विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Wednesday, November 22, 2023

हाँ मैं गंवार हूँ - रघुविन्द्र यादव

हाँ मैं गंवार हूँ

हाँ मैं गंवार हूँ
आज भी रहता हूँ अपने माँ-बाप के साथ
उनके ही बनाये घर में|
मैं नहीं बन सका आधुनिक
न शहर में जाकर बसा और
न ही माँ-बाप को भेजा अनाथ आश्रम|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं हैं चमचमाती टाइलें
महँगे कालीन या रेशमी पर्दे|
मेरा आँगन आज भी है कच्चा,
जिसकी मिट्टी में खेलकर ही
मेरे बच्चे बड़े हुए हैं|
मैंने उन्हें नहीं भेजा किसी 'क्रेच' में
नहीं रखी उनके लिए आया
मेरी माँ ने ही दिये हैं उन्हें संस्कार|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है
विदेशी नस्ल का कुत्ता,
जिसे मैं बाज़ार से लाकर
गोश्त खिला सकूं|
मेरे दरवाजे पर बैठते हैं
आज भी तीन आवारा कुत्ते
जिन्हें हम डालते हैं बासी
और बची हुई रोटियाँ|
वे करते हैं, जी-जान से पहरेदारी|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है बोनसाई|
मेरे आँगन में तो आज भी खड़े हैं दर्जनों फल-फूलों के देशी पौधे

नीम, इमली, शहतूत,

तुलसीदल, दूब और ग्वारपाठा |

जिन पर दिनभर चहकती हैं गौरया
मंडराते हैं भंवरे और तितलियाँ,
कूकती हैं कोयले और फूलों का रस
चूसती हैं मधुमखियाँ|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है महंगा
सजावटी सामान|
यहाँ तो हैं चिड़ियों के घोंसले,
मधुमखियों के छत्ते,
मोरों की विश्रामस्थली|

हाँ मैं गंवार हूँ
हमारे घर में नहीं है
नक्कासीदार फूलदान और
आयातित नकली फूल|
हमारे यहाँ तो क्यारियों में ही

गुलदाउदी, गुडहलगेंदा और सदाबहार खिलते हैं

रात को हारसिंगार झरते हैं|

हाँ मैं गंवार हूँ
मैंने नहीं पढाये अपने बच्चे कान्वेंट सकूलों मेंनहीं भेजे वातानुकूलित बसों में|
मेरे बच्चे तो पढ़े हैं
गाँव के बस अड्डे वाले स्कूल में|
अपनी प्रतिभा से बन गए हैं-
इंजिनियर और डॉक्टर|
उन्हें नहीं आते नखरे
आज भी चलते हैं सरकारी बसों में
ईमानदारी से निभाते हैं अपना फ़र्ज़|

हाँ मैं गंवार हूँ
हमने नहीं रखी है 'मेड
खाना बनाने और सफाई करने को
मेरी पत्नी ही करती है घर का काम|
प्यार से बनाती है खाना
और करती ही सफाई|

हाँ मैं गंवार हूँ
खुद ही करता हूँ अपने
पेड़-पौधों की नलाई-गुड़ाई|
बोता हूँ पौध और करता हूँ सिंचाई,
भरता हूँ सकोरों में पानी|
बच्चे खिलाते हैं पक्षियों को दाने|

हाँ मैं गंवार हूँ
नहीं होती हमारे यहाँ
कथाएं और प्रवचन,
नहीं होते जागरण और उपवास|
हम तो प्रकृति के उपासक हैं,
उसके हर रूप से है प्यार,
देते हैं सुरक्षा और करते हैं सम्मान|

हाँ मैं गंवार हूँ
मैं नहीं बनना चाहता
इतना सभ्य कि माँ-बाप को घर से निकालना पड़े,
बेटी को गर्भ में मारना पड़े,
दिखावे के लिए दहेज़ मांगना पड़े,
जायदाद के लिए भाइयों से दुश्मनी पालनी पड़े
मैं तो जीना चाहता हूँ सकून से
गंवार रहकर ही सही|

