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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, March 9, 2016

शशिकांत गीते के दोहा छंद

अपना सब कुछ आज जो, कल जाएगा डूब।
प्यासा पानी से मरे, ये किस्सा भी खूब।।

उस मेधा का क्या हुआ, जिसने खोजी आग।
जाने क्यों मद्धिम हुआ, सप्त सुरों का राग।।

कैसा रोना-पीटना, कैसा हाहाकार।
नई सदी की नींव के, तुम हो पत्थर यार।।

सडक़ें ही क्या जिन्दगी, अपनी खस्ता हाल।
पानी, बिजली, भूख के, थक कर चूर सवाल।

जंगल चोरी हो रहे, नदियाँ अपहृत ईश।
रजधानी में जम गये, दल-बल सहित कपीश।

घाटी में रहना यहाँ, घट्टी में ज्यों बीज।
घुन बेचारा पिस रहा, नहीं पास तजबीज।।

बड़ा कठिन है तैरना, धारा के विपरीत।
कूड़ा बहता धार में, तू धारा को जीत।।

चीजें क्या, जीवन यहाँ, नहीं रह गया शुद्ध।
भ्रमित, अबोधी, मोह में, बने घूमते बुद्ध।।

सोन चिरैया दाब कर, खूनी पंजों बाज।
अंधकार के देश को, उड़ता बेआवाज।।

जो कहते थकते नहीं, चलना सीखो साथ ।
मौका आते ही वही, पहले छोड़ें हाथ।।

जीवन के हर युद्ध में, वे ही रहते खेत।
अलग अलग जीवन जियें, भले रहें समवेत।।

गहरा सागर, आसमाँ, हिमगिरि- सा तू दीख।
पर मन रखना काँच-सा, नदियों से भी सीख।

राखी धागा सूत का, पक्का जैसे तार।
पावनता निस्सीम है, दुनिया भर का प्यार।।

घड़ी देख कर ताकती, बहना अपलक द्वार।
भैया चाहे व्यस्त हों, आएँगे इस बार।।

जात-पात, छोटा-बड़ा, नहीं धरम अरु नेम।
सिखा हुमायूँ भी गया, बहन-भ्रात का प्रेम।।

बहना प्यारी मित्र है, है माँ का प्रतिरूप।
गरमी में छाया घनी, सरदी में है धूप।।

अंग्रेजों से हो गये, आखिर हम आजाद।
लेकिन गर्वित घूमते, अंग्रेजी सिर लाद।।

अंग्रेजी में देखते, जो अपना उत्थान।
पूरा सच ये जान लें, निश्चित है अवसान।।

सागर चरण पखारता, हिमगिरि मुकुट विशाल
हिन्दी से दैदिप्य है, भारत माँ का भाल

भिन्न धर्म औ जातियाँ, भाषा-भाव अनेक
एक सूत्र में बाँध कर, हिन्दी करती एक

सच्चे मन से कर रहा, हूँ मैं यह आह्वान
अब हिन्दी का कीजिये, माँ-सा ही सम्मान।

- शशिकांत गीते

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