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Monday, August 10, 2015

कुमार शर्मा 'अनिल' की कहानी "हरामी"



आम की फुनगी हिली और तपती दुपहर में लू से बदहवास टिटहरी उड़ी तो सुखिया चाची की बदहवास आँखेें एक विश्वास का बोझ उठाये आम की कच्ची बरौनियों पर टिक गई। जून के बयालीस डिग्री तापमान और उमस में पसीने और आँसुओं के गंगा-जमुनी संगम में नहाया सुखिया चाची का सोच में गुम चेहरा। मैं सूती साड़ी के कोर से धीरे-से उनकी आँखें पोंछता हूँ तो बिलख उठती है चाची-''हरामी...मरने से पहले ये भी ना सोचा कि बूढ़ी कौन के सहारे जिएगी।" करूणा और ममता से भीगे शब्द मुझे अंदर तक भिगो जाते हैं।
''हरामी..." धरमवीर का हर वक्त तमतमाया-सा चेहरा मेरी आँखों के आगे घूम गया।
''साला कौन बहन का यार कह सकता है दावे से कि वह हराम की औलाद नहीं। तू बोल किसना! तू कर सकता है दावा कि चाचा ही तेरे असली पिता हैं। बुरा मत मानियो... कमला चाची के चरित्र पर छींटे नहीं उछाल रहा हूँ...मेरी माँ जैसी है कमला चाची। लेकिन तू बता किसना... साला दुनिया का कौन आदमी इस बात की गारंटी देता है कि...।"
क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात ही नहीं कहता, वह केवल वही कहता है जिससे दूसरों का दिल दुखे। मैं उसे समझाता-''तू क्यों लोगों की बातों पर कान देता है। हर बात को घुमा फिराकर वहीं... उसी बात पर ले आता है कि तेरा जन्म चाचा के मरने के बाद विधवा चाची की कोख से हुआ। तुझे तो अब कहते हैं लोग... चाची ने तो पूरा जीवन सही हैं गाँव भर की गालियाँ। किस तरह पाला है उन्होंने तुझे... सबसे लडक़र। एक माँ की तरह नहीं, एक बाप बनकर।"
''अम्मा को कोई दोष नहीं देता मैं..."- वह तैश में आ जाता-''वह चाहती तो मुझे कोख में ही मार सकती थी। गुस्सा तो मुझे इन गाँव वालों पर है जो अम्मा को दोषी मानते हैं और मुझे हरामी कहते हैं। इन सालों को इस बात का दुख है कि मर क्यों नहीं गई अम्मा... मुझे जन्म क्यों दिया... पाला-पोसा क्यों...?" असहाय क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठता-''तू देखियो किसना, जिस दिन भी मुझे पता चला कि कौन था वो... उसी दिन उसकी बहू-बेटियों का भी वही हश्र करूँगा... बस पता चलने दे मुझे।"
''क्या करेगा तू?" मैं उसे समझाता। ''कुछ उल्टा-सीधा करके जेल जाएगा और जैसे अब तक रोती रही हैं सुखिया चाची वैसे ही आगे भी रो-रोकर अपनी जान दे देंगी... इस बारे में सोचा है तूने?"
