विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, August 10, 2015

कौन-सी ज़मीन अपनी-सुधा ओम ढींगरा

'ओये मैंने अपना बुढ़ापा यहाँ नहीं काटना, यह जवानों का देश है, मैं तो पंजाब के खेतों में, अपनी आ$िखरी साँसें लेना चाहता हूँ।' जब वह अपने बच्चों को यह कहता, तो बेटा झगड़ पड़ता, 'अपने लिए आप कुछ नहीं सहेज रहे और गाँव में ज़मीनों पर ज़मीन खरीदते जा रहे हैं।'
वह मुस्कराकर कहता-'ओ पुत्तर, तूं और तेरी भैण ने मेरा सिर ऊँचा कर दिया है, अमेरिका में मेरी मेहनत सफल कर दी है। मैंने तो आसमान छू लिया है... तूं डॉक्टर बन रहा है और तेरी भैण वकील। बेटा जी, इससे ऊपर तो मुझे और कुछ नहीं चाहिए। तुम नहीं समझ सकते, अभी बाप नहीं बने हो ना।'
बेटा बहस करता-'वह सब ठीक है पापाजी, पर एक घर तो बनवा लें, सारी उम्र दो रूम वाले टाऊन हाउस में गुजार दी। कल को हमारे बच्चे आपके पास आयेंगे तो कहाँ खेलेंगे?'
'पुत्तर जी, पंजाब के खेतों में बड़ा खुला घर बनवाऊँगा, वहाँ खेलेंगे। जब हम यहाँ सबसे मिलने आयेंगे, तब तेरे और तेेरी भैण के पास रहेंगे, वहाँ खेलने के लिए काफी जगह होगी...।'
बेटा उनकी जि़द्द के आगे हथियार डाल देता, बेबस सिर झटक कर घर से बाहर निकल जाता, 'ही विल नैवर चेन्ज।'
मनविन्दर भी तो बेबस हो जाती थी। दारजी और बीजी की चिट्ठी आते ही मनजीत सिंह सोढ़ी नवाँशहर 'पंजाब' में अपने भाइयों को ज़मीनें खरीदने के लिए पैसे भेज देता था।
मनविन्दर तड़प कर रह जाती, समझाने की सब कोशिशें बेकार हो जाती थी, 'सिंह साहब घर के खर्चों की ओर भी ध्यान दीजिए, ठीक है बच्चे स्कॉलरशिप पर पढ़ रहे हैं, पर उनके और भी तो खर्चे हैं, चार कारों की किश्तें जाती हैं। इतनी ज़मीनें खरीदकर क्या करेंगे?'
'मनविन्दर कौरे, जाटों की पहचान ज़मीनों से होती है।' बड़े गर्व से छाती चौड़ी कर मनजीत सिंह कहता।
यही बात झगड़े का रूप ले लेती, 'पर कितनी पहचान सरदार जी, कहीं तो अंत हो। वर्षों से आपके घरवाले ज़मीनें ही तो खरीद रहे हैं। पैसों का कोई हिसाब-किताब नहीं, यहाँ ज़मीन बिकाऊ है, वहाँ ज़मीन बिकाऊ है, यह टुकड़ा खरीद लो, गाँव की सरहद से लगे खेत ले लो। किल्ले पर किल्ले इक_े करते जा रहे हैं।'
मनविन्दर का पारा चढ़ते देख मनजीत घर से बाहर दौड़ लगाने चला जाता और फिर दूसरे दिन ही एक चैक पंजाब नैशनल बैंक में दारजी के नाम भेज देता। मनविन्दर बस रोकर रह जाती।
रोई तो वह तब भी थी जब मनजीत सिंह सोढ़ी से तीस वर्ष पहले उसकी शादी हुईथी। हालाँकि उसका तो सारा परिवार अमेरिका में था, फिर भी वह रोई थी, दादा-दादी को छोड़ते समय। मनविन्दर के दो भाई यूबा सिटी 'कैलिफोर्नियाÓ के खेतों में काम करते थे। नाज़ायज तरीके से वे अमेरिका में आये थे, पर मैक्सिकन लड़कियों से शादी कर जायज हो गये थे, यानी ग्रीन कार्ड होल्डर। पाँच साल बाद अमरीकी सिटीजन बनकर, उन्होंने अपना पूरा परिवार बुला लिया था। तब इमिग्रेशन के कायदे-कानून इतने सख़्त नहीं थे जितने अब हैं।
