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Monday, September 9, 2019

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे
कुछ दिन दुख के आ गये, क्यों करता है खेद।
कौन पराया, कौन निज, खुल जायेगा भेद।।
2
हम दोनों के बीच में, क्या उपमा, उपमान।
तुम मधु ऋतु की वाटिका, मैं मरु का उद्यान।।
3
मन में सौ डर पालकर, किसको मिलती जीत।
शिखरों तक वे ही गये, जो न हुए भयभीत।।
4
चाहे सब अनुकूल हो, चाहे हो प्रतिकूल।
जीवन के हर मोड़ पर, रखना साथ उसूल।।
5
उसका सरल स्वभाव है, लोग कहें मतिमंद।
इस कारण वह आजकल, सीख रहा छलछंद।।
6
अधरों पर मुस्कान है, मन में गहरी पीर।
होठों पर ताला जड़े, रिश्तों की जंजीर।।
7
खुद ही विष विपणन करे, खुद ढूँढ़े उपचार।
नई सदी की सोच में, जीवन है बाज़ार।।
8
कीमत नहीं मनुष्य की, मूल्यवान गुण बोल।
दो कौड़ी की सीप है, मोती है अनमोल।।
9
कौन महत्तम, कौन लघु, सबका अपना सत्व।
सदा जरूरत के समय, जाना गया महत्त्व।।
10
जीवन के इस गाँव में, ठीक नहीं आसार।
मुखिया के संग हर घड़ी, गुंडे हैं दो चार।।
11
बहुत अधिक बदली नहीं,नारी की तस्वीर।
उसके हिस्से आज भी, आँसू आहें पीर।।
12
बतरस हुआ अतीत अब, हास हुआ इतिहास।
यह नवयुग की सभ्यता, तकनीकों की दास।।
13
गायब है वह बतकही, वह आँगन की धूप।
नई सदी की जि़न्दगी, बदल चुकी है रूप।।
14
दर्पण जैसा ही रहा, इस जग का व्यवहार।
जो बाँटे जिस भाव को, पाये बारम्बार।।
15
नयी पीढिय़ों के लिए, जो बन जाते खाद।
युगों-युगों तक सभ्यता, रखती उनको याद।।
16
मृग मरीचिका दे सकी, जग को तपती रेत।
जीवन के संदर्भ हैं, फसलों वाले खेत।।
17
सब अपने दुख से दुखी, सब ही दिखे अधीर।
कौन सुने किससे कहें, अपने मन की पीर।।
18
मॉल खड़ा है गर्व से, लेकर बहुविधि माल।
स्वागत पाता, जो वहाँ, सिक्के रहा उछाल।।
19
रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुख, छाया-धूप।
यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप।।
20
इतनी सारी उलझनें, जीवन है जंजाल।
उगते खरपतवार से, हर दिन नये सवाल।।
21
दुनिया में मिलता नहीं, कुछ भी बिना प्रयत्न।
गहरे सागर में छिपे, मोती, मणि,नग, रत्न।।
22
जो समर्थ उनके लिए, अगम कौन-सी बात।
खारे सागर से करे, सूरज मृदु बरसात।।
23
जीवन के बाज़ार में, गिरे अचानक भाव।
रिश्तों की चौपाल पर, ठंडे पड़े अलाव।।
24
भौतिकवादी सभ्यता, बाँट रही अवसाद।
रिश्तों की वह मधुरता, किसे रही अब याद।।
25
संसाधन की होड़ को, कैसे कहें विकास।
मिलता नैतिक मूल्य को, हर दिन ही वनवास।।
26
जीवन से गायब हुआ, अब निश्छल अनुराग।
झाड़ी उगीं विषाद की, सूखे सुख के बाग।।
27
जब से सीमित हो गए, खुद तक सभी विकल्प।
जीवन से गायब हुए, सुखपूरित संकल्प।।
28












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