विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Tuesday, September 8, 2015

बारिश की दुआ

    वह शायद कबूलियत का लमहा था। बादलों ने उसकी आवाज़ सुन ली थी। बेकसी और बेबसी की फटी पुरानी चादर ओढ़े वह मासूम रूह उस फ़िज़ा के दायरे में शायद अपनी आवाज़ की गूँज सुनना चाहती थी। उसकी धीमी और मद्धिम आवाज़ करीबी फासलों तक को नापने के $काबिल तो न थी, फिर भी वह उसके इन्तज़ार में खड़ी थी।     
गगनचुम्बी इमारतों के इस मीलों फैले शहर में किसी खुले मैदान का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता था। शहर को देखकर ऐसा महसूस होता था जैसे ज़मीन सिकुड़ गई हो। मैदानों की महदूदगी की बुनियाद पर मुहल्ले के बचे चौराहों पर या अपने घरों के सामने उन तंग गलियों में जहाँ सूरज की रोशनी का गुज़र भी नही होता, क्रिकेट और हॉकी खेलने पर मजबूर थे। हाँ, शहर में जगह-जगह ऐसे खाली प्लाट ज़रूर मौजूद थे जिनके दौलतमंद मालिक उन प्लाटों पर या तो शॉपिंग प्लाज़ा बनवाने के मनसूबे बना रहे थे या फिर उनकी कीमत बढऩे का इन्तज़ार कर रहे थे, ताकि उन प्लाटों को दुगुनी-तिगुनी कीमत पर बेच कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकें। ऐसे प्लाटों पर अक्सर लोग, जिनके पास साज़ो-सामान न था, झोपड़ी बनाकर रहने लगे और वे रोज़ाना सोने के पहले यह दुआ ज़रूर करते कि अगली सुबह प्लाट पर किसी इमारत की तामीर शुरू न हो। ज़ाहिर है ऐसी सूरत में उन्हें प्लाट-बदर होना पड़ता। नन्हीं ज़ुबेदा, जिसकी बेवा माँ उसे ज़ेबू कहकर पुकारती थी, इस किस्म के एक प्लाट में साथ वाली छ: मंजि़ला इमारत के साए तले एक झुग्गी में रहती थी। यह प्लाट एक रिटायर्ड कस्टम ऑफिसर की ज़ायदाद थी, जो शायद प्लाट की कीमत में इज़ाफे का इन्तज़ार कर रहा था। ज़ेबो की उम्र उस वक़्त छ:-सात बरस के लगभग थी। उसका बाप उसकी पैदाइश के एक साल बाद चल बसा था। बाप की मौत के बाद जैसे ही आमदनी का सिलसिला बंद हुआ तो मालिक मकान ने माहवार किराया हासिल न कर पाने की $िफक्र में ज़ेबू की माँ को मकान-बदर कर दिया। वह बेचारी मासूम ज़ेबू को सीने से लगाए कुछ अरसे तक दूर के रिश्तेदारों के यहाँ दिन गुज़ारती रही, लेकिन किसी रिश्तेदार ने उसे हफ़्ते या दो हफ़्ते से ज़्यादा अपने घर में रखना गवारा न किया । अपने सरताज की जि़न्दगी में मान-सम्मान से अपने घर में रहनेवाली औरत अब खुले आसमान तले पनाह लेने पर मज़बूर हो गई। उसने रिटायर्ड कस्टम इंस्पेक्टर के प्लाट पर छ: मंजिल इमारत के साए तले एक झुग्गी डाली और ज़ेबू के साथ जि़न्दगी की तमाम आ$फतें झेलने के लिए तैयार हो गई । वह आसपास की कोठियों में जाकर मेहनत मज़दूरी करती और काम के बदले उनके घरों का बचा हुआ खाना, उनकी उतरन और माहवार चंद रुपये बतौर तनख़्वाह वसूल करती । इस तरह जि़न्दगी के महीने और साल गुज़रने लगे। दूध पीती ज़ेबू अपने बचपन और उसकी माँ बुढ़ापे का स$फर तय करते रहे। उस दौरान मालिक ने माँ-बेटी को प्लाट बदर करने की सोची। लेकिन शायद उसे इस अमर का य$कीन हो गया था कि एक कमज़ोर-सी औरत उसके प्लाट पर कब्ज़ा करने की तौफीक नहीं रखती और उसने प्लाट की चौकीदारी के लिये झोपड़ी को प्लाट पर बरकरार रहने दिया।