छह फुट लम्बे, कसरती, सुगठित गोरे सिख मनजीत सिंह को दादा-दादी ने ही तो पसंद किया था। माँ-बाप और दो छोटे भाई थे उसके। गरीब घर के बेटे को जानबूझ कर पसंद किया गया था, ताकि मनविन्दर की कद्र कर सके। नौजवान मनजीत, मनविन्दर के साथ आसूँ बहाता अमेरिका आ गया था।
मनजीत अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था और मनविन्दर नहीं चाहती थी कि उसके भाइयों की तरह उसका पति भी खेतों में काम करे। शादी से पहले ही अपने भाइयों को समझाकर, कायल करके, उसने उनसे बैंक में अग्रिम राशि...डाउन पेमैंट के रूप में दिलवा दी थी, और गैस स्टेशन का लोन लेकर, कैरी 'नार्थ कैरोलीना' में गैस स्टेशन खरीद भी लिया था।
शादी के बाद भारत से वे सीधे कैरी ही आये थे। मनजीत सिंह को जब तक ग्रीन कार्ड नहीं मिला, मनविन्दर गैस स्टेशन के व्यवसाय में मुख्य भूमिका में रही तथा बाद में मनजीत सोढ़ी उसका मालिक हो गया। मनविन्दर सिलाई-कढ़ाई में माहिर थी। गैस स्टेशन मनजीत के हवाले करके, उसने उसी समय अमरीकी दुल्हनों के कपड़े सीलने की दुकान शुरू की, जो बाद में 'वैडिंग गाउन बुटीक' बन गया। बुटीक खूब चल निकला और उसका काम इतना बढ़ गया कि बीस लोग मनविंद्र के साथ काम करने लगे-कुछ भारतीय मूल के थे और कुछ स्थानीय। अपने आकर्षक व्यक्तित्व और मधुर बोली से मनजीत कैरी शहर के सब समुदायों के लोगों में लोकप्रिय हो गया। तब गिने-चुने भारतीय थे, अब तो चारों ओर भारतीय ही नज़र आते हैं। लोग उन्हें प्यार से वीर जी और मनविंदर को भाभी जी कहने लगे थे।
तब से अब तक मनजीत का एक ही सपना रहा कि बुढ़ापा भारत में बिताना है। मनविंदर, मनजीत की इस उत्कंठा के आगे मजबूर हो चुकी थी, उम्र के इस पड़ाव में, वह भारत जाना नहीं चाहती थी, यह देश उसे अपना-सा लगता, उसका पूरा परिवार अमेरिका में फैला हुआ है। साथ-साथ फले-फूले वे मित्र, सालों पहले बने रिश्ते जो समय के थपेड़ों से प्रगाढ़ हुए, सब छोडऩा उसके लिए आसान नहीं था...ये रिश्ते जन्म से मिले रिश्तों से कहीं गहरे हो गए थे...जीवन की कडक़ड़ाती धूप, बरसात और ठंडक ने इन्हें पका दिया था। भारत के रिश्तों के लिए तो वे बस मेहमान बनकर रह गये थे, जो साल या दो साल में एक बार उन्हें, रिश्तेदार होने व अपनेपन का एहसास दिलाते थे।
मनजीत आज भी तीस साल पुराने सम्बंधों में ही जी रहा था। समय का परिवर्तन भी उसकी सोच व रिश्तों के प्रति दृष्टिकोण में कोई अन्तर न ला सका। भारत की प्रगति और बदलता परिमंडल भी उसकी ठहरी सोच के तालाब में कंकर फेंक, लहरें पैदा नहीं कर सका था। मनजीत को समझाना मनविंदर के लिए बहुत मुश्किल हो रहा था, वह हर समय तनाव में रहने लगी थी।