जिन्हें मेरा गंवार होना स्वीकार है
उनका बाँह फैलाकर स्वागत|
- रघुविन्द्र यादव

Monday, March 7, 2016

मुग्ध - हास बोयें

बचपन के होंठों पर
मुग्ध - हास बोयें ।

आओ, उनसे छीन लें
चिंता की आरियां,
सबको सुनायी दें
उनकी किलकारियां,

इंद्रधनुषी स्वप्नों को
वे फिर सजोयें ।

बाल-सुलभ लीलाऐं
पाती हों पोषण,
कोई न कर पाये
बच्चों का शोषण,
भावों - अभावों में
बच्चे न रोयें ।

संस्कार, संस्कृति के
दीपक जलायें,
सब मिलकर
खुशियों के नवगीत गायें,

विकृत विचारों को
वे अब न ढोयें ।
बचपन के होंठों पर
मुग्ध - हास बोयें ।।

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला

बंगला संख्या- 99,
रेलवे चिकित्सालय के सामने,
आबू रोड -307026 ( राजस्थान )

Friday, January 1, 2016

गुरु सच्चे भगवान् रे

अरे अकल से अंधे मानव
आँख खोल पहचान रे
गुरु से बड़ा नहीं है कोई 
गुरु सच्चे भगवान् रे..........

गुरु ज्ञान के दीप जलाये
जीवन पथ का तिमिर भगाये
अंतस की आँखों को खोले
परमपिता का दरश कराये
गुरु ज्ञान का अतुलित सागर
गुरु करे कल्याण रे.......

रख दृढ़ता विश्वास गुरू में
उर श्रृद्धा का भाव गुरु में
गुरु की कृपा तरे नर भव से
महा कृपा आगार गुरु में
राम-कृष्ण ने गुरु को पूजा
जग में गुरू महान रे......

गुरु ब्रह्मा है गुरु महेश है
गुरु विष्णु है गुरु शेष है
गुरु शारदा गुरु माँ अम्बे
परम ब्रहम है गुरु वेश में 
गुरु में देवलोक है पूरा
गुरु में सकल जहान रे....

गुरु वाणी में अमृत धारा
गुरू कृपा ने सबको तारा
गुरु ही तीन लोक के स्वामी
ताबिश गुरु लोक है न्यारा
छोडि सकल जंजाल जगत के
धरो गुरु का ध्यान रे......

-आचार्य राकेश बाबू 'ताबिश' 

निकट द्वारिकापुरी कोटला रोड, मंड़ी समिति के सामने
फिरोजाबाद 

Tuesday, December 1, 2015

चाँद -चकोर

आकाश की आँखों में
रातों का सूरमा
सितारों की गलियों में
गुजरते रहे मेहमां
मचलते हुए चाँद को
कैसे दिखाए कोई शमा
छुप छुपकर जब
चाँद हो रहा है जवां

चकोर को डर
भोर न हो जाएँ
चमकता मेरा चाँद
कहीं खो न जाए
मन बेचैन आँखे
पथरा सी जाएगी
विरह मन की राहे
रातें निहारती जाएगी

चकोर का यूँ बुदबुदाना
चाँद को यूँ सुनाना
ईद और पूनम पे
बादलो में मत छुप जाना

याद रखना बस
इतना न तरसाना
मेरे चाँद तुम खुद
चले आना

-संजय वर्मा "दृष्टि "

125 शहीद भगत सिंह मार्ग
मनावर जिला धार (म प्र )
454446

Sunday, November 8, 2015

गीत - इसीलिए दीपक जलता है

कितने ही तुम दीप जलाओ,
अग्निपुंज से तिलक लगाओ,
जलती लौ की करो हिफाज़त,
फिर चाहे मन में इतराओ,
लेकिन दीपक तले अँधेरा, बसता ही बसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

उम्मीदों में प्रेम कहाँ है,
निश्छल मन संदेश कहाँ है,
मन की कटुता बंद करे जो,
ऐसी पावन जेल कहाँ है,
ग्रहण लगे चन्दा को राहू, ग्रसता ही ग्रसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

चपल दामिनी पर बन बादल,
करते हो क्यों खुद को घायल,
अन्दर की ज्वालायें अक्सर,
मन पर नहीं देह पर पागल,
'वन' के तन्हा राही को, डर डसता ही डसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

