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Sunday, March 18, 2012

सम्पादकीय में दोहा

15 मार्च के "दैनिक ट्रिब्यून" के सम्पादकीय में 'नागफनी के फूल' का एक दोहा कोट किया गया है| सम्पादकीय का शीर्षक भी इसी के दोहे की पंक्ति है/

सरकारें आयीं-गयीं, भूखा रहा अवाम!

Posted On March - 18 - 2012

वर्ष 2011 की जनगणना के दौरान जुटाये गये आंकड़ों से भारत की जो तसवीर उभरती है, वह देश को शर्मसार करने वाली है। शाइनिंग इंडिया, विश्व की चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति और न जाने ऐसे तमाम जुमलों से देश की जनता को बहलाने वाले राजनेता किस तरह सच्चाई पर पर्दा डालते रहे हैं, उसकी हकीकत ये आंकड़े बयां करते हैं। देश की आधी आबादी के पास शौचालयों का न होना राष्ट्रीय शर्म का विषय ही कहा जा सकता है। कई राज्यों खासकर झारखंड में यह आंकड़ा 70 फीसदी दर्ज किया गया है। इसके मूल में आर्थिक मजबूरी, परंपरागत कारण व अशिक्षा निहित है। विडंबना देखिये कि पचास फीसदी जनता के पास मोबाइल तो हैं लेकिन पचास फीसदी जनता के पास शौचालय नहीं है। देश के 48 फीसदी लोगों के घर में जल निकासी की व्यवस्था नहीं हैं। विडंबना यह भी है कि 36 फीसदी लोग एक कमरे के मकान में रहते हैं। ऊंची-ऊंची विकास दर के दावों के बावजूद नंगी हकीकत यह भी है कि देश में मात्र 4.7 फीसदी लोगों के पास चौपहिया वाहन हैं और 44 फीसदी लोगों के यातायात का साधन साइकिल है। ये आंकड़े देश में लोकतंत्र की असली तसवीर दिखाते हैं कि लूटतंत्र में तबदील हो चुके लोकतंत्र का फायदा वास्तव में किसे हो रहा है। इन आंकड़ों से उभरती तसवीर से आहत कवि रघुविंद्र यादव सटीक टिप्पणी करते हैं:-
बड़े-बड़े जलसे हुए, वादे हुए तमाम,
सरकारें आयीं गयीं, भूखा रहा अवाम।
जनगणना आयुक्त और रजिस्ट्रार जनरल सी. चंद्रमौली द्वारा जारी आंकड़े हमें बताते है कि ग्रामीण भारत की 62 फीसदी आबादी आज भी खाना बनाने के लिए लकड़ी के ईंधन का इस्तेमाल करती है, जबकि 28 फीसदी लोग ही खाना बनाने हेतु गैस का इस्तेमाल करते हैं। आंकड़ों का एक निष्कर्ष यह भी है कि आज विकास सिर्फ महानगरों व बड़े शहरों तक सिमट कर रह गया है। इनके निष्कर्ष यह भी हैं कि देश के विकास का मॉडल इस विभेद का कारक है, जो ग्रामीण समाज को हाशिये पर धकेल देता है। विकास के नाम पर उन्हें सिर्फ और सिर्फ आश्वासन ही मिले। जैसा कि कवि ज्ञानप्रकाश ‘विवेक’ लिखते भी हैं :-
आश्वासनों के घड़े में डालकर वादों का जल,
मुफलिसों की प्यास को इस तरह बहलाया गया।
दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार भारत के बारे में यह तथ्य चौंकाता है कि 2001 के मुकाबले चौपहिया वाहनों में 2.5 फीसदी के मुकाबले वृद्धि कुल 4.7 हो गई है। रोचक बात यह है कि शहरों व ग्रामीण इलाकों में दोपहिया वाहनों के प्रति रुझान बढ़ा है। देश के 21 प्रतिशत घरों में दोपहिया वाहन हैं, इसमें 9.