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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, October 10, 2015

दोहे- शालिनी रस्तौगी

व्याकुलता हिय की सखी, दिखा रहे हैं नैन|
प्रियतम नहीं समीप जब, आवे कैसे चैन||

मात पिता दोनों चले, सुबह छोड़ घर द्वार |
बालक नौकर पालते, सीखे क्या संस्कार ||

इज्ज़त पर हमला कहीं, कहीं कोख में वार |
मत आना तू लाडली, लोग यहाँ खूंखार ||

बन कर शिक्षा रह गई, आज एक व्यापार |
बच्चे ग्राहक  हैं यहाँ, विद्यालय बाज़ार ||

इधर बरसते मेघ तो, उधर बरसते नैन |
इस जल बुझती प्यास औ, उस जल जलता चैन ||

सावन आया सज गई, झूलों से कुछ डाल|
पिया गए परदेस को, गोरी है बेहाल ||

नाजुक-सी इस जीभ में, ग़र आ जाए खोट |
यही तेज़ तलवार सी, करे मर्म पर चोट ||
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जिसने अपने खून से, दिए देह औ' प्रान |
वो माँ यूँ घर में पड़ी, ज्यों टूटा सामान ||

निभा सकें कर्त्तव्य भी, ज्यों पाते अधिकार |
हो स्वतंत्रता का तभी, स्वप्न पूर्ण साकार ||

धर नारी की पीठ पे, संस्कारों का भार |
मुक्त हुआ फिरता पुरुष, मर्यादा कर पार ||

ऊपर बातें त्याग की, मन में इनके खोट |
दुनिया को उपदेश दें, आप कमाएँ नोट ||

कर्म देख इंसान के, सोच रहा हैवान|
काहे को इंसानियत, खुद पे करे गुमान ||

अपनी संस्कृति सभ्यता, लोग रहे हैं छोड़ |
हर कोई है कर रहा, अब पश्चिम की होड़ ||

नैनन से नैना लड़ें, नैन हुए मिल चार |
नैनों के इस खेल में, दिल बैठा खुद हार ||

एक कोख के थे जने, पले बढ़े भी साथ|
दुश्मन बन अब हैं खड़े, माँ के दोनों हाथ ||

- शालिनी रस्तौगी

गुडगाँव

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