विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, October 14, 2023

दोहा छंद की प्रासंगिकता

दोहा सदाबहार छंद 

दोहा भारतीय सनातनी छंदों में से एक हैं, जो सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा या समकालीन दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

        अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।

        तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।

दोहा की मारक क्षमता और अर्थ सम्प्रेषण की सटीकता के कारण यह सदाबहार छंद बना हुआ है| समय के साथ इसके कथ्य में परिवर्तन अवश्य होता रहा है, किन्तु इसके शिल्प में कोई बदलाव नहीं हुआ| दोहे की प्रभावी सम्प्रेषण क्षमता आज भी बरक़रार है| यह केवल मिथक है कि ग़ज़ल के शे’र जैसा प्रभाव किसी अन्य छंद में नहीं है| सच तो यह है कि यह रचनाकार की प्रतिभा और कौशल पर निर्भर करता है कि वह किस छंद में कितनी गहरी बात कह सकता है| समर्थ दोहाकार दोहे के चार चरणों अर्थात दो पंक्तियों में जो कह सकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है| यहाँ कवि चंदबरदाई के दोहे का उल्लेख करना समीचीन होगा-

    चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान|

    ता ऊपर सुल्तान है, मत चूक्कै चौहान||

मात्र 48 मात्राओं में कवि ने अपने सम्राट मित्र पृथ्वीराज चौहान को न केवल सुल्तान की सही स्थिति (लोकेशन) बता दी, बल्कि अवसर नहीं चूकने का सन्देश भी दे दिया| इतना सटीक और प्रभावी सम्प्रेषण केवल दोहा जैसे छंद में ही संभव है| इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब एक दोहा ने पासा पलट दिया| कवि बिहारी का राजा जयसिंह को सुनाया गया यह दोहा भी इसी श्रेणी का है-

    ‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल|

    अली कली में ही बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल||

      दोहा अपनी अनेक खूबियों के कारण सदियों से लोगों के मन मस्तिष्क में रचा बसा है| यह कभी सूफिओं और फकीरों का सन्देश वाहक बन जाता है तो कभी दरबारों की शोभा बन जाता है| कभी प्रेमी-प्रेमिका के बीच सेतु बन जाता है तो कभी जन-सामान्य की आवाज़-

    दोहा दरबारी बना, दोहा बना फ़कीर|

    नये दौर में कह रहा, दोहा जीवन पीर||/रघुविन्द्र यादव 

दोहे का कथ्य चाहे जो रहा हो यह हर दौर में महत्वपूर्ण रहा है, दोहा आज भी लोकप्रियता के शिखर पर है| मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि दोहा लघुता में महत्ता समाये हुए है| दोहा भविष्य में भी सामर्थ्यवान कवियों का चहेता रहेगा ऐसी आशा और विश्वास है|

                                                            -रघुविन्द्र यादव


Sunday, October 11, 2020

हरियाणा में रचित दोहा और हरियाणा के दोहाकार


हरियाणा में रचित दोहा साहित्य 

हरियाणा के दोहाकार और उनके दोहा संग्रह 

हरियाणा का प्रथम दोहा संग्रह

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित और लोकप्रिय रहा है| संस्कृत में इसे ‘दोग्धक’ कहा जाता था| जिसका अर्थ है- जो श्रोता या पाठक के मन का दोहन करे| इसे दोहक, दूहा, दोहरा, दोहड़ा, दोहयं, दोहउ, दुवह और दोहअ भी कहा जाता रहा है, लेकिन अब यह दोहा के नाम से ही लोकप्रिय है|

वह लयात्मक काव्य रचना जो 13-11, 13-11 के क्रम में दो पंक्तियों और चार चरणों में कुल 48 मात्राओं के योग से बनी हो, जिसके प्रथम और तृतीय चरणों का अंत लघु-गुरु से तथा दूसरे और चैथे चरणों का अंत गुरु-लघु से होता हो और जो पाठक या श्रोता के मन मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ सके, दोहा कहलाती है।

मात्राओं के अलावा दोहे का कथ्य और भाषा भी समकालीन और प्रभावशाली हो| किसी भी चरण का आरम्भ पचकल और जगण शब्द से न हो| यदि कोई रचना ये शर्तें पूरी करती है तभी उसे ‘मानक दोहा’ माना जाता है|

दोहा छ्न्द सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।
तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।1

