विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Friday, January 1, 2016

तन के गोरे मन के काले

तन के गोरे मन के काले
देखन में अति भोले भाले

हे प्रभु! कैसी सृष्टि बनाई
प्राणी रच दिए बड़े निराले

बातों से इनकी मधु झरता
हैं आखेटक अति विकाराले

मायावी बन जग में डोलें
हैं इनके सब धंधे काले

सब जन इनसे बाख के रहिए
प्राणों के पैड जाएँ लाले

द्रोही देश समाज के वंचक
इनने बड़े बड़े घर घाले

पाप कमाते दुःख उठाते
जीवन के सब पन्ने काले

दुनिया एक अजायबघर है
संभल के रहिए प्राण बचा ले||

- डॉ. बैरिस्टर सिंह यादव 

हिंदी विभागाध्यक्ष, गुलाब पी जी महाविद्यालय
सांडी, हरदोई 




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