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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Thursday, February 5, 2015

कुण्डलिया छंद

लिख-लिख कर दी आपने, छंदों की भरमार|
कभी गौर से देखना, दिखती है क्या धार|
दिखती है क्या धार, छंद खुद ही बोलेंगे|
खुल जायेगी पोल, देखना जब तोलेंगे|
कह यादव कविराय, व्यर्थ क्यों पोथी भर दी?
शब्दों की भरमार, छंद सब लिख-लिख कर दी||

2
मंदिर मेें माँ आरती, मस्जिद बीच अजान।
माँ से बढक़र है नहीं, दुनिया में भगवान।।
दुनिया में भगवान, रूप माँ जैसा धरता।
रखता माँ का मान, उसी के संकट हरता।
माँ को देते कष्ट, बनाते देवी मंदिर।
पहले करते पाप, बाद में जाते मंदिर।।
3
जिनके ऊँचे हौसले, उतर गये वो पार।
असफल होते हैं वही, मन से जो बीमार।
मन से जो बीमार, सफलता कैसे पाते?
होते हैं जो वीर, वही तो राह दिखाते।
करें भवन तैयार, जोडक़र तिनके-तिनके।
वही उतरते पार, हौसले ऊँचे जिनके।।
4
भूखा पूत गरीब का, माँग रहा था भीख।
लाला आकर दे गया, नैतिकता की सीख।।
नैतिकता की सीख, दे रहे पैसे वाले।
वही कहाते सेठ, करें जो धन्धे काले।
भ्रष्ट कर रहे मौज, भलों को मिले न रूखा।
माँगेगा वो भीख, रहेगा जो भी भूखा।।
5
नारी पूजक देश में, है नारी लाचार।
हत्या, शोषण, अपहरण, भरे पड़े अखबार।।
भरे पड़े अखबार, जुल्म नारी पर होते।
बेटी देते मार, पूत की खातिर रोते।
अस्मत लुटती रोज, अपहरण भी हैं जारी।
देवी का है देश, मगर दुखिया है नारी।।

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