    नया दोहा को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ नवगीतकार और दोहाकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी के अनुसार “नयी कहानी, नयी कविता, नयी समीक्षा की भांति गीत भी नवगीत के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब हुआ तो ग़ज़ल भी नयी ग़ज़ल हो गई और दोहा भी नये दोहे के रूप में जाना जाने लगा।”2

    विभिन्न विद्वानों ने समकालीन दोहा को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है| प्रोफेसर देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ दोहे की विशेषता कुछ यूँ बताते हैं- “दोहा छंद की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त और निर्दोष हो| कथ्य सपाट बयानी से मुक्त हो| भाषा चित्रमयी और संगीतात्मक हो बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में हो| दोहे का कथ्य समकालीन और आधुनिक बोध से सम्पन्न हो| उपदेशात्मक नीरसता और नारेबाजी की फूहड़ता से मुक्त हो|”3

    डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ दोहे की आत्मकथा में लिखते हैं- “भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण, और रस मेरी आत्मा है| कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है| प्रथम और तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं|”4

    श्री जय चक्रवर्ती समकालीन दोहे को परिभाषित करते हुए कहते हैं- “समकालीन दोहे का वैशिष्टय यह है कि इसमें हमारे समय की परिस्थितियों, जीवन संघर्षों, विसंगतियों, दुखों, अभावों और उनसे उपजी आम आदमी की पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ के सशक्त स्वर की उपस्थिति प्रदर्शित होने के साथ-साथ मुक्ति के मार्ग की संभावनाएं भी दिखाई दें|”5

    श्री हरेराम समीप परम्परागत और आधुनिक दोहे का भेद स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक रूप से बदला है| अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आम-जन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, पीड़ित है, शोषित है और संघर्षरत है| इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज़ में तीव्र और आक्रामक तेवर लिए हुए हैं| अत: जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है| इसमें आस्वाद का अन्तर प्रमुखता से उभरा है| इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है|”6

    डॉ.राधेश्याम शुक्ल के अनुसार, “आज के दोहे पुरानी पीढ़ी से कई संदर्भों, अर्थों आदि में विशिष्ट हैं| इनमे भक्तिकालीन उपदेश, पारम्परिक रूढ़ियाँ और नैतिक शिक्षाएँ नहीं हैं, न ही रीतिकाल की तरह श्रृंगार| अभिधा से तो ये बहुत परहेज करते हैं| ये दोहे तो अपने समय की तकरीर हैं| युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों और परिस्थितियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है|”7

    समकालीन दोहा देश-विदेश के साथ-साथ हरियाणा में भी बड़े पैमाने पर लिखा जा रहा है| असल में हरियाणा की दोहा यात्रा भी लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी आधुनिक दोहा या नया दोहा की| प्रोफ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने जब सप्तपदी श्रृंखला का सम्पादन किया तो उसमें हरियाणा के श्री पाल भसीन, श्री कुमार रविन्द्र और डॉ. राधेश्याम शुक्ल जैसे कई कवियों के दोहे भी संकलित हुए| बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हरियाणा के दोहकारों के एकल संग्रह भी प्रकशित होने शुरू हो गए थे| सबसे पहले पाल भसीन का ‘अमलतास की छाँव’ 1994 में प्रकाशित हुआ, इसके बाद सारस्वत मोहन मनीषी का ‘मनीषी सतसई’ 1996, रक्षा शर्मा ‘कमल’ का ‘दोहा सतसई’ 1998 और ‘रक्षा-दोहा-कोश’ 1999 में प्रकशित हुआ| रामनिवास मानव का बोलो मेरे राम 1999 में, हरेराम समीप का ‘जैसे’ और अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम, नेताओं के नाम’ 2000 में प्रकाशित हो चुके थे|

