विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Tuesday, September 8, 2015

चावल बाजरा और टोटका

    सरमाया साहब को इस शहर में बसे लगभग दस वर्ष हो चुके हैं। परिवार में पत्नी और चार बेटे हैं। जिन्दगी बड़े मजे से गुजर रही है। कोई कमी नहीं और ना ही अब तक कोई गम पास फटका है पर पिछले तीन दिनों से उनकी पत्नी साहिब कौर बड़ी परेशान है। बार-बार अपने चारों बेटों की बलाएँ लेती फिर रही है। कभी उन्हें चूमती,कभी दुलारती और कभी जली हुई लाल मिर्चें उनके सर के ऊपर से वारकर उन्हें जमीन पर फेंक चप्पल से खूब कूटती। यह शामत मिर्चों की नहीं बल्कि किसी और की आती है, वे जानते हैं। अब तो रोज घर में धुँआ-धकडऱहने लगा है। सरमाया साहब सोचते औरतों के वहम हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर देख लो, हर माँ अपने बच्चे को बुरी नज़र से बचाने के लिए कई क्रिया-कलाप करती रही है। फिर वे चाहे गंडा-ताबीज हों, तंत्र-मंत्र हों, साधु-संतों के डेरों पर बैठकें हों या फिर टोने-टोटके। शायद इसलिए उनकी पत्नी भी ऐसा करने लगी हो। पर सवाल था कि आजकल ही क्यों?
    सरमाया साहब खुले विचारों वाले भले आदमी हैं और सत्कर्म को ही पूजा मानते हैं। तांत्रिकों, साधु-संतों, ज्योतिषियों वगैरह के मायाजाल में फंस अपना घर उजाड़ते लोगों को पत्र-पत्रिकाओं में बहुत बार पढ़ा है उन्होंने। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी विभिन्न कार्यक्रमों का प्रसारण कर भोले-भाले लोगों को इन मायावी लोगों से बचने के लिए हमेशा सचेत करता रहा है। पर पता नहीं लोग भी कौन-सी मिट्टी के बने होते हैं। एक भुगत चुका है तो दूसरा उस दलदल में फंसकर भुगतने को हमेशा तैयार बैठा होता है। अंधविश्वास और रूढिय़ों में फंसकर ये दकियानूसी लोग सहज ही इन कथित मायावी लोगों के जाल मेें फंसकर अपना धन, बच्चे, ज़ायदाद, इज्ज़त और मन की शांति दाँव पर लगा बैठते हैं। पुत्र प्राप्ति हेतु बलि के बहाने दूसरे के बच्चों की नृशंस हत्या स्वयं कर या दूसरों से करवाकर पुत्र-रतन तो प्राप्त कर ही नहींं पाते जि़ंदगी भर के लिए सलाखों के पीछे ज़रूर पहुँच जाते हैं। फिर भी देखने वालों को उनके अनुभवों से अक्ल नहीं आती। मत मारी जाती है उनकी। सिर्फ शक के आधार पर औरतों को डायन घोषित कर उन्हें ईंट-पत्थरों से मार दिया जाता है। निर्वस्त्र कर सरेराह घुमाया जाता है। आँखें फोड़ दी जाती हैं। जीभ काट ली जाती है। बलात्कार किए जाते हैं। दुधमुँहे बच्चों की छात्ती पर पैर रखकर तांत्रिकों द्वारा इलाज के नाम पर ठगा जाता है। बच्चे रोते-तड़पते रहते हैं और माँ-बाप, परिजन और समाज के लोग हाथ बाँधे बेवकूफों की तरह खड़े रहते हैं। दूसरों की बेशक जान चली जाए पर अपनी ज़ेब भरनी चाहिए। जब ऐसी ही कोई न्यूज़ देख रहे होते हैं वे तो उनका मन करता है कि टी.वी. से बाहर निकालकर एक-एक को पकडक़र धुन दें। बहुत कोफ्त होती है उन्हें।