बच्चों ने अपनी पसंद से शादियाँ कर लीं। मनविंदर ने सोचा कि शायद अब मनजीत के स्वभाव में कुछ परिवर्तन आ जाये, घर में बहू और दामाद आ गये हैं। पर मनजीत अपने आप को हर जि़म्मेदारी से मुक्त समझने लगा और मन ही मन पंजाब में घूमता रहा। अपने खेतों में पहुँच जाता... तीनों भाई गन्ने के खेतों में घूमते, गन्ने चूसते फिर गन्ने के रस से दार जी गर्म-गर्म गुड़ बनाते और तीनों भाई गर्म गुड़ की भेली सूखी रोटी के साथ खाते। शक्कर में एक चम्मच देसी घी और डलवाने की मनजीत जि़द करता, छोटे भाई बिलबिलाकर, पैर पटक-पटककर अपनी कटोरियाँ बीजी के आगे करते। ऐसे में बीजी बड़ी समझदारी से दोनों छोटों को प्यार से सहलातीं, मुस्कराते हुए कहतीं-'मनजीता मेरा जेठा पुत्तर है, इसने बड़ा हो के सानू सब नूं संभालणा है, इस नूं ताकत दी बहुत ज़रूरत है।Ó और दोनों छोटों की कटोरी मेें आधा-आधा चम्मच घी डाल देतीं। सरसों का साग और मकई की रोटी परोसते समय भी बीजी चाटी में हाथ डालकर मु_ीभर मक्खन उसके साग पर डाल देतीं और लस्सी के छन्ने को भी मक्खन से भर देती थीं। छोटों को वे आधे हाथ के मक्खन में ही टाल जातीं।
नींद में भी मनजीत गाँव वाले घर पहुँच जाता... आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित पक्का घर, ट्रैक्टर, काम$गार और... बीजी का बार-बार मनजीत का माथा चूमना, छोटों का गले लगना और साथ सटकर बैठना। दार जी का, अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए गर्दन अकड़ा कर अपने दोस्तों को सुनाना-'पुत्तर होवे तां मनजीता वरगा, अमरीका जा के वी एॅह सानुं नहीं भुलिया। साडा पेट भर गया, पर एॅह डालर भेजता नहीं थकिया... ज़मीनां जट्टां दा स्वाभिमान हुंदा है... मेरे पुत्तर ने मेरा मान रखिया।'
सुबह मनजीत तरोताजा और ऊर्जा से भरपूर उठता... सारा दिन इसी तरंग में रहता कि इतना प्यार करने वाले परिवार में बुढ़ापा कितना बढिय़ा गुज़रेगा। बेटा-बेटी तो अपनी जि़न्दगी में व्यस्त हो गये हैं। कभी सोचता कि ज़मीनों के दो-चार टुकड़े बेचकर गाँव का स्कूल ठीक करवा दूँगा, दीवारें काफी गिर गई हैं, कुछ कम्प्यूटर भी ले दूँगा... बच्चों को पढ़ाई की सख़्त ज़रूरत है, उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। अगर वह पढ़ा-लिखा होता तो अमरीका में इतनी सख्त मेहनत न करता, डॉक्टर, साइंटिस्ट, इंजीनियर बनकर वह भी सम्पन्न जीवन जीता।
मनजीत अपने आप से बातें करता-'दार जी नहीं मानेंगे, वे गुरुघर को चंदा देना चाहेंगे। बीजी को समझाकर उन्हें भी मना लूँगा।'
सुुखद कल्पनाओं और भारत लौटने की चाह में वह दिन गिन रहा था। अंतत: वह दिन भी आ गया। मनजीत को गैस स्टेशन खरीदने वाला मिल गया, पार्टी ऐसी थी जिसने बुटीक भी खरीद लिया।
बस अब जल्दी-जल्दी घर का सारा सामान गैराज सेल में रखा गया और कुछ सामान बच्चे ले गये। जो नहीं बिका उसे वियतनाम वैटेरंस वाले अपने ट्रक में उठा कर ले गये।