''मुझे नहीं मतलब किसी से... मुझे बस बदला लेना है। और किसना, बदला मुझे अपनी अम्मा की बेइज्जती का नहीं लेना... बदला लेना है मुझे अपनी बेइज्जती का... समझ गया तू?" वह तेजी से वहाँ से चल देता।
धरमवीर बचपन से ही मेरा दोस्त था। हम साथ खेले-पढ़े थे। बचपन से ही ना जाने क्यों मुझे उससे सहानुभूति थी। गाजियाबाद से सटे इस गाँव की कुल आबादी पाँच हजार भी नहीं थी तब। सारे गाँव में सभी एक दूसरे को नाम से पहचानते थे। दूर-दूर तक फैले खेत, कच्ची सडक़ें और पगडंडियाँ... विकास से कोसों दूर। गाँव में स्कूल मात्र आठवीं तक था और आठवीं तक ही धरमवीर और मैं साथ-साथ पढ़े थे। आठवीं में फेल होने के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और घर की खेती संभाल ली। पढाई में उसका शुरू से ही मन नहीं लगता था। इसका एक कारण यह भी था कि स्कूल के बच्चे ही नहीं मास्टर जी भी उसे हरामी कहते। शुरू-शुरू मेें मेरी तरह उसे भी हरामी शब्द मात्र एक गाली की तरह लगता, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, इस शब्द का अर्थ समझने लगा था। गाँव के दकियानूसी माहौल में हमउम्र बच्चों को उनके माँ-बाप की ओर से सख्त मनाही थी कि वे धरमवीर के साथ ना ही खेलें और ना ही उसके घर जायें। सिर्फ एक मेरा घर था जहाँ उसका आना-जाना था। वह भी इस कारण कि वह मेरे पड़ोस में रहता था और मेरा सबसे अच्छा दोस्त था। जब माँ-बाबूजी दबे स्वर में उसका विरोध करते तो मैं उसके समर्र्थन में खड़ा हो जाता-''सजा तो उसको मिलनी चाहिए थी जिसने अपराध किया है। आप धरमवीर को किस बात की सजा देना चाहते हो? सभी जानते थे कि यह अपराध गाँव के ही किसी दबंग व्यक्ति का है। ...तो जिन लोगों पर शक था उनसे खुलकर पूछताछ क्यों नहीं की गई? उस समय तो गाँव की बदनामी का डर दिखाकर सुखिया चाची को पुलिस मेें रपट तक नहीं लिखाने दी। असली अत्याचार तो चाची और धरमवीर के साथ हुआ है"-मैं तैश में आ जाता-''और अपराधी अब भी खुला घूम रहा है।"
''सब जानती है वह कुलच्छिनी..." -अम्मा अपनी खीज उतारतीं-''विदेशी नहीं था कोई... आँखों पे पट्टी नहीं बंधी थी उसके... रात में इतना अँधेरा भी नहीं होता कि... अंधेर है अंधेर...।" अम्मा बड़बड़ाती हुईं सामने से हट जातीं।
मैं अन्दर ही अन्दर गुस्से से उफनता रहता। पूरा गाँव जानता था कि खेतों में पानी लगाकर लौटते वक्त रात सुनसान गन्ने के खेतों में अपना चेहरा छुपाए व्यक्ति ने जब चाची से बलात्कार किया था तो चाची ने बुरी तरह घायल होने की हद तक विरोध किया था। स्कूल के अभिलेखों मेें यद्यपि उसके पिता के नाम की जगह सुखिया चाची के स्वर्गीय पति वीरभान का ही नाम दर्ज था, किन्तु जल्दी ही उसे पता चल गया था कि वीरभान की मृत्यु तो उसके जन्म के एक वर्ष पूर्व ही हो चुकी थी। उसका बाप कौन है? यह प्रश्र उसे बौखला देता।
आठवीं में वह फेल हुआ और आगे पढऩे से इंकार कर दिया। सुखिया चाची उसे बहुत प्यार करतीं। उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य वही था। जब वह छोटा था और खेल-खेल में बच्चे आपस में झगड़ पड़ते तो धरमवीर को आहत करने का ब्रह्मास्त्र उन्हें पता था-हरामी। यही वह शब्द था जिसे सुनकर वह बौखला जाता। बच्चों का यह झगड़ा तब बड़ों तक पहुँच जाता और चाची हमेशा धरमवीर का पक्ष लेतीं। यही कारण था कि गाँव भर के बच्चों को उनके माता-पिता ने उसके साथ खेलने की मनाही कर रखी थी। स्वभाव से भी वह कुछ जिद्दी और अक्खड़ किस्म का था। बात-बेबात झगड़े पर उतर आता। उसके इस स्वभाव के पीछे उसका नाजायज संतान होना मुख्य कारण था। परन्तु चाची का उसके प्रति अटूट, एकनिष्ठ प्यार भी एक वजह थी, क्योंकि वह इससे चिढ़ता था।
मैं उसे समझाता-''तू क्यों चाची की भावनाओं को ठेस पहुँचाता है? इस बात में तो कोई शक नहींं कि तेरा जन्म उसकी कोख से हुआ है। जमाने भर के ताने सुनकर भी उन्होंने तुझे पाला-पोसा है। माँ और बाप दोनों का प्यार दिया है तुझे।"
''सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए किसना... अम्मा को अपने बुढ़ापे के लिए एक सहारा चाहिए था बस"-वह फिर तैश में आ जाता-''मुझे चिढ़ होती है अम्मा के इस तरह प्यार करने से। तेरी भी तो माँ है। क्या वह इस तरह तेरे पीछे छाया की तरह लगी रहती है? अब मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं।"
''हर माँ इसी तरह अपने बच्चों का भला चाहती है। ...और फिर तुझे वह अपने बुढ़ापे का सहारा समझती है तो इसमें बुराई क्या है?"-मैं समझाता-''मेरे माँ-बाप भी मुझसे यही अपेक्षा रखते होंगे।"
''मैं इसे गलत तो नहीं कह रहा। माँ-बाप अपने बच्चों के लिए इतना कुछ करते हैं तो उन्हें हक है ऐसा सोचने का। सारी दुनिया इसी लेन-देन पर चलती है। सारे रिश्ते स्वार्थ पर टिके हैं... यही सच्चाई है। बाकी सब ढकोसला है। कौन नहीं जानता कि एक औरत दो वक्त की रोटी और सामाजिक सुरक्षा के नाम पर अपना शरीर और आत्मा आदमी के पास गिरवी रख देती है और आदमी अपनी शारीरिक भूख के बदले में औरत को पालता है... पालतू कुतिया की तरह। बस एक यही रिश्ता है आदमी-औरत का... बाकी सब दिखावा। पूरे गाँव में ये जितनी भी औरतें हैं ना सब की सब अपने आदमियों की पालतू हैं।"
''इसका मतलब एक रिश्ते के अलावा और कोई रिश्ता नहीं है इस दुनिया में?" मैं नाराज हो जाता-''तू एक बीमार मानसिकता को पाल रहा है।"
''जानता हूँ मैं... लेकिन काश ऐसा नहीं होता। मैं चाहूँ तो भी अम्मा का सहारा नहीं बन सकता"-वह मेेरे पास से उठ जाता।
''मैं चाहूँ तो भी अम्मा का सहारा नहीं बन सकता।" उसके इस कथन का आशय मैं समझता था। अतीत की कंदराओं के यातना-कक्ष से उठता स्मृतियों का आर्तनाद हमेशा उसके अवचेतन मन में गूूँजता रहता। चाची से वह दिलोजान से प्यार करता था, परन्तु दिखावा ऐसा करता जैसे वह उनसे चिढ़ता हो। इसके पीछे उसकी वही बदला लेने की मनोवृत्ति थी जिसको उसने अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानकर पोषित किया था। ...और इस उद्देश्य की पूर्ति के बाद वह जानता था कि वह चाहकर भी अपनी माँ का सहारा नहीं बन सकता। वह कहता यही था कि मुझे अपनी माँ की नहीं बल्कि अपनी बेइज्जती का बदला लेना है, परन्तु सिर्फ मैं जानता था कि उसकी आँखों में आँसू सिर्फ तभी आते थे जब वह कहता था-''किसना जब किसी औरत के साथ बलात्कार होता है ना तब उसमें उसके जिस्म को नहीं बल्कि उसकी आत्मा को इतनी गहरी चोट पहुँचती है कि उसे अपने वजूद से नफरत हो जाती है। मुझे नहीं पता दुनिया में ऐसी कौन-सी सजा है जो उस व्यक्ति को वही अनुभूति कराये जो औरत को होती है। तू बता किसना, तू तो इतना पढ़ा-लिखा है। मैं उसे वही महसूस कराना चाहता हूँ जो अम्मा ने उस वक्त महसूस किया होगा। बरसों से मैंने अम्मा को रात के अन्धेरे में सुबकते हुए देखा है... सुना है। लेकिन मैं उसे सांत्वना भी नहीं दे सकता... क्या कहूँ उसको... भूल जा। जिस बात को मैं भूलना नहीं चाहता उसके लिए उसको कैसे कहूँ कि भूल जा"-वह मेरे कन्धे से लगकर सुबकने लगता- ''अम्मा ने बहुत अच्छा किया जो मुझे जन्म दिया वरना उसके अपमान का बदला कौन लेता।"
प्रेम और नफरत आदतों को अविश्वसनीय ढंग से बदल देते हैंं। प्रेम और नफरत में डूबा आदमी बड़ी से बड़ी चुनौती लेने को आमादा हो जाता है। सुखिया चाची के प्यार ने धरमवीर की उस बदला लेने की मनोवृत्ति का पोषण ही किया, क्योंकि मात्र दो वर्षों के अन्दर ही वह अपराध की दुनिया का एक ऐसा सितारा बन गया जिसके दुस्साहस से पूरे जिले में दहशत फैल गई। हत्या, लूटपाट और बैंक डकैती के अनेक मुकदमों में वह नामजद था।
सिर्फ हफ्ते पहले की बात है। मैं कॉलेज से लौटकर आया तो वह मेरे इंतजार में हॉस्टल के गेट पर मौजूद था। मैं आश्चर्य चकित रह गया-''तू यहाँ? पता है पूरे जिले की पुलिस तुझे ढूँढती फिर रही है?"
