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Sunday, January 31, 2016

कैलाश झा ‘किंकर’ के दोहे



आँखों से मोती झड़े, देख-देख बाज़ार|
खेल-खिलौनों पर पड़ी, महँगाई की मार।।

आँखों में सपने बहुत, हों कैसे साकार।
घूम-घूम कर बेचता, बचपन अब अखबार।।

चाँद और इस प्रेम में, इक जैसा व्याघात।
बढ़ना जब-जब छोड़ दे, घटने की ही बात।।

भक्ति भाव बिन प्रेम के, उपजे नहीं सुजान।
भक्ति प्रेम विस्तार है, जाने सकल जहान।।

जितने हम विकसित हुए, उतने हुए अधीर।
औरों के हक छीनकर, बनने चले अमीर।।

कैसे-कैसे लोग हैं, कैसी कैसी बात।
कोई निशि को दिन कहे, कोई दिन को रात।।

अन्धकार में जी रही, अन्धकार-सी आस|
उल्लू जैसी जिन्दगी, दिन में लगे उदास।।

लगता है अब सत्य का, गया जमाना बीत।
परिवर्तन यह विश्व का, लगता आशातीत।।

किंकरये सब क्या हुआ, भूल गए संदेश।
अब भी छोड़ो स्वार्थ को, देश बचाओ देश।।

करने वाला और है, श्रेय लूटता और।
बगुला ही बनता सखे, जन-गण का सिरमौर||

बेकसूर पर लग रहा, बेमतलब अभियोग।
टूट रही है मान्यता, बदल रहे हैं लोग।।

ज्ञान बिना कोई नहीं, पाता सुख औ’ प्यार।
दृष्टिहीन के सामने, दर्पण भी बेकार।।

हिन्दी के सिरमौर को, हिन्दी से तकरार।
पढ़ते और पढ़ा रहे, अंग्रेजी अखबार।।

मना रहा हिन्दी दिवस, वर्षों से यह देश।
अंग्रेजी में पत्र लिख, भिजवाता संदेश।।

नारी पूजक देश में, नारी का अपमान।
बाहर बैठा गिद्ध है, घर में है शैतान।।

हिन्दुस्तानी फौज का, जग में ऊँचा नाम।
मर मिटते जो देश पर, उनको सदा सलाम।।

-कैलाश झा किंकर
क्रांतिभवन, कुष्णानगर, खगड़िया-851204
मो0-9430042712

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