    इक्कीसवीं सदी के आते-आते दोहा काफी लोकप्रिय हो चुका था और पिछले दो दशक में बड़ी संख्या में दोहे रचे गए हैं| अब तक हरियाणा में लगभग चार दर्जन दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें पाल भसीन के ‘अमलतास की छाँव’ और ‘जोग लिखी’, सारस्वत मोहन ‘मनीषी’ के ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’, रक्षा शर्मा ‘कमल’ के ‘दोहा सतसई’ और ‘रक्षा दोहा-कोश’, रामनिवास मानव के ‘बोलो मेरे राम’ और ‘सहमी-सहमी आग’, हरेराम समीप के ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’, अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम-नेताओं के नाम’, योगेन्द्र मौदगिल का ‘देश का क्या होगा’, नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ का ‘विवेक-दोहावली’, महेंद्र शर्मा ‘सूर्य’ का ‘संस्कृति सूर्य-सतसई’, उदयभानु हंस का ‘दोहा-सप्तशती’, मेजर शक्तिराज शर्मा का ‘शक्ति सतसई’, सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ के ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’, हरिसिंह शास्त्री का ‘हरि-सतसई’, रामनिवास बंसल का ‘शिक्षक दोहावली’, ए.बी. भारती का ‘प्रारम्भ दोहावली’, गुलशन मदान का ‘लाख टके की बात’, घमंडीलाल अग्रवाल का ‘चुप्पी की पाजेब’, राधेश्याम शुक्ल का ‘दरपन वक़्त के’, रोहित यादव के ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ रघुविन्द्र यादव के ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’, प्रद्युम्न भल्ला का ‘उमड़ा सागर प्रेम का’, कृष्णलता यादव का ‘मन में खिला वसंत’, पी.डी. निर्मल का ‘निर्मल सतसई’, आशा खत्री का ‘लहरों का आलाप’, महेंद्र जैन का ‘आएगा मधुमास’, सत्यवीर नाहडिया का ‘रचा नया इतिहास’, मास्टर रामअवतार का ‘अवतार दोहावली’, नन्दलाल नियारा का ‘नियारा परिदर्शन’, राजपाल सिंह गुलिया का ‘उठने लगे सवाल’, ज्ञान प्रकाश पीयूष का ‘पीयूष सतसई’, डॉ.बलदेव वंशी का ‘दुख का नाम कबीर’, शारदा मित्तल का ‘मनुआ भयो फ़कीर’, अमर साहनी का ‘दूसरा कबीर’, सुशीला शिवराण का ‘देह जुलाहा हो गई’, उषा सेठी का ‘मरिहि मृगी हर बार’ प्रवीण पारीक 'अंशु' का सन्नाटे का शोर आदि शामिल हैं|

    हरियाणा में ऐसे बहुत से दोहाकार हैं जिनके संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं, लेकिन उनके दोहे पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित होते रहे हैं| इनमें कुमार रविन्द्र, दरवेश भारती, गिरिराजशरण अग्रवाल, सत्यवीर मानव, रमाकांत शर्मा, सत्यवान सौरभ, बेगराज कलवांसिया, विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’, नीरज शर्मा, रमेश सिद्धार्थ, अनुपिन्द्र सिंह ‘अनूप’, आशुतोष गर्ग, शील कौशिक, अंजू दुआ जैमिनी, आचार्य प्रकाशचन्द्र फुलेरिया, स्वदेश चरौरा, कपूर चतुरपाठी, प्रदीप पराग, रमन शर्मा आदि शामिल हैं|

    नए-पुराने कुछ और लोग भी दोहा छंद की साधना में लगे हुए हैं, जिनमें मदनलाल वर्मा, पुरुषोत्तम पुष्प, कमला देवी, सुरेश मक्कड़, लोक सेतिया, देवकीनंदन सैनी, अजय अज्ञात, सत्यप्रकाश ‘स्वतंत्र’, संजय तन्हा, बाबूलाल तोंदवाल, शिवदत्त शर्मा, श्रीभगवान बव्वा, सुरेखा यादव, राममेहर ‘कमेरा’ सतीश कुमार और अंजलि सिफर आदि शामिल हैं|

    उपरोक्त संग्रहों के अलावा हरियाणा से प्रकाशित होने वाली विभिन्न पत्रिकाओं यथा- हरिगंधा, बाबूजी का भारतमित्र, शोध दिशा आदि ने दोहा विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं|

    हरियाणा से ही कुछ साझा दोहा संकलनों का भी प्रकाशन हुआ है| जिनमें आधी आबादी के दोहे, आधुनिक दोहा, दोहे मेरी पसंद के और दोहों में नारी (सभी के संपादक रघुविन्द्र यादव), समकालीन दोहा कोश (हरेराम समीप) प्रमुख हैं|

    हिंदी दोहा के अलावा हरियाणा में हरियाणवी बोली में भी दोहे रचे जा रहे हैं और अब तक आधा दर्जन से अधिक दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें लक्ष्मण सिंह का हरयाणवी दोहा-सतसई, रामकुमार आत्रेय का सच्चाई कड़वी घणी, श्याम सखा श्याम का औरत बेद पांचमा, हरिकृष्ण द्विवेदी के बोल बखत के, मसाल और पनघट, सारस्वत मोहन मनीषी के मरजीवन सतसई और सरजीवन सतसई, सत्यवीर नाहडिया के गाऊं गोबिंद गीत और बखत-बखत की बात शामिल हैं| संभव है कुछ और दोहाकार भी हरियाणवी दोहे लिख रहे हों, लेकिन अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं|

