विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, July 6, 2011

दोहे

दोहे

कर्जे में सपने दबे, ग़ुरबत में अरमान.
गंगू फिर भी कह रहा, मेरा देश महान.

जनसेवा के नाम पर, लगे लूटने माल.
राजनीति धंधा हुई, नेता बने दलाल.

बूढी अम्मा मर गयी, कर-कर नित फ़रियाद.
हुआ केस का फैसला, बीस बरस के बाद

राशन मुखिया खा गया, मिटती कैसे भूख.
पेट पीठ से सट गया, हलक गया है सूख.

मतलब की यारी यहाँ, मतलब का है प्यार.
स्वारथ पूरा हो अगर, गला काट दें यार.

साजिश है ये वक़्त की, या केवल संयोग.
नागों से भी हो गए, अधिक विषैले लोग.

पैसा जिसके पास है, ताक़त उसकी दास|
धन के बल पर मापते, बौने भी आकाश||

छीन लिया इस दौर ने, सबके मन का चैन|
केवल धन की चाह में, दौड़ रहे दिन रेन||



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