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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, October 9, 2011

व्यंग्य कविता

रावण का भगवान से संवाद 

दाता के दरबार में, पहुंचे रावण वीर/
प्रभु मेरा न्याय करो, बोले होय अधीर//

रावण जैसे वीर को, हुआ आज  क्या कष्ट/
पौरुष जिसने वीर का, कर डाला है नष्ट// 

प्रभु मुझे तो एक भूल की सजा हर साल मिलती है
मगर अब तो हर रोज कोई न कोई सीता लुटती है
समाज और राष्ट्र की दशा देख मेरी साँस घुटती है
मुझ जैसे चरित्रहीन की भी अब तो आबरू लुटती है //
हर वर्ष हमारे परिवार के  पुतलों का दहन किया जाता है
यह दुःख अब मुझसे नहीं और सहन किया जाता है
हत्यारे और बलात्कारी सफ़ेद वस्त्र धारण करके आते हैं
मुझे और मेरे परिजनों को आग लगा जाते हैं //

प्रभु कोई बलात्कारी किसी अपहर्ता को बुरा कहे
ये अपमान आपका भक्त रावण कैसे सहे ?

अब आप ही मेरा न्याय कीजिये
मेरा खोया सम्मान बहाल कीजिये //

राजा  ना सही सांसद ही बनवा दो
गाड़ी, बत्ती और झंडी दिलवा दो//

संसद में तो अपराधियों की भरमार है
विधानसभाओं में भी उनका पूरा परिवार है //


रावण मैं मनमोहन की तरह मजबूर हूँ
क्योंकि बहुमत से अभी काफी दूर हूँ//

गढ़बंधन सरकार का मुखिया हूँ
इसलिए खुद भी दुखिया हूँ//

पापी,कामी, हत्यारे भी खुद को संत बता रहे हैं
और ब्लैकमेल कर मुझसे अनुमोदन करवा रहे हैं//

मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता
अपने समर्थक दलों को रुष्ट नहीं कर सकता//

जनता के बीच जाओ वही उपचार करेगी
चरित्रवान लोगों को चुनकर तुम्हारा उपकार करेगी//
-रघुविन्द्र यादव 



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