चुभन
धरती ने अंकुरित कियाबड़े प्यार से उसे
किया प्रस्फुटित
अपना सीना चीर कर
बन गया धीरे-धीरे
हरा भरा इक पौधा
उस नन्हे बीज से।
फसल पकने पर
ले गया काट कर
बन कर स्वामी
डाला था जिसने
बीज धरती में
और धरती को मिलीं
मात्र कुछ जड़ें
चुभती हुई सी।
अपनी कोख में
हर संतान को पाला
माँ ने मगर, मिला उनको
पिता का ही नाम, जो
समझता रहा खुद को
परिवार का मुखिया
और घर का मालिक।
और हर माँ सहती रही
कटी हुई जड़ों की
चुभन का दर्द
जीवन पर्यन्त।
औरत
तुमने देखा हैमेरी आँखों को
मेरे होंठों को
मेरी ज़ुल्$फों को।
नज़र आती है तुम्हें,
खूबसूरती, नज़ाकत और कशिश,
मेरे जिस्म के अंग-अंग में।
देखा है तुमने,
केवल बदन मेरा,
बुझाने को प्यास,
अपनी हवस की।
बाँट दिया है तुमने,
टुकड़ों में मुझे,
और दे रहे हो उसको,
अपनी चाहत का नाम।
तुमने देखा ही नहीं,
उस शख्स को,
जो एक इंसान है,
तुम्हारी ही तरह,
जीवन का एहसास लिये,
जो नहीं है , केवल एक जिस्म,
औरत है तो क्या।
-डॉ. लोक सेतिया
सेतिया अस्पताल,मॉडल टाउन, फतेहाबाद
(हरियाणा)-125050
Note- उक्त रचनाएँ इस लिंक पर बाबूजी का भारतमित्र में भी पढ़ी जा सकती हैं
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