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Sunday, June 5, 2016

जीवन का भूगोल - म.ना.नरहरि

राशन, कपड़े, पुस्तकें, चुभते गहरे डंक।   
बार-बार वेतन गिना, बढ़ा न फिर भी अंक।।
सब$क दिया जब यार ने, खुद हो गई तमीज़।
अपनी कहकर ले गया, मेरी नई कमीज़।।
राजपथों पर खो गया, जीवन का भूगोल।
खा$का सब पूरा हुआ, खास बात है गोल।।
साँस हुई शतरंज सी, कभी शह कभी मात। 
रोज बदलती रंग है, मुसीबतों की रात।।
दफ़्तर में कलमें बिकें, भाव बहुत है तेज़।    
हर फाइल है रेंगती, मेज़-मेज़ दर मेज़।।
हस्ताक्षर बेचा नहीं, ऊँचा रहा मिज़ाज।   
गाँव लौटना तय हुआ, परसों कल या आज।।
आँखों से आँखें मिला, मुझे पुकारा मीर। 
आँख झुका मैंने कहा, कहिये मुझे कबीर।।
बरगद बाबा मौन हैं, पवन हुई नाराज़।  
परत-परत हो खुल गई, संबंधों की प्याज़।।
झर-झर झरती रात से, दुखी नगर का भोर।
रस्ते बागी हो गए, सडक़ें गोता $खोर।।
दम्पति में हलचल हुई, बिखरा सब घर-बार।
चीखें सब सुनती रहीं, कान जड़ी दीवार।।

-म.ना.नरहरि

आकिॢड-एच, वैली ऑफ क्लावर्स
ठाकुर विलेज, कांदिवली (पूर्वी), मुंबई-400101     

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