मनजीत को अमेरिका में दिन काटने मुश्किल हो रहे थे और मनविंदर उदास-परेशान रहने लगी, उसके सिर में हर समय दर्द रहने लगा। बात-बात में झगडऩा उसकी दिनचर्या हो गई थी। मनजीत की दृढ़ता के आगेे भारत जाने का वह खुलकर विरोध नहीं कर पा रही थी। चुप, शांत यंत्रवत-सी वह सारे काम कर रही थी।
'बैंक जाकर मैं सारा पैसा पहले ही वहाँ परिवार में भिजवा देता हूँ, ताकि जाते ही काम शुरू करवा दूँ।Ó मनजीत के इस कथन से मनविंदर के अंदर का लावा ज्वालामुखी बन फट पड़ा। 'खबरदार! सरदार मनजीत सिंह, अगर इस पैसे को हाथ लगाया। मैं और हमारे बच्चे भी आपका परिवार हैं, सिर्फ पंजाब में ही आपका परिवार नहीं बसता... और आप तो वर्षों से कहते आये हैं कि वहाँ कुछ ज़मीन बेचकर सारे काम पूरे करेंगे, कल ही मैं जाकर इसे वकोविया बैंक में जमा करवा दूँगी सी.डी. में।'
मनविंदर की कडक़ आवाज़ भी मनजीत को विचलित नहीं कर पाई और वह अपने मीठे लहज़े में फिर बोला-'सरदारनी जी, इतना गुस्सा ठीक नहीं, हमने इस देश में वापिस थोड़े ही आना है, गये तो पलटकर क्या देखना?'
मनविंदर बिखर पड़ी-'क्या बच्चों को मिलने नहीं आयेंगे? तब उनसे पैसे माँगेंगे, पोते-पोती, नवासे-नवासी को गिफ्ट देने के लिए बच्चों के आगे हाथ फैलायेंगे?'
वह शांत लहज़े में बोला-'ओ मेरी हीरे, अपने राँझे की बात गौर से सुन, हमारे बच्चों को इस पैसे की ज़रूरत कहाँ है। डॉक्टर और वकील के पास तो रब्ब की मेहर होती है... गिफ्ट हम पंजाब से लायेंगे।'
मनविंदर का धैर्य अब जवाब दे गया था-'नवांशहर में इस पैसे की ज़रूरत है? जहाँ ज़मीनों की कीमतें आसमान छू रही हैं। अपनी जि़द पर अगर अड़े रहे तो, आप अकेेले ही भारत जायेंगे, मैं यहाँ इसी टाऊन-हॉउस में रह कर बच्चों को मिलने जाती रहूँगी और आप पंजाब में अपने परिवार के साथ बुढ़ापा बिताना।'
यह सुनते ही मनजीत ढीला पड़ गया... मनविंदर के व्यक्तित्च के इस पहलू से वह वाकि$फ था। बेवजह वह उत्तेजित नहीं होती, पर अगर कोई निर्णय वह ले ले, तो उसे वापिस मनाना भी आसान नहीं।
आसान तो मनजीत को कुछ भी नहीं लग रहा, दो दिन बाद वापसी है और पल-पल काटना कठिन हो रहा है। मन खेतों की मेड़ों और पैलियों में झूम रहा है और धड़ यहाँ घिसट रहा है। पंजाबी गुट और अन्य समुदायों ने विदाई की पार्टी दी, पर मनजीत ने बस औपचारिकता निभाई। मनजीत का मन अमेरिका से उचट गया था।
कैरी से न्यूयार्क और न्यूयार्क से दिल्ली तक का सफर एयर इंडिया के जहाज़ में, उसने तो सो कर या रब ने बनाई जोड़ी फिल्म देखकर काटा। टाऊन हॉउस को बेचा नहीं गया, बच्चों ने जि़द करके, इस तर्क के साथ कि उनका बचपन और जवानी उसमें बीती है, उसे अपने पास रख लिया था। फिलहाल उसे किराये पर चढ़ा दिया गया, किरायेदार को सौंपने और सामान की पैकिंग करने से मनविंदर बहुत थक गई थी, वह तो सारे रास्ते सोती गई। दोनों की आपस में कोई ज्य़ादा बातचीत नहीं हुई।
