विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Thursday, August 4, 2016

राजपाल सिंह गुलिया के दोहे

पढ़कर पुस्तक कौन सी, हुए लोग शैतान |
जारी करते खौफ़ के, नित्य नए फरमान||

पल-पल बदलें बात जो, खो देते विश्वास|
लोग मिटे हैं बात पर, साक्षी है इतिहास||

उस जन की जननी भला, कब तक मांगे खैर|
रहकर जो नदराज में, करे मगर से बैर||

जाने दिल में कब उगे, ये जुल्मी अरमान|
जिनको पूरा कर रहा, बेच-बेच मुस्कान||

कल तक तूती बोलती, घर हो चाहे राज|
देख आज वो खुद हुए, तूती की आवाज||

दोनों हाथों वे सभी, दौलत रहे बटोर|
राजमहल में आ जमे, कल के सारे चोर||

खरी बात कह जब किया, उसने सौ का तोड़|
भीड़ फटी तब दूध-सी, गई अकेला छोड़||

जब-जब रिश्वत को मिला, अपना सही मुकाम|
खारिज़ झटपट हो गए, जितने थे इल्जाम||

मिटा सभी कुछ खेत में, खाली है खलिहान|
बता गरीबी से यहाँ, कैसे लड़े किसान||

घटाटोप को देखकर, सोचे खड़ा किसान|
देखूं सूखा खेत या, दरका हुआ मकान||

जोड़ तोड़ के जो रचे, रोज नए ही छंद|
कौन करे उसका यहाँ, हुक्का पानी बंद||

पूछ रहा था दीन वह, जोड़े दोनों हाथ|
यहाँ पिसेगा कब तलक, घुन गेंहूँ के साथ||

बता विधायक हो गया, कैसे मालामाल|
मुझसे मेरा वोट यह, अक्सर करे सवाल||

बेचा कभी जमीर को, ले मुँह माँगा मोल|
आज वही चौपाल में, बोलें ऊँचे बोल||

अपनी गलती पर रहा, मन में यूं संताप|
जैसे जननी चोर की, छुप कर करे विलाप||

अब की बार चुनाव में, देखा खेल अजीब|
बापू जिससे दूर था, बेटा मिला करीब||

पोरस की बातें सुनी, गया सिकंदर जान|
शक्ति से नहीं टूटता, जन का स्वाभिमान||

सबसे सिर पर आ चढ़ा, आज नशे का भूत|
बाप अहाते में पड़ा, पब में थिरके पूत||

कन्या करती कोख में, आज यही फ़रियाद|
माँ तू भी तो थी सुता, इतना करले याद||

राज गली में जो चला, करके ऊँचा भाल|
उसकी निष्ठां पर किये, सबने खड़े सवाल||

आयत पढ़े कुरान की, रटता वैदिक मंत्र|
फिर भी रचता आदमी, कपट भरे षड्यंत्र||

रामू रहमत में हुआ, जब भी वाद-विवाद|
मंदिर मस्जिद ने रचे, दंगे और फसाद||

हुई धर्म की आड़ में, जहाँ सियासत तेज|
उस बस्ती से ही मिली, खबर सनसनीखेज||

मानवता का कब तलक, कायम रहे वजूद|
फिरे धरम जब भीड़में, तन पर मल बारूद||

मांगें सबकी खैर जो, उन पर गिरती गाज|
रहा धनी जो बात का, वो ही निर्धन आज||

हिम्मत जुटा वजीर ने, खरी कही जब बात|
राजा की शमशीर ने, बतला दी औकात||

झूठ सदा किसका चला, बता मुझे सरकार|
हांडी चढ़ती काठ की, कहाँ दूसरी बार||

खरी-खरी सुत ने कही, बाप गया ये ताड़|
नीचे कदली पेड़ के, उग आया है झाड़||

जिनके पुरखे राज के, थे हुक्काबरदार|
आज वही चौपाल पर, कर बैठे अधिकार||

अखर गया कुतवाल को, उसका एक सवाल|
केस बनाकर लूट का, किया बरामद माल||

