विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Friday, December 2, 2011

नए दोहे

कोई दौलत लूटता, कोई लूटे चीर/
नेताओं ने देश को, समझ लिया जागीर//

आंसू बनकर बह रहे, जनता के अरमान/
उसने जो सेवक चुने, निकले बेईमान//   

संसद उनकी हो गयी, उनका हुआ विधान/
नेताओं ने देश को, लिया बपौती मान//

रहबर ही रहजन हुए, जनता है मजबूर/
मरहम ही करने लगी, ज़ख्मों को नासूर//

नेताओं ने यूँ किये, सपने चकनाचूर/
मरहम से बनने लगे, ज़ख्म सभी नासूर//

समा गया है खून में, अब तो भ्रष्टाचार/
बाड़ खेत खाने लगी, कैसे हो उपचार//
-रघुविन्द्र यादव 


2 comments:

  1. आपके दोहे आपकी सामाजिक और राजनैतिक सोच की परिपक्वता को बखूबी प्रदर्शित करते हैं. आप सचमुच उस जनता के कवि हैं जो वर्तमान व्यवस्था का दवाब हर स्तर पर झेल रही है. कितना नग्न सत्य है आपके इस दोहे मैं :

    "नेताओं ने यूँ किये, सपने चकनाचूर/
    मरहम से बनने लगे, ज़ख्म सभी नासूर//"

    - शून्य आकांक्षी

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