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Saturday, June 4, 2016

मैं हारा कब जंग - डॉ.देवेन्द्र आर्य

ठहर अरी ओ जि़न्दगी, देख जगत के रंग।
दुख अब तक जीता नहीं, मैं हारा कब जंग।।

दुख आपद में नेह के, दृढ़ होते संबंध।
तेज हवा में फूल की, फैले अधिक सुगन्ध।।

अनजाने से हो गए, ये कैसे संबंध।
सूने घर में रम गई, मदिर-मदिर सी गंध।।

ऊपर-ऊपर सहज सब, भीतर-भीतर खार।
बाज़ारों में आ गए, नये-नये हथियार।।

होली में जल तो गई, मैं, हम, जन की पीर।
उजली चादर पर लिखे, आखर नेह कबीर।।

पंख दिए, मन हौसला, ऊँची भरो उड़ान।
संघर्षों का यह सफर, लिए खड़ा मुस्कान।।

प्रेम, प्यार, पनघट, मिलन, पींग सजी मनुहार।
चकित बटोही सोचता, अब सब हैं बाज़ार।।

सुधि से मैं करने लगा, मन-गुन की कुछ बात।
बूँद-बूँद दुख यूँ रिसा, ज्यों बेबस बरसात।।

दे न सका री जि़न्दगी, तुझे प्यार-सम्मान।
निपट कलेशों में कटे, अथ-इति के सोपान।।

नामुमकिन कुछ भी नही, बाँध चले जो काल।
 वामन ने नापे यहाँ, नभ, धरती, पाताल।।

-डॉ.देवेन्द्र आर्य

वाणी सदन, बी-98, सूर्या नगर, गाजि़याबाद
9810277622

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