जीवन इक संगीत लड़ी है,
जीवन की हर बात बड़ी है,
चलते चलते थक मत जाना,
नये कदम पर जीत खड़ी है,
आग में तपकर सोना, कुंदन बनता ही बनता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

- राहुल गुप्ता, लोहवन, मथुरा

अध्यक्ष- संकेत रंग टोली, मथुरा

बाल कविता - आई दीवाली

दीप जलाओ, दीप जलाओ।
आई दीवाली, खुशी मनाओं।।

झिल मिल-झिल मिल दीप जले,
चकरी, फिरकी, फुलझड़ी चले,
आतिशबाजी से नभ रंगीन हुआ,
घर-घर आंगन में लड़ी जले।
अनार, बम, पटाखें खूब चलाओं।।

हिंदु, मुस्लिम, सिख, इसाई,
मिलकर नफरत की पाटो खाई,
इक-दूजे के गले मिलो तुम,
आपस में तुम हो भाई-भाई।
मिल जुल कर ये पर्व मनाओ।।

अब की ऐसी आए दीवाली,
घर-घर में छाए खुशहाली,
हर आंगन में नाचे खुशियां,
खेतों में छाए हरियाली।
खुशियों के तुम दीप जलाओ।।

-भूप सिंह ‘भारती’

गाँव व डाक -खालेटा
जिला - रेवाड़ी, हरियाणा- 123103
मो0 - 094162-37425


Thursday, September 24, 2015

बुत में न मैं आयत में हूँ - अहमना भारद्वाज 'मनोहर'

बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में, 
मजबूर की आह में हूँ, मासूम की मुस्कान में।
आये थे मिलने मुझे कब तुम मेरे आवास में,
ढूँढ़ा मुझे तुमने कभी काबा कभी कैलाश में,
मैं बरकतें बरसा रहा हूँ खेत में, खलिहान में,
बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैंने तो हर इंसान में बख्शा खुदाई नूर है,
तुमने लिखे अपने लिए मज़हबी दस्तूर हैं,         
ये $फर्क तुमने ही किया गीता और कुरान में,          
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।  
मैंने कहा कब आपसे मुझको चढ़ावा चाहिए,
ये भी न चाहा मंदिरों में धूप दीप जलाइए,
इतना ही चाहा आपसे, न खोट हो ईमान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
लडऩे लगे आपस में क्यूँ, मैं आपसे नाराज़ हूँ,       
मैं न किसी मंदिर न मस्जि़द के लिए मोहताज हूँ,                 
मुझे कैद करना चाहते क्यूँ तंग बंद मकान में,      
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
 
-अहमना भारद्वाज 'मनोहर'
रेवाड़ी (हरियाणा)

Monday, September 21, 2015

डॉ. लोक सेतिया की दो कवितायेँ

    चुभन

धरती ने अंकुरित किया
बड़े प्यार से उसे
किया प्रस्फुटित
अपना सीना चीर कर
बन गया धीरे-धीरे
हरा भरा इक पौधा
उस नन्हे बीज से।
फसल पकने पर
ले गया काट कर
बन कर स्वामी
डाला था जिसने
बीज धरती में
और धरती को मिलीं
मात्र कुछ जड़ें
चुभती हुई सी।
अपनी कोख में
हर संतान को पाला
माँ ने मगर, मिला उनको
पिता का ही नाम, जो
समझता रहा खुद को
परिवार का मुखिया
और घर का मालिक।
और हर माँ सहती रही
कटी हुई जड़ों की
चुभन का दर्द
जीवन पर्यन्त।   

         औरत

तुमने देखा है
मेरी आँखों को
मेरे होंठों को
मेरी ज़ुल्$फों को।
नज़र आती है तुम्हें,
खूबसूरती, नज़ाकत और कशिश,
मेरे जिस्म के अंग-अंग में।
देखा है तुमने,
केवल बदन मेरा,
बुझाने को प्यास,
अपनी हवस की।
बाँट दिया है तुमने,
टुकड़ों में मुझे,
और दे रहे हो उसको,
अपनी चाहत का नाम।
तुमने देखा ही नहीं,
उस शख्स को,
जो एक इंसान है,
तुम्हारी ही तरह,
जीवन का एहसास लिये,
जो नहीं है , केवल एक जिस्म,
औरत है तो क्या।