कोफत तो उन्हें तब भी बहुत होती है जब छोटे-छोटे शहरों, कस्बों, गाँवों के अलावा बड़े-बड़े विकसित देशों के लोग भी ऐसे अंधविश्वासों में विश्वास करते दीखते हैं। अब अमेरिका की ही बात लो, वहाँ धनवान लोग सडक़ पर मिली एक पेन्नी को अपनी जेब में दिनभर इसलिए रखते हैं कि वह उनके लिए सौभाग्य लेकर आएगी। म्यांमार वाले तो हाथी की पूँछ के कुछ बाल अपने घर में ले आते हैं कि इससे शैतानी शक्तियाँ दूर रहेंगी। चीन वासियों द्वारा चीजों की संख्या 8 व 9 रखे जाने का हर संभव प्रयास किया जाता है क्योंकि चीनी भाषा में इन अंकों की ध्वनि पर्याप्त और समृद्ध शब्दों जैसी होती है। रूसी लोग अमावस्या के दिन बात और नाखून काटना अच्छा समझते हैं। इजरायल वाले किसी बुरी चर्चा के बाद इस तरह थूकना पसंद करते हैं कि दूसरों को भी पता चल जाए। उनका मानना है कि ऐसा करने से वे उस बुरी चीज से सुरक्षित रहेंगे। भारतवासी किसी और चीज में अव्वल हों चाहे न हों पर अंधविश्वासों में सबसे ऊपर हैं। दशहरे पर रावण के जले हुए पुतले की लकड़ी लाकर घर में रखेंगेे ताकि बच्चे रात में डरे नहीं। डरपोक कहीं के। छींक आ जाए तो घर से बाहर नहीं निकलेंगे बेशक बस छूट जाए। अच्छा भला साफ-सुथरा रास्ता छोडक़र झाड़-झंखाड़ पर चल देंगे गर बिल्ली रास्ता काट जाए और इन सबसे परे जापान वाले तो यहाँ तक सोचते हैं कि गर्भवती स्त्री यदि शौच के लोटे को अच्छी तरह माँजकर चमका दे तो उसे स्वस्थ और सुन्दर शिशु की प्राप्ति होगी। भई, तरीका तो आसान है पर..?
    पर सरमाया साहब को ना तो इन बातों में विश्वास है ना ही कोई दिलचस्पी। हाँ ,दिलचस्पी इस बात में जरूर हो आई है की सुबह 5 बजे बिस्तर त्यागने वाली साहिब कौर आज 3.00  बजे ही क्यों उठ गयी? घर का मुख्य द्वार उसने पूरा क्यों खोल दिया? सुबह सवेरे स्नान कर जपुजी साहिब का पाठ करने वाली उनकी सुघड़ पत्नी मुख्य द्वार के पास कुर्सी डालकर बैठी क्रोशिए से थालपोश बुनने क्यों बैठ गयी? उन्हें बहुत हैरानी हो रही है की माजरा क्या है। वे स्वयं भी उठकर बैठ गए। लौट-लौटकर पास आ रही नींद को दो-चार अंगड़ाईयां लेकर उन्होंने फटकारा और साहिब कौर के पास चले गए।
    'ये आज तडक़े ही दरवाजा क्यों खोल रखा है? कोई प्रॉब्लम है? नींद नहीं आ रही है या फिर कोई टेंशन है?' उन्होंने धीर-गंभीर पर बेचैन दिख रही पत्नी से पूछा।
    'टेंशन ही है जी...जब से ये नए पड़ोसी आये हैं ना, मेरा तो जीना हराम हो गया है।'
    'क्यों क्या हुआ? मुझे तो तुमने कभी कुछ बताया नहीं।'
    'बताती क्या...? आपको तो इन बातों में कोई विश्वास ही नहीं। मेरी बातों को तो आपने मजाक में ही उड़ाना था...।'
    'किन बातों को...?' सरमाया साहब की उत्सुकता पहेली के हल खोजने में मस्तिष्क का गोल-गोल चक्कर लगा आई है।
    'पिछले दस दिनों से रोज हमारे दरवाजे के आगे चावल फेंक रहे हैं।' साहिब कौर ने पड़ोसन के घर की ओर इशारा करते हुए कहा।
    'चावल फेंकते हैं...?'