वह मेरे गले लग गया-''और मैं तुझे ढूँढता फिर रहा हूँ... तुझे तो यहाँ कोई जानता ही नहीं किसना।"
''तीन हजार स्टूडेंट हैं यहाँ... कौन किसको जानता है"-मैं चिंतित हो उठा-''तुझे सब जानते हैं किसी ने पहचान लिया तो...?"
''तू चिंता मत कर। आँख और दिमाग से आदमी पहचानता है, परन्तु बोलता तो जुबान से है ना...। किसकी हिम्मत है जो अपनी जुबान खोले। अच्छा ये सब छोड़...। मैं तेरे पास इसलिए आया था कि तू मेरे साथ गाँव चल। मुझे थोड़ी हिम्मत रहेगी... अम्मा के सामने। बहुत नाराज है वो मुझसे।"
''क्या करेगा गाँव जाकर...? सुखिया चाची को तूने कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।" -मैं छिटक गया।
''तू जानता है किसना... कसम से मैंने आज तक कोई अपराध नहीं किया। एक भी नहीं। हाँ, इस गुट में मैं शामिल हूँ... पर वो सिर्फ इसलिए कि मैंने बदला लेना है, अपने अपमान का। उस बदले के बाद जो अम्मा कहे या तू कहे... एक बार कह कर देखियो... कनपटी से लगाकर घोड़ा दबाने में एक सेकेण्ड भी नहीं लगाऊँगा। जो सजा देना चाहो, दे दीजियो... पर उस आदमी को मैं माफ नहीं करूँगा। अम्मा तो सिर्फ रात को ही रोती थी... मैं तो चौबीसों घंटे कलपा हूँ। काश! कोई तो तरीका होता यह जानने का कि वह कौन था?"
''बीस बरस हो गये धरमवीर.. बीस बरस। कहते हैं वक्त के साथ आत्मा पर लगी चोट के घाव भी भर जाते हैं। पर तूने तो इन बीस बरसों में इन घावों को नासूर बना लिया।"
''सच.. एकदम सच। यही तो चाहता था मैं...। इस घाव को खरोंच-खरोंचकर नासूर बनाना। इतना कि इसके मवाद और सड़ांध से मेरा जीना दूभर हो जाए। किसना... नहीं चाहता मैं जीना... बिल्कुल नहीं चाहता। लेकिन मैं मरूँगा भी नहीं तब तक जब तक अपना बदला ना ले लूँ।"
''कब तक जीएगा तू? पुलिस तेरे पीछे हाथ धोकर पड़ी है। पूरा गाँव तेरा दुश्मन है। तेरे जैसे हिस्ट्रीशीटर को पुलिस गिरफ्तार नहींं करती, सीधा एनकाउंटर करती है।"
''तू यह सब नहीं जानता किसना... तुझे बताना भी नहीं चाहता मैं। तेरे पास मैं आज सिर्फ इसलिए आया हूँ कि तू मेरे साथ गाँव चल। कुछ मेरे साथी भी होंगे। गाँव के सिर्फ दो चार लोग हैं जिनमें से ही कोई एक था इस अपराध में शामिल। बस उन्हीें से इस बार बात करनी है। लगता है मैं जो सोच रहा हूँ वही सच है। और अगर यह सच नहीं भी है तो यह अपराध मैं करने जा रहा हूँ कि वे सारे... हाँ... सारे के सारे। अब और ज्यादा सहने का मादा नहीं है मेरा।"
''अच्छा किया तूने मुझे बता दिया धरमवीर, क्योंंकि अब मैं तेरे साथ गाँव नहीं जा रहा हूँ।"
