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Friday, February 5, 2016

कुँवर कुसुमेश के दोहे

प्रासंगिक हैं आज भी, कल से अधिक कबीर

अमिट लेख बनती गई, संतों की तहरीर।
प्रासंगिक हैं आज भी, कल से अधिक कबीर।।

मायावी रावण कहाँ, जलकर हुआ है राख।
ज़िंदा है इंसान में, अब भी वो गुस्ताख़।।

जिसने जीवन भर किये, जुर्म बड़े संगीन।
ऐसे भी कुछ हो गये, कुर्सी पर आसीन।।

किस मुँह से करने चले, आज़ादी की बात।
अभिनय में नेता करे, अभिनेता को मात।।

बुद्धिजीवियों की यहाँ, सांसत में है जान।
चोर, उचक्के, माफिया, फिरते सीना तान।।

कुछ नेता कुछ माफिया, कर बैठे गठजोड़।
धीरे-धीरे देश की, गर्दन रहे मरोड़।।

अपराधों में लिप्त हैं, नाम सच्चिदानन्द।
टाटों में दिखने लगे, रेशम के पैबंद।।

उस रावण को बेवजह, कोस रहे हैं आप।
अब के रावण लग रहे, उस रावण के बाप।।

युवक-युवतियां आजकल, दिल में लिए उमंग।
चढ़ा रहे हैं प्रेम पर, पाश्चात्य का रंग।।

डॉलर की कीमत बढ़ी, रुपया गिरा धड़ाम।
विषम परिस्थिति हो गई, क्या होगा हे राम।।

कमर तोड़ती जा रही, मँहगाई की मार।
दिन पर दिन छूने लगा, आसमान बाजार।।

उल्टी पुल्टी हो गई, इस दुनिया की रीत।
कहने को भयमुक्त पर, हर कोई भयभीत।।

बेहिसाब बढ़ने लगा, आबादी का ग्राफ।
आखिर होगा किस तरह, सबके संग इन्साफ।।

जितनी मंहगाई बढ़ी, उतना बढ़ा दहेज़।
चीख चीख कर कह रहे, सारे दस्तावेज़।।

फुटपाथों पर सो रहे, लाखों भूखे पेट।
क़िस्मत करने पर तुली, इनका मटियामेट||

सच्चाई फुटपाथ पर, बैठी लहूलुहान।
झूठ निरंतर बढ़ रहा, निर्भय सीना तान।।

सच पर चलने की हमें, हिम्मत दे अल्लाह।
काँटों से भरपूर है, सच्चाई की राह।।

-कुँवर कुसुमेश
4/738 विकास नगर, लखनऊ-226022
मोबा:09415518546

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