    'हाँ जी...।'
    'वो भला ऐसा क्यों करेंगे? हो सकता है कीड़े-मकोड़े या चीटियाँ चावल ले आती हों या फिर राशन लाते समय हमारे थैले में से गिर गए हों। दरअसल तुम औरतों की मानसिकता की आँख बहुत छोटी होती हैं। दूर तक दिखाई नहीं देता तुम्हें...।'
    सब दिखाई देता है जी मुझे...। साहिब कौर तिलमिला गयी।
    'अच्छा, तुम्हें कैसे पता पिछले दस दिनों से फेंक रही है?'
    'करमे की माँ ने खुद देखा।'
    'ओह तो ये आग करमे की माँ की लगाई हुई है।'
    'मुझे पता था आपने मेरी हर बात में मीनमेख निकालनी ही है। इसीलिए आपसे नहीं कहा। वैसे भी मैंने सब देख लिया है। समझ लिया है कि चावल के दाने आये कहाँ से। एक-एक दाना चुगकर इन मुँहजले पड़ोसियों के आँगन में ही फेंका मैंने भी। खुद के घर में लडकियाँ ही लडकियाँ है तो हमारे बच्चों पर टोटके कर रही है। देखा नहीं तुमने, पाँचवीं बार पेट लेकर घूम रही है लडक़े की चाह में। शुरू-शुरू में तो बड़ा लाड़ दिखाती थी मेरे बच्चों से। अब समझी उसके काले मन में खोट था। अबकी इसे रँगे हाथ ना पकड़ा तो मेरा भी नाम नहीं। पता नहीं कौन-कौन से मन्त्र फूँकते हैं चावलों में।' साहिब कौर का बुड़बुड़ाना और खीजना अनवरत जारी था।
    सरमाया साहब ने आज अपनी पत्नी के चेहरे पर एक अजीब चीज देखी जो शायद सारी बुरी भावनाओं और कुविचारों के फलस्वरूप एक परछाई की तरह उसके चेहरे के साथ-साथ शरीर की पूरी भाषा से चिपक गयी थी। सुबह-सवेरे पाठ करते समय सुकून की जो लाली साहिब कौर के चेहरे पर दिखती थी, वह आज गायब थी। फिर भी बड़े संयम से वे सब सुनते रहे।
    थोड़ी देर बाद पड़ोसन ने दरवाजा खोला पर उन दोनों को दरवाजे पर जमा देखकर झट अंदर चली गयी।
    'देखा मैंने कहा था ये कलमुँही निकलेगी जरूर। ऐसे ही नहीं कहा था मैंने।' साहिब कौर फिर कलपी।
'अच्छा अब गुस्सा थूक दे और भगवान का नाम ले...।' सरमाया साहब पत्नी को समझाते हुए चाय बनाने के लिए रसोई की तरफ चले गए। गैस सिम कर चाय के लिए पतीली बर्नर पर रख वे ब्रुश करने लगे। अब दोबारा सोने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था क्योंकि नींद को तो उन्होंने खुद घुडक़ दिया था। अब वह भला उनके पास क्यों लौटती। तभी कमरे में अंधेरा हो गया और साथ ही दरवाजा उढक़ने की आवाज़ भी कानों से आ टकराई। मन ही मन वे खुश हुए कि चलो अच्छा है किस्सा खत्म हुआ। उन्होंने जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोये और बैठक में आ गए। देखा, पत्नी दरवाजे के 'आई होल' से आँख सटाए खड़ी थी।
    'जल्दी आओ... देखो...।' सरमाया साहब के कदमों की आवाज़ सुनकर साहिब कौर ने बिना उनकी ओर देखे व्याकुलता से एक हाथ हिलाते हुए कहा।
    'आई होल' पर अब सरमाया साहब की आँख थी।
    इसीलिए मैंने बत्ती और दरवाजाा बंद कर दिया था कि वो चुड़ैल यह समझे कि हम सब सो गए हैं। देखना, अबके बाहर ज़रूर निकलेगी।
    सरमाया साहब उत्सुकता और बेचैनी से पत्नी की सच होती बातों को अपनी आँखों से देख रहे थे। उन्हें इस नाटक में अब आनंद आने लगा था। कुछ ही पल में बहुत आहिस्ता से, हल्की चरमराहट के साथ सामने का दरवाजा खुला और दबे पाँव पड़ोसन की छाया बाहर निकली। उन्होंने सटकर खड़ी पत्नी का हाथ दबा दिया और फुसफुसाए-'आ रही है...।' साहिब कौर ने फटाफट सरमाया साहब को धकियाते हुए एक तरफ खिसकाया और 'आई होल' पर अपनी आँख चिपका दी। इसी दौरान चाय उबलने की आवाज़ सुनकर वे रसोई की तरफ भागे। चाय के कप ट्रे में रख वापिस आ रहे थे कि तभी बैठक और बाहर आँगन की बत्ती जलने के साथ ही दरवाजा भी भड़ाक से खुल गया।
    उनके दरवाजे से जरा-सी दूरी पर ही पड़ोसन खड़ी थी मुट्ठी बाँधे। अचानक दरवाजा खुलने से खिसिया गई-आज बड़ी जल्दी उठ गई सोनू की मम्मी...?