 -डॉ. लोक सेतिया

सेतिया अस्पताल,
मॉडल टाउन, फतेहाबाद
(हरियाणा)-125050
Note- उक्त रचनाएँ इस लिंक पर बाबूजी का भारतमित्र में भी पढ़ी जा सकती हैं 


https://www.scribd.com/doc/281369216/Babuji-Ka-Bharatmitra-Sept-15

Saturday, September 19, 2015

शिवानन्द सहयोगी के गीत

दिल्ली की सड़कें

दिल्ली की सड़कों पर कुमकुम
पिचकारी से
छिड़क रही है
उड़ती धूल
मैंने सोचा परी लोक से
लोकतंत्र पर
गिरा रहा है
कोई फूल

पहिये पैदल भाग रहे हैं
आटो लादे
टैम्पो ढोते
भौतिक भार
पड़ा सफाई का अधकचरा
जोड़ रहा है
चुपके-चुपके
मन से तार
साँस सड़क पर आटा माँड़े
चूँ-चूँ चें-चें
फिरकी बेंचें
प्यासी हूल

छत के ऊपर आग बिछाता
सूरज गोरा
कोरी-कोरी
कड़की धूप
शारीरिक श्रम पोंछे पानी
मटियाठस है
सावन-सावन
बौना कूप
घोंट रही है हवा दवाई
बिजली रानी
आती-जाती
क्यों दें तूल

बबूल के काँटे

क्या जनवाद उतर आया है
आंगन.आंगन गाँवों में
क्या बबूल के काँटे चुभते
नहीं किसी के पाँवों में

छायापथ के स्वर्णिम रथ पर
छायावादी गीत चढ़े
एक अनोखे तालमेल की
ओर नये संगीत बढ़े
फागुन की मस्ती बसती क्या
अब पीपल की छाँवों में

मानववादी हर उत्तम पथ
अभी न आये राहों पर
खुशियों के सतरंगी बचपन
झूल रहे है बाहों पर
सावन क्या अब भी जाता है
चढ़ निवेश की नावों में

आया कहाँ विकास सुहाना
आँगन.आँगन खोली में
शंका की दुलहन बैठी है
आश्वासन की डोली में
क्या वसंत अब नहीं बैठता
मधुशाला के ठाँवों में
 
-शिवानन्द सिंह 'सहयोगी', मेरठ

Tuesday, September 8, 2015

हस्ताक्षर

पर्वत पठार नदियाँ
उस ईश के हस्ताक्षर।
जल वायु पुष्प ऋतुयें
उसको करें उजागर।।
इस सृष्टि के हर कण में
वह छिप के है समाया।
पत्थर और जल कमल में
उसका ही रूप छाया।।
पक्षी जो करते कलरव
उड़ते हुए गगन में।
तारे जो टिम टिमाते
खुशबू है जो पवन में।।
सागर में लहरें उठकर
जो तट की ओर आती।
उस विश्व चेतना की
धडक़न को ही सुनाती।।
रवि, चन्द्रमा, दिशायें
यह अखिल विश्व सारा।
सब कारणों का कारक
वह ईश सबसे न्यारा।।
तूफान उत्तराखंड का
हमने अभी जो देखा।
मानव के प्रकृति-दोहन पर
खिच गई सीमा-रेखा।।
इस प्रकृति के हस्ताक्षर को
रखें स्मृति-पटल पर।
हम प्रकृति को न छेड़ें
निज स्वार्थ के पहल पर।।
-प्रो. बसन्ता
सरदार वल्लभ भाई पटेल महाविद्यालय, भभुआ
(कैमूर) बिहार-821101

न आरती में न अज़ान में - अहमना भारद्वाज 'मनोहर'

बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में, 
मजबूर की आह में हूँ, मासूम की मुस्कान में।
आये थे मिलने मुझे कब तुम मेरे आवास में,
ढूँढ़ा मुझे तुमने कभी काबा कभी कैलाश में,
मैं बरकतें बरसा रहा हूँ खेत में, खलिहान में,
बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैने तो हर इंसान में बख्शा खुदाई नूर है,
तुमने लिखे अपने लिए मज़हबी दस्तूर हैं,         
ये फर्क तुमने ही किया गीता और कुरान में,          
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।  
मैंने कहा कब आपसे मुझको चढ़ावा चाहिए,
ये भी न चाहा मंदिरों में धूप दीप जलाइए,
इतना ही चाहा आपसे, न खोट हो ईमान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
लडऩे लगे आपस में क्यूँ, मैं आपसे नाराज़ हूँ,      
मैं न किसी मंदिर न मस्जि़द के लिए महोताज हूँ,                 
मुझे कैद करना चाहते क्यूँ तंग बंद मकान में,      
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।

-अहमना भारद्वाज 'मनोहरÓ

रेवाड़ी (हरियाणा)


त्रिलोक सिंह ठकुरेला का गीत

कृष्ण!  निशिदिन घुल रहा है सूर्यतनया में जहर।
बांसुरी की धुन नहीं है,
भ्रमर की गुन-गुन नहीं है,
कंस के व्यामोह में पागल हुआ सारा शहर।
पूतना का मन हरा है,
दुग्ध, दधि में विष भरा है,
प्रदूषण के पक्ष में हैं ताल, तट, नदियां, नहर।
निशाचर-गण हँस रहे  हैं,
अपरिचित भय डस रहे हैं,
अब अँधेरे से घिरे हैं सुवह, संध्या, दोपहर।
शंख में रण-स्वर भरो अब ,
कष्ट वसुधा के  हरो  अब,
हाथ में लो चक्र, जाएँ आततायी पग ठहर ।

- त्रिलोक  सिंह  ठकुरेला, अबू रोड

Monday, August 17, 2015

मेरा देश ...मेरा घर - विजया भार्गव

मां....
तेरे चरणों को छू के
सरहद पे जाना चाहता हूं
...जाने दे ना मां मुझे...
मेरे .इस घर की रक्षा
भाई..पापा...कोमल बहना
मेरी दुर्गा कर लेंगे
अबं..मुझ को तो सरहद पे
उस मां की रक्षा करनी है
ताकी मेरे देश के.
घर घर मे खुशहाली हो...
जाने दे ..मुझे
हर घर मेरा घर है
हर घर की सुरक्षा करनी है
मां का आंचल बेदाग रहे
हर सांस प्रतिज्ञा करनी है

मत रोक री बहना
जाने दे
तेरे जैसी कितनी .
मासूम चिडियाओं की
रक्षा करनी है
हर घर आगंन की
चहक महक
मुस्कान की
रक्षा करनी है..

मत रोको दुर्गा .
आसूं से
तुम ही तो मेरी शक्ती हो
तुम को तो ..मैं बन के
इस घर को खुशियां देनी है
मत रो पगली
जाने को कह
इक बार तो हंस के
कह भी दे
तुझ सी दुर्गाओं के
मांगों के
सिन्दूर की रक्षा करनी है
बहुत विस्ञित है घर मेरा
जाने दे
दुआ करना...जब आऊं मैं
तान के सीना आऊंगा
जो ना आ पाया
तो भी मैं
तान के सीना जाऊंगा

कभी ना रोना तुम
मैं यहीं कहीं दिख जाऊँगा
जब-जब मुस्काएगा बच्चा
मैं मुस्काता दिख जाऊँगा
जाता.हूँ ....आऊंगा ...........

-विजया भार्गव 'विजयंती', मुंबई

vijayanti.b@gmail.com

Thursday, August 13, 2015

गीत - लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वसुधा पर छाई हरियाली
खेतों में भी रंगत आई |
धरती के आँगन में बिखरी
मखमल-सी हरियाली छाई ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

उमड़ घुमड़ बदली बरसाए
सावन मन बहकाता जाए |
साजन लौट जब घर आये
गाल गुलाबी रंगत लाये ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |


जिया पिया का खिलखिल जाए नयनों से अमरित बरसाए |
तन मन में यौवन छा जाए
पिया मिलन के पल जब जाए ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |


साजन ने गजरे में गूंथा गेंदे की मुस्काई कलियाँ |
बागों में झूला डलवाया
झूला झूले सारी सखियाँ ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

शीतल मंद हवा का झोंका
मस्त मधुर यौवन गदराया |
मटक-मटक कर चमके बिजुरी
सजनी का भी मन इतराया ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