मनविंदर कई दिनों से गुमसुम थी, मतलब की बात करती, मनजीत कुछ पूछता बस उसी का उत्तर देती, उससे ज्य़ादा कभी नहीं बोलती।
पर उसके पास मनविंदर की तर$फ ध्यान देने का समय ही कहाँ था... वह तो भारत जाने के सरूर में मस्त था... जहाज़ में भी उसे महसूस नहीं हुआ कि मनविंदर किस अप्रतिम वेदना से गुजर रही है। मूवी देखकर वह सो गया।
मनविंदर को प्यास लगी और उसकी आँख खुल गई। एयर होस्टेस से उसने पानी मंगवाया। साथ की सीट पर बच्चों की तरह सो रहे मनजीत को वह अपलक निहारती रही...।
इसके प्यार की $खातिर वह गृहस्थी की तकली पर सुतती रही, पर कभी उ$फ नहीं की... अब तो उसकी भावना ही अटेरनी चढ़ गई है... वह बस अटेरी जा रही है... और इसे $खबर भी नहीं है।
आदमी अपनी धुन में औरत से इतना बे$खबर कैसे हो जाता है? जिससे प्यार करता है, उसकी अग्रि-परीक्षा लेते हुए उसका दिल क्यों नहीं दुखता? दादी कहती थी, आदमी की जि़द बच्चों जैसी होती है, प्यार से मना लेते हैं... पर यहाँ तो प्यार, गुस्सा कुछ काम नहीं आया। सोचों ने उसका सिर भारी कर दिया और थकान भी शरीर को ढ़ीला करने लगी, नींद हावी हो गई... उसने सिराहना उठाया, जहाज़ की खिडक़ी के साथ टिकाया और टाँगों को अपनी छाती के साथ लगाकर कुर्सी पर गठड़ी-सी बन कर, सिराहने से टेक लगाकर, कम्बल ओढक़र सो गई।
जैसे ही जहाज़ ने इंदिरा गांधी एयरपोर्ट का रनवे छुआ, मनजीत सिंह की आँखों में आँसू आ गये। '30 वर्षों की कैद से छूटकर आ रहा हूँ।' कहते हुए उसने नैपकिन से अपने आँसू पोंछे। मनविंदर खिडक़ी से बाहर एयरर्पोट की चहल-पहल देखती रही। कस्टम की औपचारिकता निभाकर जब सरदार मनजीत सिंह एवं बीबी मनविंदर कौर बाहर निकले तो भतीजों ने फतेह बुलाकर स्वागत किया। मनजीत बाग-बाग हो गया... दो भतीजे वैन लेकर आये थे।
दिल्ली से नवाँशहर जाने में पाँच घंटे लगे।
ऊबड़-खाबड़ सडक़ों के हिचकोले, चारों ओर उड़ती धूल देख पहली बार मनविंदर बोली-'भारत कितनी भी तरक्की कर ले, सडक़ें कभी भी ठीक नहीं होंगी... प्रदूषण तो बढ़ता ही जा रहा है।'
मनजीत ने बीच में ही बात काट दी-'सोनिओ, अपने देश की तो धूल-मिट्टी का भी आनंद है। 30 वर्ष में गोरों की धरती पर मिट्टी का सुख भी नहीं मिला।'
'ताया जी, वहाँ बिल्कुल धूल नहीं होती, कैसे इतनी सफाई रखते हैं?' बड़े भतीजे सुखबीर ने पूछा।
'अमरीका बड़ी प्लानिंग के साथ बना हुआ है। बड़ी-बड़ी इमारतें मिलेंगी या साफ-सुथरी सडक़ें, खुली जगह तो बहुत कम देखने को मिलती है। खाली जगह को भी घास और फूलों से भर देते हैं, ताकि धूल न उड़े।'
'पर ताया जी सडक़ों की मरम्मत करते समय और इमारतें बनाते समय तो गंद पड़ता होगा, धूल-मिट्टी उड़ती होगी।'