    वह शुक्रवार का दिन था। आसमान पर सुबह से गहरे बादल छाए हुए थे लेकिन उन बादलों से बारिश की एक बूँद भी नहीं बरसी थी। ऐसा गुज़रे चंद महीनों से हो रहा था। गहरे बादल आसमान पर छा जाते लेकिन बात मामूली बूंदा-बूंदी तक महदूद रह जाती, जबकि ज़रूरत लगातार और मूसलधार बारिश की थी। 'सूखा' लोगों के लिये एक चर्चा का विषय बन चुका था। आज ज़ेबू की माँ को बुखार था। इसलिए वह काम पर न जाकर अपनी कुटिया में ही पड़ी रही। ज़ेबू झुग्गी के सामने खेल रही थी। जुम्मे की नमाज़ के कुछ ही देर बाद लोगों का एक जुलूस प्लाट में दाखिल हुआ। जुलूस में शिरकत करने वालों की तादाद बहुत बड़ी थी, जिसमें हर सेक्टर के योग्य विद्वतजन शामिल थे। नन्हीं ज़ेबू ने लोगों के उस हुजूम को देखकर खेल बंद कर दिया था और झुग्गी में लेटी माँ के पास आ गई। 'अम्मी हमारे घर में बहुत से लोग आए हैं।' उसने मासूमियत से कहा। 'बेटी, यह लोग नमाज़ पढऩे आए हैं' माँ ने जवाब दिया। लेकिन ज़़ेबू नमाज़ की रवायत के बारे में कुछ नहीं जानती थी। उसके सवाल के जवाब में माँ ने बताया कि ये लोग जब नमाज़ पढक़र अल्ला मियाँ से दुआ करेंगे तो बहुत ज़ोर की बारिश होगी, जिससे ज़मीन हरी-भरी होकर अच्छी और ज़्यादह फसल देगी। मुमकिन था कि ज़ेबू कोई और सवाल करती पर माँ ने उसे बाहर जाकर झुग्गी के सामने खेलने को कहा। वह झुग्गी से बाहर ज़मीन पर बैठ गई 'जब यह लोग नमाज़ पढक़र दुआ करेंगे तो बहुत ज़ोर की बारिश होगी।' माँ के कहे हुए शब्द उसके नन्हें ज़ह्न में गूँजने लगे और फिर पिछले बरस का वह दिन याद आ गया जब बहुत ज़ोर की बारिश हुई थी और प्लाट का तमाम पानी उनकी झुग्गी में भर गया था। दोनों माँ-बेटी प्लाट में जमा होने वाले और झुग्गी की सड़ी-गली पुरानी छत से टपकते पानी में घंटों भीगती रही थीं। उसके मासूम ज़ह्न पर एक खौफ-सा छा गया...उसने खौ$फज़दा निगाहों से लोगों को देखा। मौलवी साहब हाथ बुलन्द करके अल्ला मियाँ से ज़ोरदार बारिश की दुआ कर रहे थे और लोग आमीन-आमीन कर रहे थे। नन्हीं ज़ेबू को न जाने क्या सूझी, उसने भी अपने नन्हें-नन्हें हाथ $िफज़ा में दुआ माँगने के अंदाज़ में बुलन्द कर दिये और दुआ की 'अल्ला मियाँ बारिश मत करना, मैं और मेरी माँ बारिश में भीग जाएँगे। आप जानते हैं कि अम्मी बहुत बीमार हैं। उनको सेहत दे दो। हम यहाँ से किसी महफूज़ जगह चले जाएँगे और फिर सबके साथ बारिश की दुआ माँगेंगे। अल्ला मियाँ अभी बारिश मत करना।'     
कबूलियत का लम्हा जैसे मासूम ज़ेबू की खुली हुई हथेलियों में सिमट आया था। वह खाली-खाली आँखों से शून्य में ताकती रही और फिर झुग्गी की तर$फ चल पड़ी। जब नमाज़ पढऩे वाले और पैरवी करने वाले दुआ कर चुके तो आहिस्ता से मौसम बदलने लगा। गहरे स्याह बादलों में दरार पड़ गई। कुछ देर में आसमान बादलों से पूरी तरह सा$फ हो चुका था और सूरज पूरे आब-ओ-ताब के साथ अपनी चमक दिखा रहा था।
मूल कहानी-आरिफ जि़या
अनुवाद-देवी नागरानी
9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी,
15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई-400050
 फोन-9987928358

