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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, November 8, 2015

गीत - इसीलिए दीपक जलता है

कितने ही तुम दीप जलाओ,
अग्निपुंज से तिलक लगाओ,
जलती लौ की करो हिफाज़त,
फिर चाहे मन में इतराओ,
लेकिन दीपक तले अँधेरा, बसता ही बसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

उम्मीदों में प्रेम कहाँ है,
निश्छल मन संदेश कहाँ है,
मन की कटुता बंद करे जो,
ऐसी पावन जेल कहाँ है,
ग्रहण लगे चन्दा को राहू, ग्रसता ही ग्रसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

चपल दामिनी पर बन बादल,
करते हो क्यों खुद को घायल,
अन्दर की ज्वालायें अक्सर,
मन पर नहीं देह पर पागल,
'वन' के तन्हा राही को, डर डसता ही डसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

जीवन इक संगीत लड़ी है,
जीवन की हर बात बड़ी है,
चलते चलते थक मत जाना,
नये कदम पर जीत खड़ी है,
आग में तपकर सोना, कुंदन बनता ही बनता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

- राहुल गुप्ता, लोहवन, मथुरा

अध्यक्ष- संकेत रंग टोली, मथुरा

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