सत्ता हित जो कह सके, दिन को काली रात.
मिलती है दरबार से, उनको ही सौगात.
जिनको प्यारी जान से, जनकवियों की रीत.
"यादव" वो लिखते नहीं, दरबारों के गीत.
पुरस्कार-सम्मान से, रखते हैं जो प्रीत.
सत्य छोड़ गाने लगे, वो दरबारी गीत.
कुदरत से मुझको मिली, सच की यह सौगात.
दिन को दिन कहता सदा, कहूं रात को रात.
की उसने आलोचना, मेरी बारम्बार.
आया मेरी बात में, हर दिन नया निखार|
कट सकता है शीश भी, है मुझको यह ज्ञात|
फिर भी कहता हूँ सदा, सीधी सच्ची बात||
-रघुविन्द्र यादव
यूँ तो सभी दोहे कथ्य और शिल्प सभी द्रष्टि से उच्च कोटि के हैं, पर यह दोहा बहुत प्रभावित करता है :
ReplyDelete"जिनको प्यारी जान से, जनकवियों की रीत.
"यादव" वो लिखते नहीं, दरबारों के गीत."
- शून्य आकांक्षी