    हाँ, बहुत घबराहट हो रही थी। नींद नहीं आ रही थी...।
    नींद को मुझे भी नहीं आ रही। रात से ही दिल कच्चा-कच्चा हो रहा है।
    मुझे पता है तुझे नींद क्यों नहीं आ रही? साहिब कौर होठों ही होठों में बुदबुदाई।
    कुछ कहा सोनू की मम्मी?
    हाँ, मैं कह रही थी कि इन दिनों में बेचैनी होती ही है।
    दोनों औरतें मन ही मन एक-दूसरे को कोसती हुईं दिखावे के लिए फिर भी सहजता से बतिया रही थीं।
    तो लो बहन जी एक कप चाय पी लो। चित्त ठीक हो जाएगा। होता है मन कभी-कभार बेचैन। भगवान सब अच्छा करेंगे...। आप चिंता ना करें जी। अगर कहें तो नींबू की शिकंजी बना लाऊँ...?
    साहिब कौर ने अन्दर ही अन्दर जलते-भुनते सरमाया साहब को घूरा। पड़ोसन चाय और शिकंजी न पीने की इच्छा जताती, आड़ी-तिरछी भाव-भंगिमाएँ बनाती, बंधी मुट्ठी से अपना नाइट गाउन संभाले हौले-हौले कदमों से अपने दरवाजे की ओर सरक गई।
    देखो चावल के दाने। साहिब कौर ने कुछ दूर फर्श पर गिरे चावलों के कुछ दानों की तरफ इशारा किया जो पड़ोसन की मुठ्ठी से ही गिरने की चुगली कर रहे थे।
    मोटी भैंस...देखा कैसे बाल खलारकर निकली थी। डायन कहीं की। मेरे बच्चों पर नज़र रखती है। शक्ल तो देखो इसकी। सुबह उठकर पूरे फर्श पर मैंने पोंछा लगाया था। चावल का एक दाना नहीं था वहाँ तो अब क्या कोई पिशाच आकर गिरा गया?  साहिब कौर बुड़बुड़ाती जा रही थी और साथ ही साथ चाय भी सुडक़ती जा रही थी।
    अब देखती हूँ कैसे करती है टोटका। करमे की माँ बता रही थी कि पूरे 30 दिन का टोटका होता है चावलों का और अगर एक दिन का भी गैप पड़ जाए तो पिछला सारा असर खत्म हो जाता है।
    अच्छा, तो उसी को खत्म करने का मोर्चा सम्भाला था आज। सरमाया साहब हल्के मूड में बोले ज़रूर पर हैरान-परेशान वे स्वयं भी हो उठे थे। पत्नी की बातों में सच्चाई थी। सामने के घर में खिडक़ी के परदे पर आती-जाती परछाई पड़ोसन की व्यग्रता का जि़क्र करती इस सच्चाई को और पुख़्ता कर रही थी।
    साहिब कौर ने भी आज दृढ़ निश्चय कर लिया था कि चाहे कुछ हो जाए घर का दरवाजा खुला ही रख छोड़ेगी। दरवाजा बंद होते ही पता नहीं कब पड़ोसन चुपके से आकर चावल फेंक जाए। आज इस क्रम में व्यवधान तो डालना ही था।
    सरमाया साहब टोने-टोटकों में ज़रा भी विश्वास भले ही न रखते हों पर दूसरों द्वारा उनके परिवार के प्रति इस तरह की भावना रखना उन्हें भी खला था। उनके दो बेटे तो इतने छोटे और मासूम हैं कि अभी स्कूल भी नहीं जाते। लेकिन बड़े दोनों सााहबज़ादों को साहिब कौर ने घर के पिछले दरवाजे से ही स्कूल भेजा। साथ ही सख्त हिदायत भी दे डाली कि स्कूल की छुट्टी होने पर पिछले दरवाजे से ही घर के अदर दाखिल होना है ताकि पड़ोसन की बुरी नज़र उन पर न पड़े। झिंझोड़-झिंझोडक़र यह भी समझाया कि पड़ोस वाली मोटी भैंस से बचकर रहें। कुछ खाने को दे तो बिल्कुल न लें। उनके बच्चों से भी बात न करें। इसके अलावा और भी बहुत से निर्देश जारी किए। बच्चों ने जिस अरूचि से सुना उसी लापरवाही से हाँ में सिर हिला दिए।