हरियाली तीज त्यौहार में
चंद्रमुखी सी सजती सखियाँ
शिव गौरी की पूजा करती
मेहंदी रचे हाथों से सखियाँ |


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

चंद्रमुखी मृगलोचनी-सी
नवल वस्त्र में सजकर सखियाँ |
झूम-झूम कर नाचे गावें
दृश्य देख हर्षाएं रसियाँ ||


रिमझिम रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

-लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

गीत - कल्पना रामानी

बरखा रानी नाम तुम्हारे 

बरखा रानी! नाम तुम्हारे,
निस दिन मैंने छंद रचे।
रंग-रंग के भाव भरे,
सुख-दुख के आखर चंद रचे।

पाला बदल-बदल कर मौसम,
रहा लुढ़कता इधर उधर।
कहीं घटा घनघोर कहीं पर,
राह देखते रहे शहर।

कहीं प्यास तो कहीं बाढ़ के,
सूखे-भीगे बंद रचे।

कभी वादियों में सावन के,
संग सुरों में मन झूमा।
कभी झील-तट पर फुहार में,
पाँव-पाँव पुलकित घूमा।

कहीं गजल के शेर कह दिये,
कहीं गीत सानंद रचे।

कभी दूर वीरानों में,
गुमनाम जनों के गम खोदे।
अतिप्लावन या अल्प वृष्टि ने,
जिनके सपन सदा रौंदे।

गाँवों के पैबंद उकेरे,
शहर चाक-चौबन्द रचे।

-कल्पना रामानी

गीत - हरीन्द्र यादव

संगीत सुनाया सावन ने 

नील गगन में मेघमाल को, न्योत बुलाया सावन ने।
ढोलक, झांझ, मंजीरा का, संगीत सुनाया सावन ने।

नदी, ताल, सरवर, पोखर को, नवजीवन का दान मिला।
इन्द्रधनुष के सात रंगों से, जीवन को नव गान मिला।।
तेज तपन से मुक्ति देकर, मन हरियाया सावन ने।

दादुर, मोर, पपीहे बोलें, चमकें जुगनू टिमटिम से।
त्यौहारों की बगिया में, फल-फूल लगाए रिमझिम के।।
भाग-दौड़ की धूप-छांव में, मन उमगाया सावन ने।

पुरवा पवन चले सावन में, घटा उठे काली घनघोर।
पुलकित होकर किलकें बालक, नाच उठे सबका मन-मोर।
खुशियों की किलकारी सुनकर, शीश उठाया सावन ने।

व्यथा-कथा का पन्ना-पन्ना, बांच रहे थे जितने जन।
गीत और संगीत सुनें तो, हर्षित होते सबके मन।
अम्मां जैसी थपकी देकर, थपक सुलाया सावन ने।

हरियाली की चूनर ओढ़़े, छटा अनोखी छाई है।
रूप अनूप धारकर धरती, मन ही मन इतराई है।।
अरमानों के झूले ऊपर, खूब झुलाया सावन ने।

-हरीन्द्र यादव, गुड़गाँव

Wednesday, August 12, 2015

इस बरसात में...विजया भार्गव

आज
इस बरसात मे
बहा दूँगी
तुझ से जुडी
हर चीज...
विसर्जित कर दूँगी
हमारे बीच का जोड़
कागज़ के वो पुर्जे बहाए
जो कभी खत कहलाते थे
उन में बसी खुशबू..?
कैसे बहाऊं
वो पीतल का छल्ला
बह गया..
पर उंगली पर पडा
ये निशान.
कैसे बहाऊं
ये रूमाल, ये दुप्पटा
सब बहा दिए
बचे
ढाई आखर
और
मन मे बसे तुम
कैसे बहाऊं..
लो..खोल दी मुट्ठी
कर दिया विसर्जित
इन के साथ
आज ..
खुद को भी बहा आई
कर आई
अपना विसर्जन
इस बरसात में...

