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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, March 12, 2016

बेगराज कलवांसिया के दोहे

चमचों का होता रहा, सदियों से सम्मान।
दबी नींव की ईंट पर, नही किसी का ध्यान।।

मुकिश्ल में हर आदमी, जाए किसके पास।
सपना बनकर रह गई, अच्छे दिन की आस।।

पैसे लेकर बेचते, अपना पावन वोट।
वही निकालें बाद में, लोकतंत्र में खोट।।

बिना गरज संसार में, कौन पकड़ता हाथ।
सूखे पेड़ों का सदा, पात छोड़ते साथ।। 

बाबाओं के ढोंग से, देश हुआ बदनाम।
संतों के छल भेष में, बैठे हैं शैतान।।

बार-बार होने लगे, निर्मम नरसंहार।
खूनी होली खेलते, आतंकी हर बार।।

शीतलहर के कहर से, लगा ठिठुरने गात।
दिन कटना मुश्किल हुआ, लम्बी लगती रात।।

पढ़े लिखे इन्सान भी, करते औछी बात।
परिचय में भी पूछते, दीन, धर्म औ जात।।

चिंता में डूबे पड़े, छोटे-बड़े किसान।
मंडी में बिकता नहीं, सोने जैसा धान।। 

-बेगराज कलवांसिया, ढूकड़ा 


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