    हरियाणा में समकालीन दोहा का बिरवा रोपने और उसे पल्लवित-पोषित करने में निसंदेह पाल भसीन, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, सारस्वत मोहन मनीषी, हरेराम समीप, उदयभानु हंस आदि का योगदान रहा है| किन्तु दोहे को लोकप्रियता के शिखर पर ले जाने का श्रेय रघुविन्द्र यादव और हरेराम समीप को जाता है| जहाँ श्री समीप के खुद के चार दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, वहीं उन्होंने ‘समकालीन दोहा कोश’ का सम्पादन कर ऐतिहासिक कार्य किया है| वहीं रघुविन्द्र यादव के तीन दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, उन्होंने छह दोहा संकलनों का सम्पादन किया है| साथ ही पत्रिका के दो दोहा विशेषांक प्रकाशित किये हैं| उनके कुछ दोहों के विडियो पूरे सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं| सुपरटोन डिजिटल द्वारा रिकॉर्ड किया गया उनके दोहों का एक विडियो तो अब तक दो करोड़ से अधिक बार देखा जा चुका है| जो संत कबीर के दोहों के बाद सर्वाधिक देखा जाने वाला विडियो बन चुका है|

    श्री पाल भसीन हरियाणा के पहली पीढ़ी के समकालीन दोहाकार हैं| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से आपके दोहे उत्कृष्ट हैं| उनके संग्रह ‘अमलतास की छाँव’ से बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

धूल-धूल हर स्वप्न है, शूल-शूल हर राह|
धुआँ-धुआँ हर श्वास है, चुका-चुका उत्साह||

कलियाँ चुनता रह गया, गुँथी नहीं जयमाल|
झुका पराजय बोझ से, यह गर्वोन्नत भाल||

कर हस्ताक्षर धूप के, खिला गुलाबी रूप|
चले किरण दल पाटने, अन्धकार के कूप||

    डॉ. राधेश्याम शुक्ल सप्तपदी में शामिल प्रमुख दोहकारों में से एक हैं| उनके संग्रह ‘दरपन वक़्त के’ में पारिवारिक रिश्तों, परदेसी की पीड़ा, ग्राम्यबोध, स्त्री विमर्श जैसे अनछुए किन्तु महत्त्वपूर्ण विषयों पर दोहे शामिल हैं| जैसे-

बेटी मैना दूर की, चहके करे निहाल|
वक़्त हुआ तो उड़ चली, तज पीहर की डाल||

प्रत्यय है, उपसर्ग है, औरत संधि, समास|
है जीवन का व्याकरण, सरल वाक्य विन्यास||

छोटी करके थक गए, ज्ञानी संत फ़कीर|
बनी हुई है आज भी, औरत बड़ी लकीर||

     श्री हरेराम समीप जन सरोकार के कवि हैं| उनके दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का खुलासा करते हैं। उनके दोहा संग्रह ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’ से कुछ दोहे-

एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|  
यहाँ मदारी हाँक ले, बंदर कई करोड़||

पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ|
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ||

अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख|
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख||

फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस|
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास||

    डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी भी समकालीन दोहा के साथ-साथ हरियाणवी दोहा के सशक्त हस्ताक्षर हैं| आपने न केवल हिंदी बल्कि हरियाणवी में भी साधिकार दोहे लिखे हैं। ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’ से बानगी के दोहे-

राजनीति के आजकल, ऐसे हैं हालात|
गणिका जैसा आचरण, संतों जैसी बात||

सिंहासन का सत्य से, नाता दूर-सुदूर|
विधवाओं की माँग में, कब मिलता सिन्दूर||

    प्रख्यात बाल साहित्यकार श्री घमंडीलाल अग्रवाल ने भी दोहा साहित्य को समृद्ध किया है| ‘चुप्पी की पाजेब’ से कुछ दोहे-

