धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार।
भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार।।
इस तन में ही भूख है, इस तन जागे प्यास।
जिस तन ढेरों चाहना, उस तन से क्या आस।।
उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज।
कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज।।
मौन सभी संवाद हैं, शंकाएँ वाचाल।
काई से भरने लगा, संबंधों का ताल।।
जटिल सभी अभिप्राय हैं, क्लिष्ट हुए सब शब्द।
जड़ होती संवेदना, अवमूल्यन प्रत्यब्द।।
लहर-लहर हर भाव है, भँवर हुआ है दंभ।
विह्वल सा मन ढूँढता, रज-कण में वैदंभ।।
चलते-चलते हम कहाँ, पहुँच गए हैं आज।
ऊसर सी धरती मिली, टूटे-बिखरे साज।।
पत्थर यह तन-मन हुआ, पत्थर ही सौगात।
पत्थर में दिन बीतता, पत्थर-सी है रात।।
दो रोटी की चाह में, दिन-दिन खटना काम।
भूख पेट की यह मुई, देती कब आराम।।
तेरे-मेरे प्रेम का, अजब रहा संजोग।
नयनों ने गाथा रची, नयनन योग-वियोग।।
नयनों के संवाद पर, बढ़ा ह्रदय-अनुनाद।
अधरों ने अंकित किया, अधरों पर अनुवाद।।
मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण।
राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान।।
रौशन होंगे घर सभी, ऐसा था विश्वास।
जग अँधियारा देख के, टूट गयी सब आस।।
ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी है यह रात।
गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात।।
हौले-हौले बह रही, देखो मंद बयार।
रोम-रोम पुलकित हुआ, कण-कण में है प्यार।।
भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार।।
इस तन में ही भूख है, इस तन जागे प्यास।
जिस तन ढेरों चाहना, उस तन से क्या आस।।
उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज।
कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज।।
मौन सभी संवाद हैं, शंकाएँ वाचाल।
काई से भरने लगा, संबंधों का ताल।।
जटिल सभी अभिप्राय हैं, क्लिष्ट हुए सब शब्द।
जड़ होती संवेदना, अवमूल्यन प्रत्यब्द।।
लहर-लहर हर भाव है, भँवर हुआ है दंभ।
विह्वल सा मन ढूँढता, रज-कण में वैदंभ।।
चलते-चलते हम कहाँ, पहुँच गए हैं आज।
ऊसर सी धरती मिली, टूटे-बिखरे साज।।
पत्थर यह तन-मन हुआ, पत्थर ही सौगात।
पत्थर में दिन बीतता, पत्थर-सी है रात।।
दो रोटी की चाह में, दिन-दिन खटना काम।
भूख पेट की यह मुई, देती कब आराम।।
तेरे-मेरे प्रेम का, अजब रहा संजोग।
नयनों ने गाथा रची, नयनन योग-वियोग।।
नयनों के संवाद पर, बढ़ा ह्रदय-अनुनाद।
अधरों ने अंकित किया, अधरों पर अनुवाद।।
मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण।
राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान।।
रौशन होंगे घर सभी, ऐसा था विश्वास।
जग अँधियारा देख के, टूट गयी सब आस।।
ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी है यह रात।
गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात।।
हौले-हौले बह रही, देखो मंद बयार।
रोम-रोम पुलकित हुआ, कण-कण में है प्यार।।
पनघट की हलचल गई, कहीं न पानी देख।
नदिया की कल-कल गई, बची न पानी रेख।।
अजब गजब फैशन हुआ, ताल-तलैया छोड़।
देखो बोतल के लिए, मची हुई है होड़।।
- बृजेश नीरज
"दोहा संकलन में प्रकाशन हेतु मौलिक दोहे"!
ईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com
नदिया की कल-कल गई, बची न पानी रेख।।
अजब गजब फैशन हुआ, ताल-तलैया छोड़।
देखो बोतल के लिए, मची हुई है होड़।।
- बृजेश नीरज
"दोहा संकलन में प्रकाशन हेतु मौलिक दोहे"!
- बृजेश नीरज
लखनऊईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com
मेरे दोहों को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार!
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