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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Tuesday, September 8, 2015

मुक्तक - चंद्रसेन विराट

दर्ज करके सवाब क्या रखना।
खुद नुमाई का ख्वाब क्या रखना।
हो सके करके भूल ही जायें-
नेकियों का हिसाब क्या करना।।

संकुचित सोच नहीं रखता हूँ।
सोच में लोच  नहीं  रखता हूँ।
सबसे मिलता हूँ बहुत खुलकर मैं-
मन में संकोच नहीं रखता हूँ।।

मनन की निष्ठा को कष्ट होता है।
तब ही विश्वास भ्रष्ट होता है।
दिल में घुसकर नहीं निकल पाता-
प्रेम संशय से नष्ट नहीं होता।।

रूप राजजस गुमान रखता है।
आँख में आसमान रखता है।
अंतरिक्षों के पार जाने की-
कल्पना में उड़ान रखता है।।

संगमरमर की स्निग्ध प्रतिमा है।
भव्य गौरव है और गरिमा है।
रूप लावण्य, ये सुदर्शनता-
सब ये तारुण्य की ही महिमा है।।

आधे घँूघट में चन्द्रिमा देखी।
हमने साक्षात मधुरिमा देखी।
दीप लेकर चली सुहागन तो-
कल अमावस में पूर्णिमा देखी।।

फिर से जीवित अतीत हो आया।
भाव मन का पुनीत हो आया।
प्यार का पहला स्पर्श पाते ही-
मन मेरा गीत-गीत हो आया।।

-चन्द्रसेन विराट

121, वैकुंठधाम कॉलोनी, इन्दौर

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