''चल ठीक है फिर...। तेरी तरह बातों को तर्क की कसौटी पर परखने की बुद्धि नहीं है मुझमें। एक तरह से यह ठीक भी है। दुनिया में दो ही लोग हैं जो मेरी कमजोरी हैं... एक अम्मा और दूसरा तू।" वह अपने छह फुट लम्बे शरीर के साथ सीधा खड़ा हो गया... ''आखिरी बार गले तो मिल ले"-उसने अपनी बलिष्ठ बाहें एक मासूम बच्चे की तरह फैला दीं। मैंने अपने कमजोर से शरीर को जब उसकी बाहों के हवाले किया तो एक बार मुझे फिर अहसास हुआ कि उसके चौड़े और मजबूत सीने में एक बहुत ही संवेदनशील दिल है।
''सिर्फ तुझसे कहूँगा किसना... मैं इस गिरोह से जुड़ा हुआ जरूर हूँ... अपने मकसद से... लेकिन मैंने अब तक किसी अपराध में हिस्सा नहीं लिया। पुलिस के सारे मामले झूठे हैं"-मैंने देखा उसकी आँखों में आँसू हैं, जिन्हें छुपाते हुए वह एकाएक कमरे से बाहर निकल गया-''एक तू ही तो था जो मुझ पर विश्वास करता... बाकी तेरी इच्छा।"
जब मैं गाँव पहुँचा तब मुझे पूरी कहानी पता चली। अपने चार साथियों के साथ जिन तीन लोगों पर उसे शक था उन्हें बंधक बनाकर वे गाँव के बाहर बने उस पवित्र मंदिर में ले गए जहाँ पुजारी रामदरस अपने परिवार सहित रहते थे। पुजारी रामदरस बड़े ही धार्मिक प्रवृति के थे और गाँव भर में उनका सम्मान था। गाँव के उस पुरातन मंदिर में गाँव वालों की बड़ी आस्था थी और उसकी कसमेें खाई जाती थीं।
आगे की कहानी बस इतनी है कि दोषी उन तीनों में से कोई नहीं था, लेकिन उसके बदमाश साथियों की नजरों में पुजारी रामदरस की बीस वर्षीया लडक़ी पूजा आ गई। उसे उठाकर जब वे खेतों में बने एक ट्यूबवैल पर ले गए तब धरमबीर अपने घर सुखिया चाची से मिलने आया हुआ था।
पुजारी रामदरस रोते-गिड़गिड़ाते सुखिया चाची के घर पहुँचे और उसके कदमों में गिर पड़े-''बचा ले उसे... मेरा कहा नहीं मानेगा धरमवीर।"
अंदर कमरे में बैठा धरमवीर सब सुन रहा था। वह क्रोध से चिल्लाया-''कोई नहीं बचाएगा चाचा... यह तो इस गाँव की परम्परा रही है"-वह बाहर निकल आया-''अम्मा भी तब ऐसे ही गिड़गिड़ाई होगी। तब आया था गाँव का कोई मर्द उसे बचाने? अब इस गाँव में हरामी ही पैदा होंगे, चाचा।''
पुजारी रामदरस धरमवीर के कदमों में गिर पड़े-''तुझसे नहीं कहूँगा, धरमवीर... पूजा को बचाने के लिए। लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि यह सब देखने से पहले मुझे गोली मार दे... कर ले अपना बदला पूरा। मैं ही हूँ तेरा अपराधी। माँ को तो बचा नहीं सकता था... बहन को बचा सकता है तो बचा ले।"
अगले दिन अखबार में तो बस इतना छपा था कि आपसी गैंगवार में चार ईनामी बदमाश ढेर हो गए।


-कुमार शर्मा 'अनिल' चंडीगढ़

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