बोला खेत किसान से, कहते आवे लाज|
गाड़ी उस सरकार की, फिर आई थी आज||

इस बंगले को देखकर, मत हो तू हैरान|
इसकी खातिर खेत ने, खो दी है पहचान||

दर्शक बन करता रहा, बड़ी-बड़ी वो बात|
उतरा जब मैदानमें, पता चली औकात||

नाविक ने ही राज ये, खोल दिया खा ताव|
पहले डूबा हौसला, फिर डूबी थी नाव||

जब-जब लोगो ने किया, मदिरा पी मतदान|
तब-तब साहूकार के, आई हाथ कमान||

भरे पेट को रोज ही, लगते छप्पन भोग|
लड़कर कितने भूख से, सौ जाते हैं लोग||

सुबह गए वो जेल में, मिली शाम को बेल|
आँख ढाँप क़ानून भी, करे निराला खेल||

मूरख का संसार में, कुछ ऐसा है हाल|
जले बाग़ में राख का, लगता उसे अकाल||

लोकलाज ने खा लिए, जननी के जज्बात|
कचरे के डिब्बे पड़ा, सोचे इक नवजात||

ऋण ले घी पीने लगे , जब से जग में लोग|
लगा तभी अतिसार का, महाजनी को रोग||

सदा जीतते वीर वो, करते पहले वार|
कायरता की कोख से, पैदा होती हार||

जिस दिल में रहता सदा, प्रतिशोध का भाव|
रह्दम रखता वो हरा, बस अपना ही घाव||

सुबह-सुबह अखबार भी, मिलता लहूलुहान|
खुलकर जन के पाप का, करता रोज बखान||

महामहिम के सामने, कब चलता है जोर|
घुटना भी मुड़ता यहाँ, सदा पेट की ओर||

कहीं चढ़ी है बाढ़ तो, कहीं रिक्त सब ताल|
कुदरत का ये रूप भी, है कितना विकराल||

हम तो उनकी चाह में, बनकर रहे चकोर|
आशिक अब तेज़ाब ले, फिरें मचाते शोर||

चलती टी.वी. पर बहस, होता वाद-विवाद|
अनजाने ही खौफ़ को, लोग दे रहे खाद||

सागर से मिलकर नदी, खो बैठी पहचान|
मीठा जल अब खार का, करे रोज गुणगान||

धन-माया को मानते, जो खुशियों का बीज|
उनकी नज़रों मान है, आनी-जानी चीज||

उनके दिल की पीर का, लगे नहीं अनुमान|
जिनके मुख पर हर घडी, रहती है मुस्कान||

पकी फसल को तक रहा, मौसम बेईमान|
लगी चमकने दामिनी, गुमसुम हुआ किसान||

जब से झूठ फरेब पर, लगे बरसने फूल|
तब से सच चौपाल का, गया रास्ता भूल||

एक तरफ क़ानून है, एक तरफ है खाप|
प्रेम जताना हो गया, अब जैसे अभिशाप||


दौलत के बदले लगा, बिकने जब इंसाफ|
सच्चाई का हो गया, तभी सूपड़ा साफ||

चोर गया परदेस में, लूट वतन का माल|
टीवी पर विद्वान अब, बजा रहे हैं गाल||

कह दे मन की बात को, जिसे रहा है सोच|
थोड़े ही लगते भले, नमक और संकोच||

जिस दिन ख़ुलकर धर्म पर, उसने दी तक़रीर|
उस दिन से अखबार में, झलक रही तस्वीर||

कोष लूटकर देश का, रख आए परदेस|
धनकुबेर अब देखिए, कितने हुए भदेस||

प्रेमभाव पर फैलती, आज मतलबी सोच|
लोग गोद में बैठ कर, लेते दाढ़ी नोच||

बिन पैसे संसार में, हुआ कहाँ कुछ काम|
मोल लिया है बैर भी, देकर उनको दाम||

खरी खरी बातें कहें, जो बिन लाग लपेट|
उनके ही घर में मिले, सारे खाली पेट||

-राजपाल सिंह गुलिया
राजकीय प्राथमिक पाठशाला, भटेड़ा
जिला- झज्जर (हरियाणा)- 124108


