विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Friday, November 4, 2011

कुछ नए कुछ पुराने दोहे

राजनीति तुझको लगी, जाने किसकी हाय।
तेरा जो साथी बने, महाभ्रष्ट हो जाय॥

धर्मराज भी हो गए, अधर्म के पयार्य।
बिलख-बिलख कर द्रौपदी, किस से माँगे न्याय॥

धूर्तता दुशासन की, कुंती का आशीष।
लूटी किसने द्रौपदी, न्याय करो जगदीश॥

कुछ मंदिर के पक्ष में, कुछ मस्जिद के पक्ष।
दिखता किसको है यहाँ, माँ का घायल वक्ष॥

रिश्तों में जब-जब पड़ी, नफरत भरी दरार।
आँगन में तब-तब उगी, एक नई दीवार॥

धर्म कमाने चल दिए, झण्डा ले श्रीमान्‌।
भूख-प्यास से बाप के, तन से निकले प्राण॥

नारी पर होने लगे, पग-पग अत्याचार।
'सेफ' नहीं अब कोख में, दुर्गा की अवतार॥

कंचन काया कामिनी, कर कपट दिन-रात ।
दिल आशिक को सौंप कर, पति को सौंपे गात॥

भूल करी थी कंस ने, कन्या दी थी मार।
केशव ने उस दुष्ट को दिया मौत उपहार॥

कन्या की हत्या करे, कहलाये वो कंस ।
बेटी को मत मारना, मिट जाएगा वंश॥

बाधाओं पर मिल गई, बेशक तुम को जीत।
अभी मंजिलें शेष हैं, ठहर न जाना मीत॥

रखती है बेटी सदा, मात-पिता का ख्याल ।
फिर भी कहते आप क्यूँ, बेटे को ही लाल॥

भू से नभ तक कर रही, बेटी आज कमाल।
फिर भी उसके जन्म पर, करते लोग मलाल॥

अमृत पीकर भी लगे, धनवानों को रोग।
विष पीकर जिंदा रहे, सीधे सच्चे लोग॥

तब तक मैं बेफ़ौफ था, थे जब तक तुम साथ।
तात आपकी मौत ने, मुझको किया अनाथ॥

बेशक मैं हर दिन मरा, जिन्दा रहे उसूल।
जीना बिना उसूल के, मुझको लगे फिज़ूल॥

जीवन भर जिसने किया, अंतहीन संघर्ष।
मिला उसी को एक दिन, जीवन का उत्कर्ष ॥

साँपनाथ इस ओर हैं, नागनाथ उस ओर।
वोटर की उलझन यही, वह जाये किस ओर॥

जनता के दुख-दर्द का, जिसे नहीं अहसास।
कैसे उस सरकार पर, लोग करें विश्र्वास॥

बेटों से मैं कम नहीं, अजमाना सौ बार।
पहले मुझको दीजिए, जीने का अधिकार॥

कहीं उगे हैं .कैक्टस, कांटे, कहीं बबूल।
दौर गिरावट का चला, मरने लगे उसूल॥

लोकतंत्र दिखला रहा, नये निराले खेल।
राजतिलक अपराध का, सज्जनता को जेल॥

गंदा कह मत छोडि़ए, राजनीति को मीत।
बिना लड़े होती नहीं, अच्छाई की जीत॥

लगे आप जो भागने, कौन लड़ेगा यार।
सज्जन जब होंगे खड़े, तब होगा उद्दार॥

बहुत दिनों तक जी लिए, शीश झुका कर यार।
अब तो सच का साथ दो, बन जाओ खुद्दार॥

दाताकी कृपा रही, मुझ पर सदा अपार।
इसीलिए मैं पा सका , बाधाओं पर पार॥

पेट पीठ से सट गया, हलक गया है सूख।
राशन मुखिया खा गया, मिटती कैसे भूख॥

होती हैं जिस देश में, नौकरियां नीलाम।
रिश्र्वत बिन कैसे वहाँ, होगा कोई काम ॥

आनी-जानी चीज है, दौलत तो श्रीमान।
चोटी चढ़ते ही सदा, आती नयी ढलान॥

लोकतंत्र में लोक ही, होता है सिरमौर।
लेकिन अपने देश में, नहीं लोक को ठौर॥

चंद घरानों के लिए, भारत है आजाद।
हिस्से शेष अवाम के, आँसू औ फरियाद॥

वतन हुआ आजाद है, फिर भी लोग गुलाम।
पुलिस अभी तक कर रही, उत्पीडऩ का काम॥

भूमि छीन किसानो से, बाँट रही सरकार ।
देती कुचल विरोध को, लाठी गोली मार॥

रहबर जिनको चुन लिया, वही कर रहे घात।
कैसे कटे अवाम के, दुख की काली रात॥

छल, बल, धोखा, लूट अब नेता की औकात ।
प्यादे भी उनके करें, राहजनी की बात॥

जोड़-जोड़ धन मर गये, लाखों लाख अमीर।
ढाई आखर प्रेम लिख, जिन्दा आज कबीर॥

दौलत उसके पास है, मेरे पास ज़मीर।
वक़त करेगा फैसला, असली कौन अमीर॥

रहा सत्य के साथ वो, जिस के पास ज़मीर।
या तो अब हम हैं खड़े, या थे संत कबीर ॥

उसके हित बनते रहे, आये साल विधान।
भूख, गरीबी, क़र्ज़ से, मरते रहे किसान ॥
-रघुविन्द्र यादव



1 comment:

  1. सभी दोहे कथ्य और शिल्प की द्रष्टि से बेजोड़ हैं. निम्न दोहों की बुनावट तो देखते ही बनती है :
    "कुछ मंदिर के पक्ष में, कुछ मस्जिद के पक्ष।
    दिखता किसको है यहाँ, माँ का घायल वक्ष॥
    जोड़-जोड़ धन मर गये, लाखों लाख अमीर।
    ढाई आखर प्रेम लिख, जिन्दा आज कबीर॥"
    - शून्य आकांक्षी

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