कई मुखौटे एक मुख, दुर्लभ है पहचान|
इंसानों के वेश में, घूम रहे शैतान||

कहा पेट ने पीठ से, खुलकर बारम्बार|
तेरे मेरे बीच में, रोटी की दीवार||

निशिगंधा यह देख कर, हुई शर्म से लाल|
भीड़ उन्हीं के साथ थी, जिनके हाथ मसाल||

    हरियाणा से राज्यकवि रहे स्व. उदयभानू हंस यूँ तो रुबाई सम्राट के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन वे अच्छे दोहाकार भी थे| ‘दोहा-सप्तशती’ से दो दोहे-

बीत चुके पचपन बरस, हुआ देश आज़ाद|
कौन राष्ट्रभाषा बने, सुलझा नहीं विवाद||

मैं दुनिया में हो गया, एक फालतू चीज|
जैसे खूँटी पर टँगी, कोई फटी क़मीज||

    श्री रघुविन्द्र यादव के दोहे अनुभूति की कसौटी पर बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ सम्प्रेषण करने वाले कहे जा सकते हैं| सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है| ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’ से कुछ दोहे-

कहाँ रहेंगी मछलियाँ, सबसे बड़ा सवाल|
कब्ज़े में सब कर लिए, घडियालों ने ताल||

गंगू पूछे भोज से, यह कैसा इन्साफ?
कुर्की मेरे खेत की, क़र्ज़ सेठ का माफ़||

अपने भाई हैं नहीं, अब उनको स्वीकार|
चूहे चुनना चाहते, बिल्ली को सरदार||

गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल।
आँगन में उगने लगे नागफनी के फूल।।

साधारण से लोग भी, रचते हैं इतिहास।
सीना चीर पहाड़ का, उग आती ज्यों घास।।

     स्व. सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ ने विविध विषयों पर दोहे रचे हैं, जो ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’ मे प्रकाशित हुये हैं-

हीरे का तो मोल है, ज्ञान सदा अनमोल|
अन्तर मन के भाव को, मत पत्थर से तोल||

उजियारे में बैठकर, करता काले काम|
‘भारत’ से अंधा भला, जपे राम का नाम||

    लोक साहित्यकार रोहित यादव ने दोहे भी लिखे हैं| ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ से दो दोहे-

अभी बहुत कुछ शेष है, जीवन से मत भाग|
बुझा नहीं है आस का, जलता हुआ चिराग||

ऐसा भी तू क्या थका, मान रहा जो हार|
हिम्मत अपनी बाँध ले, लक्ष्य खड़ा है द्वार||

    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कृष्णलता यादव का भी एक बहुरंगी दोहा संग्रह ‘मन में खिला वसंत’ प्रकाशित हुआ है| बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

आँधी है बदलाव की, होते उलटे काम|
बाबुल को वनवास दे, कलयुग वाला राम||

आग लगी जब महल में, कुटिया लाई नीर|
महल तमाशा देखता, पड़ी कुटी पर भीर||

भारी से भारी हुई, नेताजी की जेब|
ऊँचे दामों बिक रहे, धोखा, झूठ, फरेब||

    श्रीमती आशा खत्री ‘लता’ भी हरियाणा की प्रमुख महिला दोहकारों में से एक हैं। ‘लहरों का आलाप’ उनका प्रकाशित संग्रह है। कुछ दोहे इसी संग्रह से-

जीवन भर तनहाइया, लिये तुम्हारी याद।
पीडा का करती रही, आंसू में अनुवाद॥

उसको ही आता यहाँ, करना सागर पार।
लहरों से जिसकी कभी, थमी नहीं तकरार॥

    हरियाणा के नये दोहकारों के संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो शीघ्र ही प्रकाश में आयेंगे। लघुकथा के बाद दोहा को भी हरियाणा के रचनाकारो का भरपूर प्यार मिल रहा है।

-रघुविंद्र यादव
11.10.2020

संदर्भ सूची-

1. साकेत सर्ग- 9
2. ‘वक़्त करेगा फैसला’ दोहा संग्रह – रघुविंद्र यादव पृष्ठ- 9
3. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 3
4. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
5. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
6. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 6
7. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 18

