विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, October 19, 2011

मिलते हैं बाज़ार में, वफ़ा बेचते यार.

रिश्तों को यूँ तोड़ते, जैसे कच्चा सूत. 
बंटवारा माँ-बाप का, करने लगे कपूत.

स्वार्थ की बुनियाद पर, रिश्तों की दीवार. 
कच्चे धागों की तरह, टूट रहे परिवार.

नयी सदी से मिल रही, दर्द भरी सौगात. 
बेटा कहता बाप से, तेरी क्या औकात.

प्रेम भाव सब मिट गया, टूटे रीति-रिवाज.
मोल नहीं सम्बन्ध का, पैसा सिर का ताज. 

भाई-भाई में हुआ, अब कुछ ऐसा वैर.
रिश्ते टूटे खून के, प्यारे लगते गैर.

दगा वक़्त पर दे गए, रिश्ते थे जो खास.
यादव अब कैसे करे, गैरों पर विश्वास. 

अब तो अपना खून भी, करने लगा कमाल.
बोझ समझ माँ-बाप को, घर से रहा निकाल.


अधरों पर कुछ और था, मन में था कुछ और.
मित्रों के व्यवहार ने, दिया हमें झकझोर. 

अपनी ख्वाहिश भी यही, मिले किसी का प्यार.
हमने देखा हर जगह, रिश्तों में व्यापार.

झूठी थी कसमें सभी, झूठा था इकरार.
वो हमको छलता रहा, हम समझे है प्यार. 

साथ हमारा ताज गए, मन के थे जो मीत.
अब यादव कैसे लिखे, मधुर प्रेम के गीत.

माँ की ममता बिक रही, बिके पिता का प्यार.
मिलते हैं बाज़ार में, वफ़ा बेचते यार.

पानी आँखों का मरा, मरी शर्म औ लाज.
कहे बहू अब सास से, घर में मेरा राज. 

प्रेम, आस्था, त्याग अब, बीत युग की बात.
बच्चे भी करने लगे, मात-पिता से घात. 

भाई भी करता नहीं, भाई पर विश्वास.
बहन पराई हो गयी, साली खासमखास. 

जीवन सस्ता हो गया, बढे धरा के दाम.
इंच-इंच पर हो रहा, भ्रातों में संग्राम.

वफ़ा रही ना हीर सी, ना रांझे सी प्रीत.
लूटन को घर यार का, बनते हैं अब मीत.

तार-तार रिश्ते हुए, ऐसा बढ़ा जनून.
सरे आम होने लगा, मानवता का खून.
-रघुविन्द्र यादव 

1 comment:

  1. "अब तो अपना खून भी, करने लगा कमाल.
    बोझ समझ माँ-बाप को, घर से रहा निकाल."

    सभी दोहे बहुत सुन्दर हैं . इन्हें बार -बार पढ़ने का मन करता है .
    - शून्य आकांक्षी

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