'पुत्तर जी, उनके काम करने के ढंग भी बहुत विचित्र हैं। एक ट्रक फैला-बिखरा सामान उठा ले जाता है और दूसरा ट्रक पानी की टंकी लाता है और सारी जगह धो जाता है।'
सुखबीर आँखें फैलाकर बोला-'हैं, ताया जी फिर तो आप स्वर्ग में रहते हैं।'
'नहीं ओय, स्वर्ग में काले पानी की सज़ा है, सब कुछ ऊपरी, बनावटी और बेरंगी दुनिया है। भावनाएँ, गहराई, सच्चाई और रस तो अपने देश में है।' मनजीत सिंह अपनी मस्ती में बोलता जा रहा था। भतीजे सुन रहे थे और मनविंदर पिछली सीट पर इन सब बातों को अनसुना करते हुए सो गई थी।
घर में प्रवेश करते ही बीजी, दार जी ने आशीर्वादों के साथ दोनों के माथे चूम लिए। ऊपरी मंजिल पर एक कमरा ठीक कर दिया गया था। उनका सामान वहीं टिका दिया गया। जल्दी-जल्दी खाना खिलाया गया। एक बात ने दोनों का ध्यान आकर्षित किया कि रसोई भतीजों की पत्नियों के हवाले थी और उनमें से कोई भी सुघड़ गृहणी जैसा व्यवहार नहीं कर रही थी... सभी काम को निपटाने और जल्दी-जल्दी समेटने में लगी हुई थीं। उनका अधैर्य स्पष्ट नज़र आ रहा था।
आधी रात में मनविंदर पेशाब के लिए जब नीचे गई तो मनजीत भी उसके साथ नीचे आया। ऊपर कोई बाथरूम नहीं था, नई जगह और घना अंधेरा था। वह जानता था मनविंदर अंधेरे से बहुत डरती है। उसने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा-'मेरी रानी, कुछ दिन तकलीफ सह ले, मैं तुझे बहुत बड़ा और अच्छा-सा घर बनवाकर दूँगा। बहुत साल तुमने इंतज़ार किया है।'
मनविंदर कुछ बोली नहीं थी, बस गहरी साँस लेकर चुप हो गई थी।
दूसरे दिन मनजीत तो भाई-भतीजों के साथ खेतों में चला गया। पूरे गाँव और आस-पास की अपनी ज़मीने देखने।
मनविंदर बहुओं के साथ रसोई में जाने लगी तो बीजी ने टोका-'नहीं मन्नी कुछ दिन तां आराम कर लै, करन दे इन्हां नु कम।' बीजी प्यार से मनविंदर को मन्नी कहती थी। 'बीजी मैं खाली नहीं बैठ सकती। साथ काम करवा देती हूँ। जल्दी निपट जायेगा।'
मनविंदर रसोई में गई तो थोड़ी देर बाद सब बहुएँ एक-एक करके वहाँ से खिसक गईं। कोई कपड़े धोने और कोई कपड़े सुखाने के बहाने। मनविंदर अकेली ही रसोई में लगी रही। उसे तो हर तरह के काम की आदत थी। अमेरिका में हलवाई, धोबी, बावर्ची, मेहतरानी वह खुद ही तो थी। उसे हैरानी तो इस बात की हुई कि एक भी देवरानी उसका साथ देने नहीं आई। एक सिर में तेल लगाती रही, दूसरी बीजी के और अपने शरीर की मालिश करती रही। वे उससे बेपरवाह, बेखबर धूप में बैठी, अपना बदल सहलाती रहीं।
सारा कुनबा जब थका-हारा घर लौटा तो मनविंदर ने बड़े प्यार और मुहब्बत से सबको खाना खिलाया।
लक्खी से रहा नहीं गया, कह ही दिया उसने-'भाभी बीजी दी रसोई दी याद आ गई, आप दियां देवरानिया तां निक्कमियां ने, नुआं उन्हां तो वी गईयां गुज़रियां, बीजी तां सब कुछ छड़ के बैठ गए, इन्हांनू अकल कौन दवे?'