-विजया भार्गव 'विजयंती', मुंबई

vijayanti.b@gmail.com

दस हाइकु - शैलेष गुप्त 'वीर'

बीता आषाढ़
मुदित है प्रकृति
पावस ऋतु।
2-
बहका मन
रिमझिम फुहारें
छुआ जो तन!
3-
पिया के बिन
हरी-भरी धरती
आहें भरती।
4-
सावन हँसा
सतरंगी हो गये
'दोनों' खो गये।
5-
हुई जो प्रात
कल की 'भीगी रात'
बात ही बात!
6-
मन-विभोर
छायी है हरियाली
मन ही चोर!
7-
आ मन नच
नदी-नौका-पर्वत
सपने सच।
8-
यादों के साये
'सीमा पर चौकसी'
सावन जाये।
9-
शिव को प्रिय
सावन का महीना
भक्ति में रमा।
10-
श्रद्धा में डूबे
चले हैं काँवरिया
जय भोले की!

-डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष-अन्वेषी संस्था) फतेहपुर (उ.प्र.)-212601
मो.- 9839942005, 8574006355
ईमेल- doctor_shailesh@rediffmail.com 

Saturday, December 31, 2011

स्वागत है नव वर्ष

स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा,
खुशियाँ लेकर आना तुम/
अमन चैन की लाना बहारें,
पग-पग फूल खिलाना तुम/
वर्षा हो पर्याप्त जगत में,
कहीं न बाढ़ और सूखा हो/
धन धान्य से भरें खजाने,
दीनों को हर्षाना तुम/
शांति हो सर्वत्र जहाँ में,
कहीं न हिंसा हानि हो/
मिलजुल कर सब रहे अमन से,
ऐसा रंग ज़माना तुम/
अन्धकार हो दूर जगत से,
शिक्षित हों सब नर नारी/
फिर वेदों की वाणी गूंजे,
ऐसा गीत सुनाना तुम/
कपड़ा सुलभ सभी को होवे,
सब को छत और काम मिले/
कोई न भूखा प्यासा सोये,
सब की भूख मिटाना तुम/
नारी का सम्मान बढे,
फिर अबला सबला हो जाये/
जिस पल का इन्तजार सभी को,
उसको लेकर आना तुम //
-रघुविन्द्र यादव 

Sunday, October 9, 2011

व्यंग्य कविता

रावण का भगवान से संवाद 

दाता के दरबार में, पहुंचे रावण वीर/
प्रभु मेरा न्याय करो, बोले होय अधीर//

रावण जैसे वीर को, हुआ आज  क्या कष्ट/
पौरुष जिसने वीर का, कर डाला है नष्ट// 

प्रभु मुझे तो एक भूल की सजा हर साल मिलती है
मगर अब तो हर रोज कोई न कोई सीता लुटती है
समाज और राष्ट्र की दशा देख मेरी साँस घुटती है
मुझ जैसे चरित्रहीन की भी अब तो आबरू लुटती है //
हर वर्ष हमारे परिवार के  पुतलों का दहन किया जाता है
यह दुःख अब मुझसे नहीं और सहन किया जाता है
हत्यारे और बलात्कारी सफ़ेद वस्त्र धारण करके आते हैं
मुझे और मेरे परिजनों को आग लगा जाते हैं //

प्रभु कोई बलात्कारी किसी अपहर्ता को बुरा कहे
ये अपमान आपका भक्त रावण कैसे सहे ?

अब आप ही मेरा न्याय कीजिये
मेरा खोया सम्मान बहाल कीजिये //

राजा  ना सही सांसद ही बनवा दो
गाड़ी, बत्ती और झंडी दिलवा दो//

संसद में तो अपराधियों की भरमार है
विधानसभाओं में भी उनका पूरा परिवार है //


रावण मैं मनमोहन की तरह मजबूर हूँ
क्योंकि बहुमत से अभी काफी दूर हूँ//

गढ़बंधन सरकार का मुखिया हूँ
इसलिए खुद भी दुखिया हूँ//

पापी,कामी, हत्यारे भी खुद को संत बता रहे हैं
और ब्लैकमेल कर मुझसे अनुमोदन करवा रहे हैं//

मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता
अपने समर्थक दलों को रुष्ट नहीं कर सकता//

जनता के बीच जाओ वही उपचार करेगी
चरित्रवान लोगों को चुनकर तुम्हारा उपकार करेगी//
-रघुविन्द्र यादव