    बच्चों के स्कूल रवाना होने के बाद धागे में पिराई नींबू और हरी मिर्चों की माला घर की देहरी पर लटक गई। साथ ही बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला का प्रतीक काला करवा भी मकान की छत्त से नीचे दीवार पर टंग सबको जीभ चिढ़ाने लगा।
    इस दौरान साहिब कौर ने चारों बच्चों की बनियानों, कमीज़ों, नेकरों आदि का बखूबी निरीक्षण किया कि कहीं से कोई कपड़े का टुकड़ा तो नहीं काट लिया गया। यह भी कि बच्चों का कोई वस्त्र गायब तो नहीं। इसी सारे झमेले में वह बच्चों का दूध-दलिया भी समय पर तैयार नहीं कर पाई। बच्चों के स्कूल से लौटने का वक़्त हो चला था अत: वह कुछ वक़्त पहले ही दरवाजे पर जम गई और ऑटोरिक्शा रुकने पर खुद उन्हें घर के अन्दर लेकर आई। वहम और डर उसे खाए जा रहा था। सबसे पहले उसने बच्चों के पटके खोलकर उनके केस उलट-पलटकर देखे कि कहीं कैंची से बालों का गुच्छा ही तो नहीं काट लिया गया। जहाँ-जहाँ वहम उभरा वहाँ-वहाँ उसकी नज़र ने धावा बोल दिया और हाथों ने उस जगह की खूब मरम्मत की।
    तीन दिनों में ही सरमया साहब इस पूरे प्रकरण से खीझ से गए थे। साहिब कौर जब-तब बुड़बुड़ाती हुई पड़ोसन की तमाम हरकतोंं का ब्यौरा उन्हें न्यूज चैनल की तरह देती रहती। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि क्या करें। वे सोचते कि पड़ोसियों को पड़ोसियों की तरह ही रहना चाहिए क्योंकि सुख-दुख में सबसे करीब वही होते हैं। पर जब तक चावल फेंकने का सिलसिला खत्म नहीं हो जाता तब तक उनकी पत्नी चैन से न खुद बैठेगी न उन्हें बैठने देगी।
    शनिवार को साहिब कौर ने सुबह-सुबह ही झाड़ू पीट-पीटकर सारा घर-आँगन धोया। सभी कमरों में अगरबत्ती घुमाकर बाहर आँगन में तुलसी के पौधे के पास रख दी और हाथ जोडक़र चारों तरफ कुछ बुदबुदाती घूमती रही। कुछ देर बाद दूर से जब बाल्टी की खनक सुनाई दी तो जोर से चिल्लाई-ओ मिल्खया... जा पापा से एक रुपए का सिक्का लेकर आ, शनि महाराज आए हैं। एक मिनट में ही मल्खान ने सिक्का माँ को थमा दिया।
    ठहर जा, जा कहाँ रहा है। चल जय कर।
    मल्खान ने माँ के साथ ही तेल में उचटती-सी नज़र डाली और जोर लगाकर बोला-जय शनि महाराज की...।
    शनि महाराज के जाते ही साहिब कौर ने बेटे को पुचकारा-सच-सच बता किसकी सूरत दिखी तेल में?
