कवियों का होता नहीं, सत्ता से अनुराग|
चारण गाते हैं सदा, दरबारों के राग||
दरबारों के राग, अगर तुम भी गाओगे|
कविता होगी गौण, भांड ही कहलाओगे|
कह यादव कविराय, शमन कर लें कमियों का|
अगर चाहिए मान, आचरण रख कवियों का|
2
बरगद रोया फूटकर, घुट-घुट रोया नीम।
बेटों ने जिस दिन कि ये, मात-पिता तकसीम।।
मात-पिता तकसीम, कपूतों ने कर डाले।
तोड़ दिये सब ख्वाब, दर्द के किये हवाले।
बेटे को दे जन्म, हुई थी माता गद्गद।
आज तड़पती देख, फूटकर रोया बरगद।।
3
अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी पीर।
रम्भा चाहे नग्रता, धनिया चाहे चीर।।
धनिया चाहे चीर, लाज है उसको प्यारी।
पास नहीं हैं दाम, करे क्या संकट भारी।
रम्भा का है ख्वाब, दिखाये काया चिकनी।
घटा रही नित चीर, सोच है अपनी-अपनी।।
4
गंदा नाला बन गई, नदियों की सिरमौर।
गंगाजी को चाहिए, एक भगीरथ और।।
एक भगीरथ और, करा दे जल को निर्मल।
हटवाये अवरोध, बहादे धारा अविरल।
करने से अरदास, नहीं कुछ होने वाला।
उठें मदद में हाथ, शुद्ध हो गंदा नाला।।
5
बुलबुल हैं बेबस सभी, गिरवी है परवाज।
गली-गली सय्याद हैं, डाल-डाल पर बाज।।
डाल-डाल पर बाज, कर रहे पहरेदारी।
लूट रहे सम्मान, जुल्म हैं अब भी जारी।
बने बहुत कानून, मगर हैं सारे ढुलमुल।
दुश्मन बना समाज, करे क्या बेबस बुलबुल।।
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