कलियों पर प्रतिबन्ध हैं, भँवरे हैं आज़ाद।
सुरभित कैसे हो चमन, कैसे हो आबाद?
धनी, न्याय के सर चढ़ा, मौज करे दिन-दून।
निर्धन दोषी है सदा, अंधा है कानून।।
बुधिया के दृग में दिखे, दुख का गहरा कूप।
धनिया के हिस्से रही, जीवन भर ही धूप।।
बहुत ज़रूरी हो गया, बदले यह कानून।
तभी सुरक्षित रह सकें, बेटी औ' ख़ातून।।
बच्चे सड़कों पर खड़े, माँग रहे हैं भीख़।
माँ को विचलित कर रही, मासूमों की चीख।।
अंग-अंग को गोद कर, दिखलाते पुरषार्थ।
नारी की रक्षा करें, कहाँ गए वो पार्थ।।
कहीं बाढ़ की आपदा, कहीं सूखते ख़ेत।
रुष्ट प्रकृति हमसे हुई, सीधा है संकेत।।
युग-युग से दोषी रही, केवल नारी जात।
बनती हूँ पाषाण मैं, करते तुम आघात।।
सद्कर्मों के पंथ पर, रहो सदा गतिमान।
तमस बुराई का छँटे, पापों का अवसान।।
रिसते छप्पर में कटे, बुधिया की हर रात।
तिस पर बेमौसम हुई, ओलों की बरसात।।
केवल विज्ञापन हुए, सम्वेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुए हैं कोश।।
चप्पल चटकाते फिरें, मानुष प्रतिभावान।
दूध-मलाई खा रहे, चापलूस बेईमान।।
सुरभित कैसे हो चमन, कैसे हो आबाद?
धनी, न्याय के सर चढ़ा, मौज करे दिन-दून।
निर्धन दोषी है सदा, अंधा है कानून।।
बुधिया के दृग में दिखे, दुख का गहरा कूप।
धनिया के हिस्से रही, जीवन भर ही धूप।।
बहुत ज़रूरी हो गया, बदले यह कानून।
तभी सुरक्षित रह सकें, बेटी औ' ख़ातून।।
बच्चे सड़कों पर खड़े, माँग रहे हैं भीख़।
माँ को विचलित कर रही, मासूमों की चीख।।
अंग-अंग को गोद कर, दिखलाते पुरषार्थ।
नारी की रक्षा करें, कहाँ गए वो पार्थ।।
कहीं बाढ़ की आपदा, कहीं सूखते ख़ेत।
रुष्ट प्रकृति हमसे हुई, सीधा है संकेत।।
युग-युग से दोषी रही, केवल नारी जात।
बनती हूँ पाषाण मैं, करते तुम आघात।।
सद्कर्मों के पंथ पर, रहो सदा गतिमान।
तमस बुराई का छँटे, पापों का अवसान।।
रिसते छप्पर में कटे, बुधिया की हर रात।
तिस पर बेमौसम हुई, ओलों की बरसात।।
केवल विज्ञापन हुए, सम्वेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुए हैं कोश।।
चप्पल चटकाते फिरें, मानुष प्रतिभावान।
दूध-मलाई खा रहे, चापलूस बेईमान।।
सुन्दर... सामायिक ... सार्थक दोहों की हार्दिक बधाई, भावना
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
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