    मोटी भैंस की...। कहकर मल्खान जोर से हँसते हुए फटाफट घर के अन्दर घुस गया। साहिब कौर की मुस्कुराहट झेंप गई।
    तभी सरमाया साहब बाहर निकले।
    अब आप बिना कुछ खाए-पीए कहाँ जा रहे हैं? सरमाया साहब को पेन्ट-कमीज पहने देखा तो हैरान होकर पूछा साहिब कौर ने।
    कुछ नहीं बस एक तांत्रिक के पास जा रहा हूँ। सुबह-सुबह ही मिलता है वो।
    साहिब कौर सन्न रह गई। उसे यकीन न आया। पर मन ही मन एक फुलझड़ी भी चल गई।
    तू चिंता न कर, करता हूँ सालों का दिमाग ठीक। कहकर वे जल्दी से बाहर निकल गए।
    साहिब कौर का दिल बल्लियों उछलने लगा और पति के नाश्ते की चिंता भी कहीं उडऩ छू हो गई। आखिर हैं तो बच्चों के पिता ही। फिक्र तो उन्हें भी है। मैं तो यूँ ही सोचती रही कि इन्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं। ये आदमी लोग सच ही कहते हैं कि औरत की दूर की नज़र बड़ी छोटी होती है। अब पता चलेगा मोटी भैंस को जब अपने ऊपर बीतेगी। घर का कामकाज निपटाते हुए बहुत सोचा उसने।
    पूरे तीन घंटे बाद पहुँचे सरमाया साहब, हाथ में काले रंग का एक पोलीथीन का लिफाफा थामे।
    'बड़ी देर लगा दी जी...?' दरवाजा बंद करते हुए साहिब कौर ने पानी का गिलास थमाया और आवाज़ में मिठास घोल दी।
    'हाँ, देर तो लगनी ही थी। काम पूरा करके जो आया हूँ। बहुत भीड़ थी।'
    लिफाफे में क्या है? उसने मन की फुलझड़ी में प्रसन्नता की दियासलाई लगाते हुए उत्सुकता से पूछा।
    'टोटका है...।'
    'इसका क्या करेंगे जी?'
    'हमने क्या करना है। अब तो जो करेंगे, तांत्रिक महाराज ही करेंगे। चलो अब खाना-वाना लगाओ शाम को मोहन बाबू के घर भी जाना है।'
    'पड़ोसियों के घर भी जाना पड़ेगा...? यह कैसा टोटका दिया तांत्रिक ने?'
    'तुम ज्यादा टेंशन मत लो। वो लोग छुपकर कर रहे थे, हम सरेआम करेंगे। और किसी को शक तक न होगा।'
    'कोई नुकसान तो नहीं होगा?'
    'नुकसान की चिंता तू क्यों करती है। जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा।'
    खाना खाकर सरमाया साहब सो गए, उनकी अलग ही बुद्धि है। जो एक बार ठान लेते हैं करके ही छोड़ते हैं। चाहे कुछ हो जाए। मन पर बोझ नहीं रखते। शाम को नींद से जागे तो सबसे पहले पड़ोसियों का दरवाजा खटखटाया- 'और मोहन बाबू क्या हालचाल हैं?' उन्होंने हाथ मिलाते हुए पूछा।
    'आज बड़े दिनों बाद आए सरमाया साहब... सब खैरियत से है?'
