विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Friday, October 14, 2011

ग़ज़ल

मन को अपने बीमार न कर
हार कभी स्वीकार न कर

अच्छे काम भी हैं दुनिया में
लाशों का व्यापार न कर

मन को जीत न पाए तो
तन पर भी अधिकार न कर

बीत गया वो कब आता है
वक़्त को यूँ बेकार न कर

पूरा करना संभव न हो
ऐसा कोई इकरार न कर

दीवाना है सच बोलेगा
यादव पर ऐतबार न कर

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