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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, October 12, 2015

रामशंकर वर्मा के दोहे

बूढ़ी ममता का रहा, अब इतना ही मोल।
रामायन ऐनक वसन, अरू दो फुल्के गोल।

हम कितने स्वार्थी हुए, कितने हुए तटस्थ।
नित अव्यवस्था देखते, धरे हस्त पर हस्त।।

इक अरसे से व्यस्तता, रही पसारे पॉंव।
उजड़ा उजड़ा सा रहा, कविताओं का गॉंव।

घोल गया मन प्राण में, मधुरस बारम्बार।
शक्करपारे सा प्रिये, तेरा मेरा प्यार।

नहलाने से आज तक, कौवे हुए न हंस।
सुधरे हैं उपदेश से, कहो कभी क्या कंस।

कोठी के कंदील से, झालर करती होड़।
इधर दिये के पेट में, रह-रह उठे मरोड़।

सूप लिखे तो ठीक है, अपने यश के वेद।
क्या छलनी की बात का, जिसमें छप्पन छेद।

सोहबत में इंसान के, पेड़ हो गये घाघ।
नागा बन कर तप करें, ज्यों ही आये माघ।

पूतों फल दूधों नहा, वाले अमृत बोल।
भूल कहानी कपट की, बके समय बकलोल।

किन संग कीजै मित्रता, किन संग करिये प्रीत।
सम्बन्धों के हाट में, हुए बिकाऊ मीत।

चौतरफा उन्नति दिखे, भारत दिखे महान।
इसीलिए हर प्रान्त में, उनके बने मकान।

अपनी अपनी मान्यता, अपने अपने राम।
जग जिसके पीछे चले, वही पूज्य श्रीमान।

अपने तन से सौ गुना, चींटी ढ़ोती भार।
तू ढ़ेला भर दुख रखे, बैठा है मन मार।

तृष्णा की नर्तन सभा, चलती है दिन रैन।
व्याकुल मन अन्यत्र चल, जहॉं मिले कुछ चैन।

मन मलंग तन बांकुरा, हिरदय सिन्धु समान।
जीवन तुम ऐसे बनो, त्याग मोह अभिमान।।

सागर से भर ले चले, मेघ वारि जंगाल।
उलट दिये नभ श्रृंग से, वसुधा हुई निहाल।।

खेत लबालब नीर से, बोले मस्त किसान।
चले पलेवा खेत में, रोपेंगे अब धान।।

-रामशंकर वर्मा

उतरेठिया, लखनऊ-226029

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