तभी, एक निठारी गांव।

सही मायनों में उपभोक्तावादी संस्कृति ने भारतीय समाज की सदियों से चली आ रही गरिमा को तार-तार कर दिया है। कला-संस्कृति की आज़ादी व सच दिखाने के नाम पर सूचना माध्यमों द्वारा जो नंगापान परोसा जा रहा है, उसने समाज में नई पीढ़ी के भटकाव के कारण पैदा किये। ज्यो-ज्यों समाज में स्त्री घर की दहलीज पार करके समाज में अपना स्थान तलाशने निकली तो ललचाई आंखों ने उसे उपभोग के नजरिये से देखना शुरू किया। छोटे सरकारी दफ्तरों से लेकर सेना-वायुसेना तक में महिला कर्मियों के यौन उत्पीडऩ के किस्से अब आम हो चले हैं। सामाजिक वर्जनाएं तार-तार हो रही हैं। जैसा कि कवि गोपालदास नीरज लिखते हैं :-
आंखों का पानी मरा, हम सबका यूं आज,
सूख गये जल-स्रोत सब, इतनी आई लाज।

सवाल उठाया जा सकता है कि समाज में यह वासना का विस्फोट यकायक कैसे पैदा हुआ? इस सवाल के जवाब औद्योगिक क्रांति तथा हमारे रहन-सहन में पश्चिमी तौर-तरीकों के अंधानुकरण के रूप में देखे जा सकते हैं। विडंबना यह है कि जिन सामाजिक विद्रूपताओं से मुक्ति के लिए पश्चिमी समाज छटपटा रहा है, हम उन्हें गले लगा रहे हैं। पश्चिमी समाज हमें अपने उत्पाद खपाने के बाजार के रूप में देखता है। उसे सौंदर्य प्रसाधन बेचने थे तो लगभग अद्र्धनग्न स्त्री को रैंप पर उतारना शुरू कर दिया। हमारे देश की कुछ सुंदरियों को विश्व सुंदरी का खिताब दे दिया। आंकड़े उठाकर देखें तो इनके विश्व सुंदरी बनने के बाद भारत में सौंदर्य प्रसाधनों की रिकार्ड बिक्री बढ़ी। नतीजतन गली-मोहल्लों, स्कूल-कालेजों तक में सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर अद्र्धनग्न फूहड़ प्रदर्शन होने लगे। कवि बलजीत ऐसे हालात पर व्यंग्य करता लिखता है :-
पश्चिम का हम पर चढ़ा, ऐसा गहरा रंग,
उलट-पलट सब हो गए, रहन-सहन के ढंग।
इसमें दो राय नहीं कि काम जगत का मू
ल है। सृजन का आधार है। लेकिन उसकी अपनी मर्यादाएं हैं। सामाजिक वर्जनाएं भी हैं। मानवता व पशुता का अंतर है। काम, क्रोध, मद, लोभ सब जीवन के अंग हैं जिसके लिए संयम जरूरी है। प्रेम की भी एक उम्र है। इसमें अराजकता समाज के लिए घातक है। समाज में आज मूल्यों के बिखराव का जो दौर जारी है, उसके कारण समाज विज्ञानियों को तलाशने होंगे। यदि समय रहते इस घातक प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के प्रयास न हुए तो आने वाले समय में यौन कुंठाओं के विस्फोट से भारतीय सामाजिक ढांचे को तार-तार होने का खतरा पैदा हो जाएगा। भारतीय दर्शन का उदाहरण देते हुए कवि योगेंद्रनाथ शर्मा अरुण सलाह देते हैं :-
जो भी जीते वासना, इंद्रियजित कहलाये,
दास वासना का बने, जन्म अकारण जाए।

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