विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, November 5, 2011

मिले-जुले दोहे

भड़के कैसे देश में, इन्कलाब की आग.
कविवर तो गाने लगे, अब दरबारी राग.

मिला नहीं जब बाप की, कफ़न मौत के बाद.
बेटे ने ली गन उठा, करने को प्रतिवाद.

शीश कटे जो सत्य पर, मुझको नहीं मलाल.
दया, धरम ईमान की, जलती रहे मसाल.

पीट रहे हैं लीक को, सदियों से नादान.
कंकर गिन-गिन मारते, पर जिन्दा शैतान.

प्यार, वफ़ा के नाम पर, हवस रही है खेल.
मासूका के ब्यान पर, दिलबर काटें जेल.

रहमत दाता की हुयी, बिना किये फ़रियाद.
हुआ और मजबूत मैं, हर संकट के बाद.

लोकतंत्र के नाम पर, राजतन्त्र का खेल.
दिन-दिन बढती जा रही, वंशवाद क बेल.

जनसेवा के मिशन का, राजनीति था नाम.
लूट-झूठ के खेल का, राजनीति अब नाम.

दंगा, बलवा, लूट के, नेता सूत्रधार.
राजनीति दागी हुई, लोकतंत्र बीमार.

जाता है कट शीश भी, है मुझको ये ज्ञात.
फिर भी मैं कहता सदा, केवल सच्ची बात.

दिल्ली के दरबार में, भ्रष्टजनों की भीड़.
जनता को मिलते नहीं, रोटी, कपड़ा, नीड़.

अरी सियासत है तुझे, लाख-लाख धिक्कार.
तूने खोये देश से, लाज, शर्म, संस्कार.

जाने दाता ने लिखा, कैसा अजब नसीब.
साथी समझा था जिसे, निकला वही रकीब.

सारे दल दलदल हुए, कोई पाक न साफ़.
दिन-दिन बढ़ता जा रहा, अपराधों का ग्राफ.

वो कुर्सी पर बैठकर, करते अत्याचार.
जनता फिर भी कर रही, उनकी जय-जयकार|

-रघुविन्द्र यादव .


  

1 comment:

  1. आपने बड़ी सरलता और सहजता से सच्ची और साहसिक बातें की हैं :
    "जाता है कट शीश भी, है मुझको ये ज्ञात.
    फिर भी मैं कहता सदा, केवल सच्ची बात.
    दिल्ली के दरबार में, भ्रष्टजनों की भीड़.
    जनता को मिलते नहीं, रोटी, कपड़ा, नीड़.
    वो कुर्सी पर बैठकर, करते अत्याचार.
    जनता फिर भी कर रही, उनकी जय-जयकार."

    - शून्य आकांक्षी

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