    'सब कुशल-मंगल है जी।' लिफाफा मेज पर रखते हुए उन्होंने कहा और हैरान-परेशान खड़ी पड़ोसन को हाथ जोडक़र नमस्कार की।
    'भाग्यवान, जाओ चाय बना लाओ... भाईसाहब आए हैं।'
    'हाँ-हाँ अभी लाती हूँ।' अपने दिल की धडक़नों को समेटती पड़ोसन के पैर और भारी हो गए कि आज हो गया कांड। तभी सरमाया साहब ने गहरी आवाज़ में सुनाया- 'हाँ भाई क्यों नहीं, बहन जी ने तो हमारे घर का चाय-पानी पीया नहीं पर हम ज़रूर पीकर जाएँगे।'
    'पर ये लिफाफे में क्या उठा लाए?' मोहन बाबू के चेहरे पर उत्सुकता की लकीरें गहराने लगीं।
    'दरअसल आज मैं गुरूद्वारे गया था तो वहाँ ऋषिकेश से आए हुए पंडित जी मिल गए। मोहन बाबू, बड़े गुणी और विद्वान पंडित हैं वे। काफी देर तक मैं उनसे ज्ञान-ध्यान की बातें करता रहा तो जाते समय उन्होंने ये लिफाफा मुझे दिया और कहने लगे कि...।' कहते हुए एकबारगी सरमाया साहब का दिल धडक़ा ज़रूर पर पूरे अभिनय के साथ बड़ी सफाई से वे झूठ बोल ही गए।
    तभी चाय आ गई। इस दौरान बहुत सारी और भी बातें हुईं। भयभीत पड़ोसन दूसरे कमरे की दीवार से कान सटाकर इन सब बातों के अर्थ निकालने के अतंद्र्वद्व में फँसी रही।
    'अच्छा, अब चलता हूँ मोहन बाबू। भूलना मत, इकट्ठे ही निकलेंगे कल सुबह।' सरमाया साहब ने उठते हुए बड़ी गर्मज़ोशी से हाथ मिलाया और खुश चेहरा लिए बाहर आ गए। बिना किसी शक के काम आसानी से हो जाएगा, उन्होंने सोचा नहीं था।
    इस दौरान साहिब कौर घर में बैठी तड़पती रही कि पता नहीं क्या होने वाला है। औरतों की बातों को यूँ ही आदमियों तक पहुँचाया। सरमाया साहब जब घर लौटे तब भी उसने ज्यादा पूछताछ नहीं की। बस, जो वे बताते रहे वह चुपचाप सुनती रही।
    आज रविवार है। यानि सबकी छुट्टी का दिन। तरह-तरह की आशंकाओं से घिरी, रातभर ठीक से सो न पाने के बावजूद साहिब कौर सुबह सबसे पहले उठ गई। उसका मन बड़ा अशांत है। स्नान आदि से निपटकर सिर पर मलमल का दुपट्टा पलेट वह सुखमनी साहब का पाठ करने बैठ गई ताकि मन को कुछ सुकून मिले।
    साधसंगि दुसमन सभि मीत।
    साधू कै संगि महा पुनीत।।
    पर पाठ में उसका चित्त कैसे लगेगा। मन तो दूर आसमान में उडारी मार रहा है। सागर में गोते लगा रहा है।
    ब्रहम गिआनी कै मित्र शत्रु समानि।
    ब्रहम गिआनी कै नाहीं अभिमान।
    इसी दौरान सरमाया साहब तांत्रिक का दिया लिफाफा थामे चुपचाप उसके सामने से निकल गए। उसका दिल सीने में एक बार जोर से धडक़ा। पर पाठ करने की वजह से उस समय वह उनसे कुछ कह न पाई।
    धनवंता होई करि गरबावै।
    त्रिण समानि कछु संगि न जावै।।
    अपने चारों बेटों के चेहरे उसकी आँखों की पुतलियों में नाचने लगे। कुछ और पृष्ठ भी अभी पढ़े ही थे कि गर्भवती पड़ोसन हाथ में चावलों की मुट्ठी बाँधे आँखों के सामने आ खड़ी हुई। उसने मन ही मन अरदास की कि हे वाहेगुरू! रक्षा करना। हमारे हाथों किसी का बुरा न हो।
    जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई।
    तब कवन माई बाप मित्र सुत भाई।।
    तभी एक आवाज़ उसके कानों में आ टकराई- 'करता हूँ सालों का दिमाग ठीक जो जैसा...।'