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। यह भी कम चौंकाने वाली बात नहीं है कि आम आदमी का वाहन मानी जाने वाली साइकिल में 1.1 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। देश में 44.8 प्रतिशत घरों में साइकिल है। लेकिन शहरों में साइकिलों के प्रति रुझान घटा है। देश में लक्षद्वीप ऐसा संघीय शासित क्षेत्र है जहां साइकिल के प्रति लोगों में खासा रुझान है। तसवीर यह बताती है कि ऊंची-ऊंची विकास दरों और शेयर मार्केट की उछाल से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं है। आम आदमी के दुख-दर्द और शेयर मार्केट की उछाल की विसंगति को कवि केशू कुछ इस तरह शब्द देता है :-
यहां भूख को लेकर बहस बेकार है शायद,
तरक्की का पैमाना शेयर बाजार है शायद।
जनगणना के आंकड़ों में सबसे चौंकाने वाली जानकारी यह सामने आई है कि देश में स्कूल-अस्पतालों से ज्यादा मंदिर-मस्जिद हैं। देश के पंजीयक एवं जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में शैक्षणिक संस्थान एवं अस्पताल 27.89 लाख हैं जबकि पूजास्थल 30 लाख से अधिक हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुकाबले धार्मिक स्थलों में तीव्र वृद्धि दर्ज हुई। इस अवधि में शैक्षणिक संस्थान व अस्पताल 6.7 लाख बढ़े, जबकि पूजास्थल 7.15 लाख बढ़े। विडंबना यह है कि अस्पताल करीब 80 हजार ही बढ़े जबकि शिक्षण संस्थान 6.5 लाख बढ़े। ये आंकड़े हमारी सोच तथा विकास की दशा व दिशा को दर्शाते हैं। ऐसे हालात को देखकर कवि उदयभानु ‘हंस’ लिखते हैं :-
हमने जितने थे बुने इंद्रधनुष के सपने,
चिथड़े हो गये सब विधवा के आंचल की तरह।
इन्हीं आंकड़ों के बीच खबर आई कि बसपा सुप्रीमो मायावती की संपत्ति 2007 के 52 करोड़ के मुकाबले 2012 में 111 करोड़ 64 लाख हो गई है। उनकी संपत्ति पिछले दो साल में 25 फीसदी की दर से बढ़ी है। उधर बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के तमाम रईस राजनेताओं में सोनिया गांधी का नंबर चौथा है। साइट के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्षा की संपत्ति 45 हजार करोड़ आंकी गई है। ये आंकड़े बताते हैं कि देश के राजनेता उत्तरोत्तर आर्थिक उन्नति कर रहे हैं, लेकिन आम आदमी हाशिये पर जा रहा है। आम आदमी के पास थोड़े पैसे आते हैं तो आयकर विभाग समेत तमाम विभाग छानबीन में जुट जाते हैं लेकिन बड़ी मछलियों पर कोई हाथ नहीं डालता। जैसा कि वसीम बरेलवी लिखते भी हैं :-
गरीब लहरों पे पहरे बिठाये जाते हैं,
समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि जनतंत्र में जब जन हाशिये पर जा रहा है और तंत्र फल-फूल रहा है देश की संसद में तीन सौ सांसदों का करोड़पति होना यही दर्शाता है कि देश में आर्थिक असमानता की क्या स्थिति है। एक तरफ आधी आबादी बीस रुपये रोज की आय पर गुजर-बसर कर रही है, वहीं दूसरी ओर अरबपतियों की बढ़ती संख्या गरीबी का मजाक उड़ा रही है। लेकिन इतना तो तय है कि हमारे सत्ताधीश जनमानस के सरोकारों के प्रति संवेदनहीन बने हुए हैं। यदि हमारे शासक आम आदमी की समस्याओं के प्रति गंभीर होते तो जनगणना के ये आंकड़े शर्मसार न करते। इसी हकीकत का बयां करते हुए कवि अंजुम सटीक टिप्पणी करते हैं :-
देश हो गया आपके, अब्बा की जागीर,
जैसे चाहे भोगिए, जनता हुई फकीर।

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