विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, December 14, 2015

चार कुण्डलिया छंद

१.
वीर दशानन पूछता, कहाँ गए श्रीराम|
वंशज तेरे कर रहे, मुझ से घटिया काम||
मुझसे घटिया काम, आबरू मिलकर लूटें|
बिक जाता क़ानून, नराधम धन से छूटें|
अनाचार हर ओर, देश अब लगता कानन|
आकर देखो राम, भला है वीर दशानन||

२.

जन सेवा में लीन हैं, गिद्ध भेड़िये बाज|
मिलते नहीं अवाम से, डरते हैं वनराज||
डरते हैं वनराज, सदा पहरे में रहते|
आती तनिक न लाज, स्वयं को सेवक कहते|
पाने को विश्वास, बांटते पहले मेवा|
खूब मचाते लूट, नाम देते जनसेवा||

३.

खूब लुटाया बाप ने, निज बेटों पर प्यार|
बूढा होकर बन गया, अब अनचाहा भार ||
अब अनचाहा भार, पूत मुख से नहीं बोलें|
बहू चलायें बाण, जुबां जब जब भी खोलें|
कह यादव कविराय, खुदा की है सब माया|
आज हुआ लाचार, प्यार कल खूब लुटाया||

४.

अस्सी को रोटी नहीं, बीस उडाते माल |
आज़ादी के बाद भी, बुरा देश का हाल ||
बुरा देश का हाल, गरीबी बढती जाये|
नेता का जो खास, नौकरी वो ही पाये|
बेबस हुए किसान, गले में डालें रस्सी |
बीस हुए धनवान, कर्ज में डूबे अस्सी||

-रघुविन्द्र यादव



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