Sunday, September 29, 2019

नयी सदी के दोहे : ''बेटा कहता बाप से'' के आधुनिक कबीर हैं- रघुविन्द्र यादव


आधुनिक कबीर- रघुविन्द्र यादव 

क्यों कहते हैं रघुविंद्र यादव को आधुनिक कबीर  

आधुनिक कबीर के दोहे/ आज के दोहे/  कलयुग के दोहे/ आज अगर कबीर जिन्दा होते तो ये होते आज के दोहे|  नयी सदी के दोहे/  लोकप्रिय दोहे| 
उपरोक्त शीर्षकों से आपने नीचे दिए दोहे सोशल मीडिया (फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ब्लोगस्पॉट, ट्विटर और गूगल के अलावा अख़बारों की साइट्स आदि) पर खूब पढ़े होंगे| पढ़कर मन में कभी यह जिज्ञासा भी उठी होगी कि यह आधुनिक कबीर अथवा इन दोहों का लेखक कौन है| तो आज हम आपका परिचय उस कलमकार से करवा रहे हैं, जिसने इन दोहों की रचना की है| इन दोहों के रचियता नारनौल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री रघुविन्द्र यादव हैं| जो हरियाणा प्रदेश ही नहीं देश के जानेमाने दोहाकार हैं| आपकी अब तक दोहे की दो पुस्तकें "नागफनी के फूल" और "वक्त करेगा फैसला" सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं 
 नीचे दिए दोहे उनकी पुस्तक नागफनी के फूल में वर्ष 2011 में प्रकाशित हुए थे| जो सोशल मीडिया पर बेहद लोकप्रिय हुए हैं और अब तक एक करोड़ से अधिक लोग शेयर और कॉपी पेस्ट कर चुके हैं| इन दोहों के यूट्यूब पर दर्जनों विडियो उपलब्ध हैं| सुपरटोन कंपनी द्वारा बनाया गया विडियो अब तक एक ही लिंक पर एक करोड़ से अधिक बार देखा जा चुका है तो दूसरा विडियो 37 लाख से अधिक बार देखा जा चुका है| यह संख्या संत कबीर के बाद दूसरे नंबर पर है|

श्री यादव शोध और साहित्यिक की राष्ट्रीय पत्रिका "बाबूजी का भारतमित्र" और वेब मैगज़ीन "विविधा" के संपादक हैं और महेंद्रगढ़ में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं| इतना ही नहीं आप जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता भी हैं और आजकल राष्ट्रीय जल बिरादरी की अरावली भू-सांस्कृतिक इकाई के समन्वयक और नागरिक चेतना मंच के अध्यक्ष भी हैं| 



नई सदी से मिल रही, दर्द भरी सौगात!
बेटा कहता बाप से, तेरी क्या औकात !!

अब तो अपना खून भी, करने लगा कमाल !
बोझ समझ माँ बाप को, घर से रहा निकाल !!

पानी आँखों का मरा, मरी शर्म औ' लाज!
कहे बहू अब सास से, घर में मेरा राज !!

भाई भी करता नही, भाई पर विश्वास! 
बहन पराई सी लगे, साली खासमखास !!

मंदिर में पूजा करें, घर में करे कलेश !
बापू तो बोझा लगे, पत्थर लगे गणेश !!

बचे कहाँ अब शेष हैं, दया, धर्म, ईमान !
पत्थर के भगवान् हैं, पत्थर दिल इंसान !!

फैला है पाखंड का, अन्धकार सब ओर !
पापी करते जागरण, मचा मचाकर शोर !!

-फीचर डेस्क 


Monday, September 23, 2019

शब्द और उनके अर्थ

शब्द  अर्थ 

कंदरा- गुफा या घाटी 
कंदील- मिट्टी या अभ्रक का लैंप 
कमलगट्टा- कमल का बीज 
कगार- ऊंचा किनारा, नदी का करारा, भूमि का ऊंचा भाग, टीला  
कचोटना- गढ़ना चुभना संताप होना
कोंचना-छेड़ना, गड़ाना, चुभाना 
च्यवन- टपकना,चूना, रसना, झरना, एक ऋषि का नाम 
छटा- प्रकाश, प्रभा, झलक, शोभा, छवि, सौन्दर्य, बिजली
छद्म- छिपाव, बहाना, मिस, छल, धोखा, कपट
जपनी- जपने की माला, गोमुखी 
जू- आकाश, सरस्वती, गमन, गति 
जैव- जीव या जीवन सम्बन्धी 
जोहार- अभिनंदन, नमस्कार, प्रणाम, जुहार 
तनुज- पुत्र, लड़का, बेटा
तनुजा- पुत्री, बेटी, लड़की 

Wednesday, October 14, 2015

छंद दोहा - इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

दोहे के माध्यम से दोहे की परिभाषा :-

(छंद दोहा : अर्धसम मात्रिक छंद, चार चरण, विषम चरण तेरह मात्रा, सम चरण ग्यारह मात्रा, अंत पताका अर्थात गुरु लघु से, विषम के आदि में जगण वर्जित, प्रकार तेईस)