'वीरा, ऐसा नहीं कहते घर की औरत को, वह तो लक्ष्मी का स्वरूप है। उसको सम्मान देते हैं, चाहे वह कैसी भी हो।' मनविंदर ने मुस्कराकर कहा।
मुस्कराकर ही तो लक्खी ने पूछा था-'भराजी, किन्ने दिन रहन दा इरादै, कमरा छोटे काके दै। दोनों पति-पत्नी ड्राईंग रूम विच सोंदे ने।'
'हम यहाँ हमेशां के लिए, आप लोगों के साथ रहने, परिवार की धूप-छाँव का आनंद लेने आए हैं।' मनजीत ने अपने दार जी से कहा।
इतना सुनते ही सबके चेहरों के भाव बदल गये। एक बेरुखी-सी झलक आई, उन सबके मुस्कराते चेहरों पर।
'बच्चे तां अमरीका च ने, उन्हां तो बिना तेरा दिल किंज लगेगा?' बीजी ने निर्विकार भाव से कहा।
'बीजी, हर साल हम उन्हें वहाँ मिलने जाएंगे और छुट्टियों में वे यहाँ हमारे पास आएंगे। अमरीका में मैंने आप सब को बेइंतिहा याद किया... यहाँ आने तक आप सबको बहुत मिस करता रहा, माँ आप मेरे दिल में हर समय रही हैं।'
'तीस सालां बाद वी?'
'हाँ माँ, 30 सालां बाद वी। जहाँ मिली रोटी वहाँ बाँधी लंगोटी...अमरीका के इस कल्चर को मैं अपना नहीं पाया। आपको नहीं पता, मैंने वहाँ दिन कैसे काटे?' मनजीत ने वहाँ जीवन कैसे बिताया...किसी ने यह जानने में रुचि नहीं दिखाई।
लक्खी का चेहरा कठोर हो गया-'ज़मीनों पे ह$क जमाने आये हो?'
'ह$क कैसा लक्खी, मैंने ही तो पैसा भेजा था, सारी ज़मीनें हम सब की ही तो हैं। एक टुकड़ा बेचकर, मैं अपना घर बनवा लूँगा ताकि सब आराम से रह सकें।' मनजीत का स्वर दृढ़ था।
बीजी की कडक़ती आवाज़ उभरी-'तीस साल पहिलां मेरा पुत्तर मैथों खोह लिया, हुन ज़मीना, एक सब तेरे कारनामे ने, मेरा मनजीता इंज दा नहीं, कन्जरिये।'
मनजीत और मनविंदर सन्न रह गये।
सहनशीलता का दामन छोड़ते ही शर्म का पर्दाभी हट गया, मनविंदर भडक़ उठी-'पानी वार कर आपने ही कहा था-नुएं संभाल मेरे पुत्तर नूं, तेरे हवाले कीता, इसनूं अमरीका विच पक्का करवा दई। डालरां ने तां पिंड अमीर कर दिते ने, इसदी कमाई साडी वी गरीबी हटा दवेगी।'
'गरीबी तो हट गई पर पैसे की गर्मी ने रिश्ते ठंडे कर दिये। इस उम्र में कु$फर ना तोलें बीजी, रब्ब से डरें, मनजीत आपका सौतेला बेटा नहीं, आपका हिस्सा है। क्यों आप मुझे गालियाँ देकर मुँह गंदा कर रही हैं। हम कुछ छीनने नहीं आये, बस आपके दिलों में थोड़ी-सी जगह चाहते हैं, सालों से आपके नाम की माला जपने वाला आपका पुत्तर यहीं रहना चाहता है, आपके पास।'
दार जी बिना कुछ कहे उठ गये और उनके साथ ही सब अपने कमरों में चले गये।
कुछ दिन दोनों के लिए बहुत कष्टप्रद रहे। घर में सबने बोलचाल बंद कर दी थी। मनजीत अपने ही घर में अजनबी बन गया था। मनविंदर का गुस्सा उसकी बेबसी देखकर शांत हो गया था। वह उसके लिए चिंतित हो उठी थी। परिवार के प्रति उसकी भावनाएँ मनविंदर से छिपी हुई नहीं थीं। जानती थी कि कितनी शिद्दत से वह अपने परिवार को चाहता है और उनके व्यवहार ने उसे भीतर तक तोड़ दिया था। वे स्वंय ही खाना बनाते, अकेले खाते, सब उनसे कटे-कटे दूर-दूर रहते।