Wednesday, August 3, 2016

आशा खत्री 'लता' के दोहे


जल-जल कर जल उड़ गया, जितना था निर्दोष।
बिना तपन होता नहीं, कभी निवारण दोष।।

ख़ामोशी से कर लिया, सच ने झूठ कबूल।
पहले से ही थे खड़े, पथ में बहुत बबूल।।

घर का झगड़ा आ गया, जब गलियों के बीच।
इधर-उधर बिखरा मिला, अपशब्दों का कीच।।

समय बड़ा बलवान है, हम ठहरे कमजोर।
साथ दौड़ने के लिए, लगा रहे हैं जोर।।

चल धरती के हाल पर, लिक्खें एक किताब।
कुदरत क्या-क्या झेलती, इसका करें हिसाब।।

साजन तो प्यारा लगे, नहीं सुहाती सास।
और वृद्धजन झेलते, अपने घर बनवास।।

झूठी जिनकी हेकड़ी, नकली जिनकी शान।
इस कलयुग में चल रही, उनकी खूब दुकान।।

सब कुछ जिनके पास है, रुतबा भी है खास।
फिर भी क्यों बुझती नहीं, उनके मन की प्यास।।

हमने तो अपना कहा, उसने समझा गैर।
फिर कैसे बढ़ते भला, उसके घर को पैर।।

रखता खबरें गैर की, अपना नहीं सुराग।
रूप सँवारा खूब पर, धुला न मन का दाग।।

लूटें हैं जिसने सदा, डौली और कहार।
सबसे आगे वो खड़ा, ले फूलों का हार।।


अबकी बार चुनाव में, खड़े लटूरी लाल।
वादे करते थोक में, बाँटे खुलकर माल।।

वही समझता पीर को, जो दुख से दो चार।
बाकी तो चलता रहे, यूँ ही ये संसार।।

भौतिकता की आँधियाँ, पाप रहा फल-फूल।
धर्म तिरोहित हो रहा, टूटे सभी उसूल।।

टूट गए जब हौसले, पंख हो गए दीन।
मिल जाये जब हौसला, उड़ जाते पर-हीन।।

ले मोबाइल हाथ में, करें निरर्थक बात।
सपने धन्ना सेठ से, कौड़ी की औकात।।

धनवानों के पाप भी, निर्धन करे क़ुबूल।
बिना अर्थ इस देश में, जीना हुआ फिजूल।।

ताने और उलाहने, यही शेष है प्यार।
खटे बुढ़ापा रात दिन, कहलाता बेकार।।

जिस आँचल की छाँव में, बैठे उम्र तमाम।
समय पड़ा तो दे दिया, उसको तपता घाम।।

दुख भी आ ठहरे नहीं, ख़ुशी न पहुँची पार।
जैसा था वैसा जिया, हमने ये संसार।।

हरो परायी पीर तो, मिलती सबकी प्रीत।
बहुत गा लिए प्रणय के, छेड़ो करुणा गीत।।

तुमसे मिलकर यूँ लगा, जैसे गाया गीत।
भावों की लय मिल गयी, प्राणों को संगीत।।

तपती लू में ले रहे, ककड़ी, खीरा मौज।
घूम रही फुटपाथ पर, तरबूजों की फ़ौज।।

बिना वात के मौन हैं, साधक जैसे पेड़।
विहगों का कलरव करे, नीरवता से छेड़।।

बातें सच्ची थी मगर, कहता सुनता कौन।
कान बधिर से हो गए, अधर रह गये मौन।।

हुई नहीं ये जिंदगी, इतनी भी आसान।
पलक झपकते कर सके, भले बुरे का ज्ञान।।

कुछ तो आँखें देखती, कुछ है मन की सूझ।
चलती मेरी लेखनी, लेकर प्यास अबूझ।।

दो दिन यौवन चाँदनी, सबको मिली हुजूर।
कदम बहकते आपके, इसका कहाँ कसूर।।

आभासी इस लोक के, अदभुत हैं दस्तूर।
उनसे रिश्ते बन गये, जो हैं कोसों दूर।।

नदी ताल दूषित हुए, बिके हाट में नीर।
मैला-मैला मन लिए, उजले पहने चीर।।

जो सच से डरता नहीं, उसकी कठिन तलाश।
गिरी पड़ी हर मोड़ पर, सम्बंधों की लाश।।
 
कौन करेगा आप सी, माता हम पर छाँव।बिना तुम्हारे भाग में, सिर्फ धूप के गाँव।।

उर गाढ़ा होता गया, तरल हो गए नैन।
पीड़ा विष देता रहा, आहत मन को चैन।।

चलते फिरते ले चला, राह तकें बीमार।
समझ न आया काल का, हमको तो व्यवहार।।

ताकत यहाँ विचार की, कर दे मालामाल।
बिना सोच का आदमी, कुदरत से कंगाल।।

इक दिन हम भी चल दिये, इस दुनिया को छोड़।
अपनों ने भी झट लिया, माटी से मुँह मोड़।।

कल तक जो तन कर खड़े, आज हो गए ढेर।
इस दुनिया में कब लगे, समय बदलते देर।।

हम तो सीधे थे बहुत, वे थे घुण्डी मार।
ऐसे में चलती कहाँ, साझे की सरकार।।

उलझे-उलझे बाल हैं, टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
दीवानों का देश में, कौन पूछता हाल।।