तेरह ग्यारह क्रम रहे, मात्राओं का रूप|
चार चरण का अर्धसम, शोभा दिव्य अनूप||

विषम आदि वर्जित जगण, सबसे इसकी प्रीति|
गुरु-लघु अंतहिं सम चरण, दोहे की यह रीति||

विषम चरण के अंत में, चार गणों को त्याग|
यगण मगण वर्जित तगण, भंग जगण से राग||

-अम्बरीष श्रीवास्तव

दोहा चार चरणों से युक्त एक अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके पहले व तीसरे चरण में १३, १३ मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं, दोहे के सम चरणों का अंत 'पताका' अर्थात गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों के प्रारंभ में स्वतंत्र जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है तथा दोहे के विषम चरणों के अंत में यगण(यमाता १२२) मगण (मातारा २२२) तगण (ताराज २२१) व जगण (जभान १२१) का प्रयोग त्याज्य जबकि वहाँ पर सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है
जबकि इसके सम चरणों के अंत में जगण अथवा तगण आना चाहिए अर्थात अंत में पताका (गुरु लघु) अनिवार्य है|

निश्छल निर्मल मन रहे, विनयशील विद्वान्!
सरस्वती स्वर साधना, दे अंतस सद्ज्ञान!!
 
छंद सहज धुन में रचें, जाँचें मात्रा भार!
है आवश्यक गेयता, यही बने आधार !!

दोहे का आन्तरिक रचनाक्रम

तीन तीन दो तीन दो, चार चार धन तीन! (विषम कलात्मक प्रारंभ अर्थात प्रारंभ में त्रिकल)
चार चार धन तीन दो, तीन तीन दो तीन!! (सम कलात्मक प्रारंभ अर्थात प्रारंभ में द्विकल या चौकल)
(संकेत : दो=द्विकल, तीन=त्रिकल, चार= चौकल)

(अ) तीन तीन दो तीन दो : (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ वर्जित)
(१) 'राम राम गा(व भा)ई' (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ होने से गेयता बाधित)
(२) 'राम राम गा(वहु स)दा' (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ न होने के कारण सहज गेय)
(ब) चार चार धन तीन दो : (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ वर्जित)
(१) 'सीता सीता पती को' (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ होने से गेयता बाधित)
(२) 'सीता सीता नाथ को' (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ न होने के कारण सहज गेय)
(उपरोक्त दोनों उदाहरण 'अ' तथा 'ब' छंद प्रभाकर से लिए गए हैं |)
निम्नलिखित को भी देखें...
दम्भ न करिए कभी भी (चरणान्त में यगण से लयभंग) / दंभ नहीं करिए कभी (चरणान्त में रगण से उत्तम गेयता)
हार मानिए हठी से (चरणान्त में यगण से लयभंग)/ मान हठी से हार लें (चरणान्त में रगण से उत्तम गेयता)
(उपरोक्त उदाहरण आदरणीय ओम नीरव जी के सौजन्य से आयोजित दोहा चर्चा से उद्धृत है)

दोहे की रचना करते समय पहले इसे गाकर ही रचना चाहिए तत्पश्चात इसकी मात्राएँ जांचनी चाहिए ! इसमें गेयता का होना अनिवार्य है ! दोहे के तेईस प्रकार होते हैं | जिनका वर्णन निम्नलिखित है |

'दोहों के तेईस प्रकार'

बांचें सारे दोहरे, तेईस रूप प्रकार.
प्रस्तुत है श्रीमान जी , दोहों का संसार..

नवल धवल शीतल सुखद, मात्रिक छंद अनूप.
सर्वोपरि दोहा लगे, अनुपम रूप-स्वरुप..

लघु-गुरु में है यह बँधा, तेइस अंग-प्रकार.
चरण चार ही चाहिए, लघु इसका आकार..

तेरह मात्रा से खिले, पहला और तृतीय.
मात्रा ग्यारह माँगता, चरण चतुर्थ द्वितीय..

विषम आदि वर्जित जगण, करता सबसे प्रीति.
अंत पताका सम चरण, दोहे की ये रीति..

अट्ठाइस लघु गुरु दसों, ‘वानर-पान’ समान.
चौदह गुरु हों बीस लघु, ‘हंस’ रूप में जान..

सत्रह गुरु लघु चौदहों, ‘मरकट’ नाम कहाय.
सोलह लघु गुरु सोलहों, ‘करभ’ रूप में आय..
 
