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Wednesday, March 9, 2016

डॉ अजय जनमेजय के दोहे

खूब पता है साथ है, यादों वाला काँच।
फिर भी मृग मन का भरे, चलते हुए कुलाँच।।

क्या क्या बोलूँ रौनकें, क्या क्या बोलूँ रंग।
बरसे छत पर चाँदनी, होते हो जब संग।।

रेखाएं ये भाग्य की, लायीं कैसी साथ।
नन्हीं जान हथेलियाँ, छान रहीं फुटपाथ ।।

बिना तुम्हारे नींद कब, बिना नींद कब चैन।
इक सपना भीगा किया, फँसकर गीले नैन।।

जिनको मैं देखा किया, कल तक आँखें मूँद।
बिन तेरे उन चित्र पर, जमने लगी फफूँद।।

हमीं सुनाने लग गए, बदल-बदल कर तथ्य।
जुटा न पाए हौसला, कह सकते थे सत्य।।

तुम बिन जब तनहा रहा, तब-तब मेरे द्वार।
आंधी आयी पीर की, लेकर गर्द-गुबार।।

चहरे पर बढऩे लगीं, चिन्ताओं की रेख।
खुद में बनकर आइना, क्या पाया है देख।।

चुप्पी का पुल बीच में, हम दोनों दो छोर।
ऊपर से खामोश थे, अन्दर अन्दर शोर।।

तुमने फिर लिख भेज दी, ना आने की बात।
उम्मीदें फिर-फिर हुईं, तीन ढ़ाक के पात।।

वो जो मेरी जान था, थी उससे ही जंग।
असमंजस में चाँद था, छत पर मेरे संग।।

तन देकर उसने हमें, देदी पूँजी साँस।
द्वेष, मोह की कील खुद, हमने रक्खी फाँस।।

करनी कथनी से हुए, हम खुद ही नापाक।
उसने तो जीवन दिया, पाक और शफ्फाक।।

ओरों को तकलीफ दे, रहा कौन आबाद।
पहले सूरज खुद तपा, तपी धरा फिर बाद।।

जब-जब देखूँ आइना, दिखे न अपना रूप।
ये मैं कैसी डाह में, जलकर हुआ कुरूप।।

सहलाया दुख को सुनी, दुख की जब हर बात।
पता चला सुख ने उसे, दिए बहुत आघात।।

आओगे तुम तय हुआ, कर के देर सबेर।
सौन चिरैया फिर दिखी, मन की आज मुंडेर।।

साँस-साँस सोचा यही, आओगे इस बार।
खामोशी बुनती रही, जाले मन के द्वार।।

शब्द हमारी सोच को, देते सच्चे अर्थ।
बंटकर साँचों में किया, हमने अर्थ अनर्थ।।

शब्द सारथी तो सदा, रहे हमारी गैल।
पर सोचों का दायरा, ज्यों कोल्हू का बैल।।

मेरे खुद के हाथ में, थी मैं की बंदूक।
तड़पा जब आई समझ, क्या थी मन की हूक।।

-डॉ अजय जनमेजय

417 रामबाग कालोनी
सिविल -लाइन्स ,बिजनौर 246701

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