बात पते की वो कहें, जिसका गाढ़ा ज्ञान।
उसके शब्दों पे रहे, समझदार के कान।।

दूर-दूर तक ख्याति है, चारों ओर प्रताप।
पर दो मीठे बोल को, तरस रहे माँ बाप।।

ऊँची भरी उड़ान तो, गगन हो गया मीत।
पर नभचर कब भूलता, धरती माँ की प्रीत।।

नये पुराने में लगी, उत्तमता की होड़।
एक दूसरे का यहाँ, खोजें दोनों तोड़।।

जिनके चाबुक से चले, राजा और वजीर।
अब उन पर ही सध रहे, लोक तन्त्र के तीर।।

क्यों अपनों के नेह को, मन कहता है पाश।जो सुख घर के आँगना, वो न खुले आकाश।।

नेता जी की सोच में, पलता हर पल खोट।
जनता सुख दुख की कहे, उसे चाहिए वोट।।

हावी झूठ फरेब हैं, सच्चाई गुमनाम।
राजनीति में हो गया, अच्छा भी बदनाम।

नहीं पहुँचते सत्य तक, बहें हवा के संग।
मन दूषित मति मूढ़ सी, नजर हो गयी तंग।।

पाँवों की शक्ति गयी, गया नजर का नूर।
जीने की इच्छा गयी, होकर तुमसे दूर।।

मौत इशारा कर गयी, हुई जिंदगी दूर।
खड़े काल के सामने, हम बेबस मजबूर।।

छलके आँसू आँख से, उठती दर्द हिलोर।
गम की रैना है बड़ी, बहुत दूर है भोर।।

अपना काम निकाल कर, हो जाते काफूर।
फिर भी क्यों होता नहीं, मन ये उनसे दूर।।

आकर तेरी छाँव में, भूल गए हम धूप।
लेकिन नहीं क़ुबूल था, हमे कभी ये रूप।।

देखा किसी किताब में, सूखा हुआ गुलाब।
आँसू बनकर बह चली, झट से तेरी याद।।

जिस थाली में खा रहे, करें उसी में छेद।
मुश्किल है मिलना यहाँ, पापी मन का भेद।।

ताकत जिसमें न्याय की, अब वो ले अवतार।
लोकतन्त्र में आ रहे, निशि दिन नये विकार।।

मीठी वाणी बोलकर, धूर्त जमाये धाक।
सच जब उदघाटित हुआ, हुआ कलेजा चाक।।

जिसकी हो तादाद अब, मचे उसी का शोर।
कव्वों की बारात में, खुलकर नाचा मोर।।

टूटी सी संदूक में, माँ रखती संभाल।
उन बेटों की याद जो, नहीं पूछते हाल।।

सर नीचा करके खड़ा, कब से बूढा बाप।
कितने दिन किसके रहूँ, निर्णय कर लो आप।।

बूढी आँखे मिच गयी, तकते-तकते द्वार।
मरते ही बेटे घुसे, ले फूलों के हार।।

जिनके बिन घर में रहा, पर्वों पर अन्धकार।
उन बेटों ने कर दिया, मरगत को त्यौहार।।

हम थे भूखे नेह के, करते क्या तकरार।
बूढ़े बरगद सा किया, हमने सबसे प्यार।।

बित्ते भर का आदमी, करता ऊँची बात।
लम्बी चौड़ी फैंकता, बिन देखे औकात।।


चला रही अब सास सा, बहुएं हुक्म हुजूर।
बात-बात पर धमकियां, देती हैं मगरूर।।

मिटी किसी की आरजू, धुले किसी के पाप।