बारह लघु के साथ में, अठरह गुरु ‘मंडूक’.
अठरह लघु गुरु पन्द्रह , ‘नर’ का यही स्वरुप..

तेरह गुरु बाईस लघु, ‘मुदुकुल’ कहें ‘गयंद’.
दस लघु हों उन्नीस गुरु, ‘श्येन’ है अद्धुत छंद..

बीसों गुरु औ आठ लघु, ‘शरभ’ नाम विख्यात.
छीयालिस लघु एक गुरु, ‘उदर’ रूप है तात..

गुरु बिन अड़तालीस लघु, नाम ‘सर्प’ अनमोल.
तिर्यक लहराता चले, कभी कुण्डली गोल..

चौवालिस लघु दोय गुरु, दोहा नामित 'श्वान'.
ग्यारह गुरु छ्ब्बीस लघु, ‘चल’ ‘बल’ करें बखान..

बाइस गुरु औ चार लघु, ‘भ्रमर’ नाम विख्यात.
इक्किस गुरु छः लघु जहाँ, वहाँ ‘सुभ्रमर’ तात..

चौबिस लघु गुरु बारहों, नाम ‘पयोधर’ पाय.
नौ गुरु साथी तीस लघु, ‘त्रिकल’ रूप मुस्काय..

बत्तीस लघु औ आठ गुरु, ‘कच्छप’ रूप समान.
चौंतिस लघु हैं सात गुरु, ‘मच्छ’ रूप में जान..

छः गुरु औ छत्तीस लघु, ‘शार्दूल’ विख्यात.
अड़तिस लघु तो पञ्च गुरु, ‘अहिवर’ लाये प्रात..

चालिस लघु हैं चार गुरु, देखो यह है ‘व्याल’.
बयालीस लघु तीन गुरु, आये रूप ‘विडाल’.

दोहा रचना है सुगम, नहीं कठिन कुछ खास.
प्रभुवर की होगी कृपा, मिलकर करें प्रयास..

(विशेष)

ऐसा भी कहा गया है कि दोहे की लयात्मकता ही सभी नियमों के ऊपर होती है किन्तु लयात्मकता से वही परिचित होते हैं जिनकी रूचि संगीत में होती है किन्तु जो व्यक्ति लयात्मकता से परिचित नहीं है उसके लिए तत्संबंधित नियमों का जानना अनिवार्य हो जाता है |
छंद शास्त्र के मर्मज्ञ कवि जगन्नाथ प्रसाद भानु यद्यपि लयात्मकता को सर्वोपरि मानते हैं तथापि इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने ग्रन्थ 'छंद प्रभाकर' में निम्नलिखित व्यवस्था का उल्लेख भी किया है |
उनके अनुसार त्रयोदशकलात्मक विषम चरण की बनावट के आधार पर दोहे दो प्रकार के होते है,
विषमकलात्मक एवम समकलात्मक |
विषमकलात्मक दोहा उसे कहते है जिसका प्रारम्भ (लघु गरु), (गरु लघु) अथवा (लघु लघु लघु) से हो | इसकी बुनावट ३+३+२+३+२ के हिसाब से होती है | इसका चौथा समूह जो त्रिकल का है उसमें लघु गुरु अर्थात १२ रूप नहीं आना चाहिए| अर्थात १२ त्रिकल रूप + २ द्विकल ही यमाता या यगण रूप सिद्ध होता है तभी कवि 'भानु' ने "राम राम गाव भाई" के स्थान पर "राम राम गावहु सदा" या "राम राम गावौ सदा" का प्रयोग ही उचित माना है |
कवि भानु के अनुसार समकलात्मक दोहा उसे कहते है जिसका प्रारम्भ (लघु लघु गरु), (गरु गुरु) अथवा (लघु लघु लघु लघु) से हो | इसकी बुनावट ४+४+३+२ की होती है अर्थात चौकल के पीछे चौकल फिर त्रिकल तद्पश्चात द्विकल आना चाहिए इसमें भी त्रिकल का १२ अर्थात लघु गुरु वाला रूप त्याज्य है जैसे कि "सीता सीता पती को" के बजाय "सीता सीतानाथ को" ही उपयुक्त है अर्थात यह सिद्ध होता है कि इसमें भी तृतीय त्रिकल + चतुर्थ द्विकल (३+२) मिला कर यगण रूप नहीं होना चाहिए |

- इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

दोहाकार