विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Friday, March 4, 2016

हमीद कानपुरी की ग़ज़ल

रोज़ो शब मत सता ज़िन्दगी
अब न अहसां जता ज़िन्दगी

लाज इसकी रखो हर तरह
रब ने की है अता ज़िन्दगी

खेल तेरा बहुत हो चुका
कर न अब तू कहता ज़िन्दगी

कुछ समझ में नहीं आ रहा
क्यों बताती धता ज़िन्दगी

यार मेरा जहाँ आज दिन
ढूंढ ला वो पता ज़िन्दगी

लक्ष्य को भेदकर के दिखा
तीर मत कर खता ज़िन्दगी||

-हमीद कानपुरी 

(अब्दुल हमीद इदरीसी)

No comments:

Post a Comment