सच्चे मन से जब हुआ, जग में पश्चाताप।।

रंगों के मतलब कई, समझें सिर्फ सुजान।
मूरख को हुड़दंग ही, लगता है पहचान।।

बैठा रहता नाक पर, फड़का देता अंग।
सुजन कभी रखते नहीं, नीच क्रोध को संग।।

नेता अपने ब्यान की, कीमत करे वसूल।
देख नफे नुकसान को, दे बातों को तूल।।

लोकतन्त्र के नाम पर, हावी होती भीड़।
चाहे जिसका नाम ले, चाहे फूंके नीड़।।

वोटों के आगे हुई, सब सरकारें ढेर।
कुत्ते मिलकर मारते, अब भारत में शेर।।

लोमड़ हुए लठैत अब, करते राज कपीश।
घाघ लोमड़ी बाँटती, शेरों को बख्शीश।।

गौरैया आती नहीं, सच मानों इस देश।
आहत मन ये पूछता, ये कैसा सन्देश।।

बात भाव की वो करें, मैं समझूँ ना भाव।
जब मन जुड़ता भाव से, बढ़ता उनका भाव।।

जब भी माँगा मिल गया, मुझे तुम्हारा साथ।
और भला क्या मांगते, रब से मेरे हाथ।।

नफरत अपने मन लिए, फिरते बने पिशाच।
ऐसे नर हर दौर में, करते नंगा नाच।।

खड़े तुम्हारी बाट में, हम भी बने चकोर।
दिल की ऐसी प्यास पर, चलता किसका जोर।।

सत्य कहूँ जग रूठता, झूठ कहूँ भगवान।
दोनों जिसमें खुश रहें, नहीं मिला वो ज्ञान।।

किस्मत नित लिखती रही, दुःखों की तहरीर।
हम विवश पढ़ते रहे, भर आँखों में नीर।।

झूठ बोल चाहूँ नहीं, जग में ऊँचा मान।
बनूँ चितेरी सत्य की, यही कलम की आन।।

न्याय विवश रोता रहा, अपनी बाँह उलीच।
माप तोल होता रहा, दो पलड़ों के बीच।।

चिड़ी चोंच में ले गया, देखो शातिर बाज।
लेकिन कहीं विरोध की, उठी नहीं आवाज।।

उतरी भैंस चुनाव में, बजा रही है बीन।
साँप, नेवले, लोमड़ी, रात करें रंगीन।।

घास फूँस की झोपडी, से वादा हर बार।
महल सरीखा आपका, करना है उद्धार।।

दीन-दुखी की वेदना, जिनका हो श्रृंगार।
कैसा हो परिधान ये, उनको कहाँ विचार।।

मन्दिर बना करोड़ का, लाखों के भगवान।
भक्तों में सिरमौर वो, जिनका भारी दान।।

किसे विलक्षण हम कहें, यश के सभी गुलाम।
सबके मन को खींचते, चमड़ी, दमड़ी, नाम।।

खरा आम की आस पर, कब उतरा है खास।
कोठी के बाहर खड़ा, दीन हीन विश्वास।।

हम थे पागल प्यार में, उनको चढ़ा जुनून।
खून उन्होंने ही किया, हम थे जिनका खून।।

अपने पैरों जो चले, उनके मिले निशान।
जो कन्धों पर गैर के, वो पहुँचे शमशान।।

आशा खत्री 'लता'
2527, सेक्टर -1, रोहतक

Tuesday, June 7, 2016

विवश खड़ा जनतंत्र - डॉ.रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'

