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Monday, October 12, 2015

यह कैसी स्वाधीनता, जीना जहां मुहाल - जय चक्रवर्ती

सड़क बनी, बिजली मिली, गाँव हुआ खुशहाल ।
कोयल सबसे पूछती, कहाँ हमारी डाल ।।

सपना लिए विकास का, गाँव हुए वीरान.।
दिन-अनुदिन मोटे हुए, मुखिया, पंच, प्रधान ॥

रहे नहीं घर, बन गए, पग-पग यहाँ मकान ।
हुई आधुनिक इस तरह, गाँवों की पहचान ॥
 
आया मेरे गाँव में, इस ढंग से बाज़ार ।
आँखें, आँसू , आह, सब बिकने को तैयार ॥

घर के भीतर घर बने, बने द्वार में  द्वार ।
अपना दुख किस से कहे, आँगन की दीवार॥

मेल-मोहब्बत-सादगी, मस्ती-धूम-धमाल ।
सारे जेवर लुट गए, गाँव हुआ कंगाल ॥

दालानों तक आ गई, मीनारों की भीड़ ।
सहमी गौरैया खड़ी, कहाँ बनाए नीड़ ॥

गौरैया रहने लगी, आए दिन बीमार ।
नन्हें -नन्हें नीड़ हैं, बड़ी-बड़ी दीवार ॥

सूनी आँखें पूछतीं, सब से यही सवाल ।
यह कैसी स्वाधीनता, जीना जहां मुहाल ॥

मेहनतकश के पेट पर, जिनकी क्रूर-खरोंच ।
उनकी ही सजती यहाँ, सोने से नित चोंच ॥

सिंहासन पर जो चढ़े, जनता की जय बोल।
जनता उनके हाथ का, अब केवल पेट्रोल ॥

छौनों के सपने छिने,  गौरैयों के नीड़.।
लालक़िला बुनता रहा, वादे -भाषण-भीड़ ॥

जो भी आया रख गया, जलता एक अलाव ।
दिल्ली का दिल जानता, दिल पर कितने घाव॥

सबको अंधा कर गया, कुर्सी वाला रोग ।
गिरें न जाने कब-कहाँ, बिना आँख के लोग ॥

चंद चाबियाँ ही रहीं, हर ताले को खोल ।
तंत्र लोक है अब यहाँ, लोक तंत्र मत बोल ॥

जहां आचरण से चरण, समझे जाएँ श्रेष्ठ ।
ज्ञान भला कैसे वहाँ, पाये मान यथेष्ट ॥

घोटालों की बारिशें,. घोटालों की बाढ़ ।
मेहनतकश के खून में, सनी सियासी-दाढ़॥

हमने नापी उम्र-भर, शब्दों की जागीर ।
ढाई-आखर लिख हुए, जग में अमर कबीर ॥

-जय चक्रवर्ती

  रायबरेली

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