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Tuesday, September 10, 2019

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

दृश्य देखकर मंच भी, आज हुआ हैरान।
चंद चुटकुले ले गये, कविता का सम्मान।।
2
भरी कचहरी झूठ ने, किए वार पर वार।
घुटनों के बल आ गया, सच का ताबेदार।।
3
नये दौर में, जी रहे, लेकर सब अवसाद।
सन्नाटों से कर रहे, देखो अब संवाद।।
4
नहीं समझता मर्म को, लिखे काल्पनिक पीर।
देखो बनना चाहता, वो भी आज कबीर।।
5
जंगल में तब्दील है, बस्ती का माहौल।
मूल्यों का उडऩे लगा, अब तो यहाँ मखौल।।
6
थकी-थकी-सी भोर है, भरी उदासी साँझ।
मुस्कानों की तितलियाँ, अब लगती हैं बाँझ।।
7
किसको हम अपना कहें, किसको गैर ज़नाब।
मिलता हर कोई यहाँ, पहने हुए न$काब।।
8
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
बस्ती से अच्छे मिले, जंगल के हालात।।
9
झूठी हैं खुशियाँ सभी, मिथ्या है मुस्कान।
लिए उदासी घूमता, देखो हर इंसान।।
10
नारी को जिसने सदा, समझा एक शरीर।
वो क्या जानेगा भला, उसके मन की पीर।।
11
राजनीति के ताल में, होगी तेरी जीत।
घडिय़ालों के सीख ले, तौर-तरीके मीत।।
12
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
जंगल जैसे हो गए, बस्ती के हालात।।
13
गश्त $गमों की बढ़ चली, खुशियों की हड़ताल।
सदियों की ले वेदना, बीत रहे हैं साल।।
14
दिवस लगे हैं हाँफने, थककर बैठी रैन।
अंधी-बहरी दौड़ ने, छीना मन का चैन।।
15
उड़ती हैं अब चिंदियाँ, उड़े रोज उपहास।
सच रफ पुर्जे-सा हुआ, कोई न रखे पास।।
16
नमक छिडक़ना ही रहा, दुनिया का दस्तूर।
कर देती है घाव को, देख बड़ा नासूर।।
17
शेर लोमड़ी, तेंदुए, बिच्छू साँप सियार।
जंगल में चलती सदा, धूर्तों की सरकार।।
18
सोने से तोलो नहीं, दिल के ये जज्बात।
बेशकीमती है सखे, आँखों की बरसात।।
19
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी अब लिखने लगी, खुद अपनी तकदीर।।
20
पीड़ा की है रागिनी, दर्द भरा है राग।
जाने कैसी वेदना, लेकर आया फाग।।
21
दर्द छुपाता जो रहा, मुख पर ले मुस्कान।
जीवन मे उसका सदा, ऊँचा रहा मचान।।
22
मुस्कानों की याद में, रहे पालते पीर।
हमने तोड़ी ही नहीं, यादों की जंजीर।।
23
जश्र हुआ जब झूठ का, लगे ठहाके खूब।
सच की ऐसी दुर्दशा, जैसे कुचली दूब।।
24
टूट गईं सब डालियाँ, चटके सारे फूल।
अदा तुम्हारी जि़न्दगी, ये भी हमें कबूल।।
25
सीलन से कमरा भरा, आँखों ठहरा नीर।
अन्तर्मन की शाख पर, घाव बहुत गम्भीर।।
26
देख जरा-सा भी हिले, भाई अपना नीड़़।
तभी तमाशा देखने, आ जाती है भीड़।।
27
उतर गया है प्रीत का, रिश्तों से अब ताप।
लिए वेदना मौन की, सभी खड़े चुपचाप।।
28
जिह्वा पर तो मौन है, अंतर्मन में नाद।
जीने के आदि हुए, लेकर हम अवसाद।।
29
लोग यहाँ छलने लगे, करके मीठी बात।
मुख पर तो अपने बनें, करें पीठ पर घात।।
30
मरहम होती बेटियाँ, हर लेती हैं पीर।
मन को ये शीतल करें, चंदन-सी तासीर।।
31
निभर्य घूमें भेडि़ए, हिरनी हैं भयभीत।
बस्ती में भी आ गई, जंगल की यह रीत।।
32
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी खुद ही लिख रही, अब अपनी तकदीर।।
 

1 comment:

  1. दोहा क्रमांक 7 नकाब
    क्रमांक 8 और 12 लगभग समान
    क्रमांक 13 गश्त गमों
    क्रमांक 15 द्वितीय चरण की मात्रा व प्रवाह पुनर्विचारणीय
    क्रमांक 25 अन्तर्मल कहीं अंतर्मन तो नहीं ?

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