किरणों को अब लग गया, बदचलनी का चाव।
तम के सागर में रही, डूब धूप की नाव।।

यमुना तट पर राधिका, रोयी खो मनमीत।
सागर खारा हो गया, पीकर अश्रु पुनीत।।

अँधियारा बुनने लगा, सन्नाटे का सूत।  
भीतर-बाहर नाचते, विकृतियों के भूत।।

मंजि़ल आकर हो गई, खड़ी उसी के पास।
जिसके चरणों ने रखा, चलने का अभ्यास।।

सूरज का रथ पंक में, विवश खड़ा जनतंत्र।
बता रहे हैं विज्ञजन, किरणों का षड्यंत्र।।

सत्ता को कुछ शर्म दे, व्यथित मनुज को हर्ष।
मँहगाई को दे दया, मौला तू इस वर्ष।।

उनके सपनों को मिले, सोने वाला ताज।
किन्तु हमें मिलते रहें, रोटी, चटनी, प्याज।।

बैरिन वंशी बज उठी, चलो रचाने रास।
फागुन दुहराने लगा, कार्तिक का इतिहास।।

उमर निगोड़ी क्या चढ़ी, पवन छेड़ता गात।
सरसों सपने देखती, साजन के दिन-रात।।

जिसने मुझको पा लिया, छोड़ दिया संसार।
क्या अकबर की सीकरी, क्या दिल्ली दरबार।।

-डॉ.रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'

86, तिलक बाईपास रोड़, फीरोजाबाद
9412316779

आया नहीं सुराज - कन्हैयालाल अगवाल 'आदाब'

पाल-पोस स्याना किया, समझा जिसे निवेश।
कागा बनकर उड़ गया, जाने कब परदेश।।

संगम और विछोह दो, प्रीत-प्रेम के अंग।
कांटों और गुलाब का, सदा रहा है संग।।

बरसों से लौटे नहीं, जिनके घर को कंत।
उनको तो सब एक से, सावन, पूस, बसंत।।

हर सपने के साथ है, पहले काली रात।
उसके बिन आता नहीं, कोई नया प्रभात।।

क्या है उसके भाग्य में, नहीं जानता फूल। 
या तो माला में गूँथे, या फिर फाँके धूल।।

नयनों से नयना मिले, नयन हो गए चार। 
क्यों केवल दो नयन पर, आँसू का अधिकार।।

कोई खुल कर के करे, अब किस पर विश्वास।
पासवर्ड जब सत्य का, है झूठों के पास।।

हाँ! स्वराज्य तो आ गया, आया नहीं सुराज।
देख अकेली फाखता, नहीं चूकता बाज।।

व्यर्थ कहावत हो गई, धन है दुख की खान।
अब तो सारे जगत में, केवल अर्थ प्रधान।।

जब शकुन्तला को गहे, बाहों में दुष्यंत। 
गर्मी, वर्षा, शीत सब, उसके लिए बसंत।।

-कन्हैयालाल अगवाल 'आदाब'

89, ग्वालियर रोड़, नौलक्खा, आगरा-282001
9917556752

अन्तस बहुत कुरूप - चक्रधर शुक्ल

कैसे  कैसे लोग हैं, बदलें अपना रूप।  
बाहर दिखते संत हैं, अन्तस बहुत कुरूप।।

वृक्ष काटने में लगे, वन रक्षक श्रीमान।
पर्यावरण बिगाड़ते, टावर लगे मकान।।

गौरैया भी सोचती, कैसे रहे निरोग।    
टावर तो फैला रहे, जाने कितने रोग।।

पीत वसन पहने मिली, सरसों जंगल खेत।
अमलतस के मौन को, क्या समझेगी रेत।।

गौरैया गाती नहीं, चूँ-चूँ करके गीत।
मोबाइल में बज रहा, अब उसका संगीत।।

मटर चना फूले-फले, सरसों गाये गीत।
कानों को अच्छा लगा, फागुन का संगीत।।

जो जितना गुणवान है, वो उतना गम्भीर।
आँखों में उसके दिखे, क्षमा, दया, शुचि, नीर।

पेड़ काटते ही रहे, दागी, तस्कर, चोर।   
घन-अम्बर बरसे नहीं, सूखा राहत जोर।।

-चक्रधर शुक्ल

एल.आई.जी. 01, बर्रा-6,
सिंगल स्टोरी, कानपुर-208027
9455511337