मनजीत अब भी अपने पुराने बीजी, दार जी और भाइयों के सपने लेता। सपना टूटने के बाद करवटें बदलते रात निकाल देता। वर्तमान स्थिति उसे मानसिक तनाव दे रही थी। वह स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि माँ-बाप, भाई ऐसे कैसे इतना बदल सकते हैं। ज़मीनों ने रिश्ते बाँट दिये थे, जिन पर सरदार मनजीत सिंह ने सारी उम्र मान किया था। मन और बुद्धि में संघर्ष चल रहा था, कभी मन अर्जुन बन, रिश्तों के भावनात्मक पहलू की दुहाई देता और कभी बुद्धि वासुदेव बन हक की लड़ाई को प्रेरित करती। अगर रिश्ते आँखों पर पट्टी बाँध लें तो उन्हें खोलनी ही पड़ेगी। उसके अन्दर महाभारत का युद्ध चल रहा था, भावनाएँ पाण्डव बन, कौरव बने रिश्तों का स्वभाव एवं व्यवहार समझ नहीं पा रही थीं, उसका कसूर क्या था? रिश्तों को हद से ज्य़ादा चाहना या उस चाहत में सब कुछ भूल जाना और स्वंय को मिटा डालना। संबंधों के लाक्षागृह के जलने से अधिक वह बीजी, दार जी के बदलते मूल्यों और मान्यताओं से आहत हुआ था।
इसी द्वंद में वह एक रात पानी पीने उठा तो नीचे के कमरे में कुछ हलचल महसूस की, पता नहीं क्यों शक-सा हो गया। दबे पाँव वह नीचे आया, तो दार जी के कमरे से फुसफुसाहट और घुटी-घुटी आवाज़ें आ रहीं थीं।
दोनों भाई दार जी से कह रहे थे-'मनजीते को समझाकर वापिस भेज दो, नहीं तो हम किसी से बात कर चुके हैं, पुलिस से भी साँठ-गाँठ हो चुकी है। केस इस तरह बनाएंगे कि पुरानी रंजिश के चलते, वापिस लौटकर आये एन.आर.आई. का कत्ल। केस इतना कमज़ोर होगा कि जल्दी ही र$फा-द$फा हो जाएगा। बेशक अमरीका की सरकार भी ढूँढ़ती रहे, कोई सुराग नहीं मिलगा,ऐसी अट्टी-सट्टी की है।'
मनजीत सिंह का सारा शरीर पसीने से भीग गया और वह वहाँ खड़ा नहीं रह सका। शरीर की सारी ऊर्जा कहीं लुप्त हो, बदन को ठंडा कर गई। चलने की हिम्मत नहीं रह गई थी अपने आप को घसीटता हुआ वह कमरे में लौटा और बिसतर पर धड़ाम से गिर गया। मनविंदर की नींंद टूट गई, वह उसके काँपते शरीर और चेहरे का उड़ा रंग देखकर बहुत घबरा गई। मनजीत ने बाईं ओर अपने दिल पर हाथ रखा हुआ था।
'सरदार जी दर्द हो रहा है तो डॉक्टर को...।' मनविंदर ने अपनी बात अभी पूरी भी नहीं की थी कि मनजीत ने उसका हाथ अपने सीने पर रख लिया-'दर्द नहीं, दिल टूटा है, अपनों ने तोड़ा है। टूटे दिल के टुकड़े संभाल नहीं पा रहा हूँ। तेरी बातों को अनसुना कर मैं सारी उम्र तुझे पराई समझता रहा और अब अन्दर तड़पन है, जो सुनकर आया हूँ, क्या वह सच है? जान नहीं पा रहा हूँ कि कौन-सी ज़मीन अपनी है?'
मनविंदर ने अपनी उंगली मनजीत के होंठों पर रखकर उसे चुप करा दिया। वह बहुत कुछ समझ गई थी और उछलकर बिस्तर से नीचे उतरी। सौष्ठव देहयष्टि वाली मनविंदर ने मनजीत को बाँहों में भर कर उसे उठने में मदद कर, अपना पर्स उठाया और आधी रात में ही दोनों पिछले दरवाजे से निकल गये। उनके पाँव के नीचे वही ज़मीन थी, जिसके लिए मनजीत उम्रभर डॉलर भेजता रहा।
चारों तरफ गहरा काला अंधेरा था।
-डॉ.सुधा ओम ढींगरा अमेरिका

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