    जिस पाठ को करने में उसे सिर्फ घंटा भर लगता था। आज उसे पूरा करने में पूरा डेढ़ घंटा लग गया। उसमें भी मन ईधर-उधर ही भटकता रहा। ध्यान तो लगा ही नहीं। पाठ तो समाप्त हो गया लेकिन विचारों की धडक़नों को आराम नहीं मिला। हल्की-सी आहट होती तो उसे लगता जैसे सरमाया साहब आ गए हों।
    उधर पार्क में बेंच पर बैठे थे दोनों पड़ोसी। साथ की बेंच पर बैठे एक वृद्ध दंपति कबूतरों को दाना डाल रहे थे। साधारण-सी कुछ बातों की औपचारिता के बाद मोहन बाबू ने बात का एक सिरा पकड़ा-जि़ंदगी में संतुष्टि बहुत ज़रूरी है, सरमाया साहब। बेटियों और बेटों में अब कोई फर्क नहीं रहा। ज़माना बहुत बदल गया है। अब इन्हीं को देख लो। दो लड़कियाँ हैं और दोनों डॉक्टर। आपने भी देखा होगा कि कितना ख्याल रखती हैं माँ-बाप का। उनकी नज़र वृद्ध दंपत्ति की ओर उठ गई।
    सही कहते हो, मोहन बाबू। जितनी हमदर्दी बेटियाँ रखती हैं, बेटे नहीं। और फिर मरने के बाद किसने देखी है वंशबेल। सब ढकोसले हैं। मृगतृष्णा है। अंधविश्वास है। जो समय सुख से निकल जाए वही अच्छा। कल पंडित जी ने भी यही कहा था कि जीवन में शांति बहुत ज़रूरी है। यही बाजरा मुझे थमाते हुए उन्होंने कहा था कि इसे पक्षियों को डालने से बड़ा सुकून मिलता है। फिर मेरी क्या मज़ाल थी कि सारा सुकून मैं अकेला भोग लेता। इसलिए आधा आपके लिए ले आया। उन्होंने पंसेरी की दुकान से खरीदा कुछ और बाजरा मुट्ठी में भरा और दूसरे हाथ से कबूतरों को थोड़ा-थोड़ा डालते हुए बात का दूसरा सिरा मतबूती से थामे रहे।
    मोहन बाबू के मन में ढेर सारा अपनापन उमड़ आया।
    हम तो और बच्चा चाहते ही नहीं थे, लेकिन इन औरतों को कौन समझाए। ऊपर से करमे की माँ ने हमारी धर्मपत्नी के कान भर दिए कि यदि किसी ऐसे घर के आगे महीना भर चावल डालो जहाँ लडक़े ही लडक़े हों तो शर्तिया बेटा ही पैदा होता है...।
    मोहन बाबू भी अपना मन हल्का करने लगे।
    ओह! तो यहाँ भी आग करमे की माँ की ही लगाई हुई है। सरमाया साहब मन ही मन मुस्कुराए।
    कहीं आपके आँगन में भी तो नहीं फेंक आई चावल, हमारी मुन्नी की माँ...? मोहन बाबू को कुछ याद आया तो वे ठहाका मारकर हँसे।
    भई, हमें तो इस बारे में कुछ नहीं पता। हाँ, अगर ऐसी बात है भी तो हमारा घर-आँगन आपके लिए हमेशा खुला है पर शर्त यह है कि इतने चावल ज़रूर फेंक देना कि एक वक़्त की दावत हो जाए। सरमाया साहब की उन्मुक्त हँसी मोहन बाबू के ठहाके में घुल मिल गई।
    सरमाया साहब घर लौटे तो देखा कि अपने-अपने पति का बेचैनी से इंतज़ार करतीं दोनों पड़ोसनें आपस में बतिया रही हैं। उन्हें लगा कि उन दोनों के मन के अंदर बेशक एक अनजाना भय व्याप्त हो लेकिन चेहरों पर अपनेपन का एक हल्का-सा नूर भी साफ झलक रहा था। उन्होंने शुक्रिया भरी एक दृष्टि आसमान की ओर डाली और बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि आसमान के अनंत विस्तार में उड़ गए सारे कबूतर बाजरे के बदले में ढेर सारा अमन और चैन ज़मीन पर बिखेर गए हैं।

-मनजीत शर्मा मीरा, चंडीगढ़

'बाबूजी का भारतमित्र' से साभार 

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