Monday, August 10, 2015

ब्लैकमेल-डॉ.सुरेन्द्र मंथन

भजन चलने लगा तो मैंने सोचा, फिजूल रिक्शा पर आठ-दस रुपये फूँक देगा। सामान साइकिल के कैरियर पर लाद कर कहा-''चलो, बस स्टैंड साथ ही है, छोड़े आता हूँ।"
भजन ने रास्ते में फिल्मी-पत्रिका खरीद ली। मैंने मन को समझाया-'चलो, सफर की बोरियत से बचेगा।'
भजन जब भी आता, अनाप-शनाप पैसा बहाता रहता। राजकुमारों जैसा शाही दिल है उसका। दोस्तों के बीच बैठता है तो क्या मजाल कोई दूसरा बिल अदा कर जाए।
एक मैं हूँ, पैसा-पैसा दाँत से पकडऩा पड़ता है। बड़ा होने की मजबूरी है। अब तो भजन शादी-शुदा है। उसका फर्ज़ नहीं बनता था, बापू को साथ ले जाने की बात कहता। कितना बढिय़ा बहाना है, 'यहाँ पोते-पोतियों में बापू का मन बहल जाता है।'
घर पहुँचने पर पत्नी ने कहा-''क्या जरूरत थी कुली बन कर सामान ढोने की?"
''अरे भागवान, दस रुपये बच गए। चूल्हे अलग हुए तो क्या हुआ, घर का पैसा घर में रह गया।"
''तब पड़ोसियों की नम्बर दो कमाई पर क्यों चिढ़ते हो? काला धन ही सही, देश से बाहर तो नहीं जा रहा।"
मुझेे महसूस हुआ, कोई मुझे लगातार ब्लैकमेल करता आ रहा है।
-डॉ.सुरेन्द्र मंथन

अध्यापक बनने और होने के बीच - मधुकांत

जामगढ़/5 सितम्बर, 2005
आदरणीय गुरुजी,
प्रणाम! मैं आपका शिष्य राधारमण उर्फ राधे हूँ। शायद आपने मुझे विस्मृत भी कर दिया होगा। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि एक अध्यापक के जीवन में तो हजारों शिष्य आते हैं, चले जाते हैं, परन्तु शिष्यों के हृदय पटल पर अपने गुरुओं की तस्वीर इतने गहरे से अंकित होती है कि जीवन पर्यन्त उनकी स्मृति बनी रहती है। अध्यापक तो मेरे जीवन में सैंकड़ों आये। कुछ हल्की, कुछ गहरी, कुछ पीड़ादायक, कुछ सुखद स्मृतियाँ सबकी संजोयी हुई हैं। उन सब अध्यापकों के बीच गुरु जी तो केवल आप बने। कभी-कभी हम सहपाठी मिलते हैं तो आपका जिक्र श्रद्धापूर्वक करते हैं जबकि अन्य शिक्षकों पर उपहास भी करते हैं।
सबसे पहले तो मैं आपको अपनी पहचान कराने का प्रयत्न करता हूँ। वर्ष दो हजार में मैंने आपके विद्यालय से बारहवीं कक्षा पास की थी। मैं मेधावी छात्र तो नहीं था, परन्तु प्रारम्भ के आठ-दस छात्रों में मेरा नाम रहता था। मेरा रंग काला था इसलिए आप मुझे राधारमण न कहकर साँवरिया कहा करते थे। भगवान ने मुझे सुरीला कंठ दिया है इसलिए प्रत्येक शनिवार की बाल सभा में आप मुझसे गांधी जी का प्रिय भजन सुनते थे, वैष्णव जन...।
गुरुजी, मैं आपको पत्र के माध्यम से एक शुभ समाचार दे रहा हूँ कि मैं एक गाँव के सरकारी स्कूल में नियुक्त हो गया हूँ। अध्यापक होने के लिए मुझे आपके अनेक अनुभव याद हैं और भविष्य में भी आपसे मार्गदर्शन लेता रहूँगा।
शनिवार को बाल सभा में एक दिन आपने सभी बच्चों से पूछा था कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं? मेरा नम्बर आया तो मैंने झट से कह दिया था-'गुरुजी, मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता हूँ।Ó उन दिनों वहाँ डॉक्टर को बहुत सम्मान मिलता था। इन्हीं सपनों के साथ मैंने विज्ञान की पढ़ाई भी आरम्भ की परन्तु आज मैं अनुभव करता हूँ कि भगवान ने मुझे इतनी तीव्र बुद्धि नहीं दी इसलिए विज्ञान को बीच में छोडक़र मैं केवल बी.ए. कर पाया। जब कोई दूसरा अच्छा विकल्प न मिला तो बी.एड. करके अध्यापक बनना ही सम्मानजनक लगा और वह मंजिल मैंने पा ली। मैं तो अध्यापक बन गया गुरुजी, परन्तु आप तो बड़े कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। मैं यह तो नहीं जानता कि आपका अध्यापक बनने में क्या उद्देश्य रहा होगा। जो भी हो गुरुजी, मैं अब एक अच्छा अध्यापक बनना चाहता हूँ, कृपया इसके लिए मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें।
अनेक बार सुना और पढ़ा भी है कि गुरु संसार का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति है। वह सच्चा ज्ञान देकर भगवान से मिला सकता है। न जाने मेरा भ्रम है या यथार्थ आज तक मुझे तो अपने विद्यालय में और आस-पास ऐसा गुरु दिखाई नहीं दिया। फिर वह किस गुरु के विषय में लिखा है? मेरी तो समझ में नहीं आता कि वह गुरु कैसे बना जा सकता है?
'जो कुछ कर नहीं सकता वह अध्यापक बनता है।' मुझे तो इस बात में कोई दम नहीं दिखाई देता क्योंकि अध्यापक बनना इतना आसान नहीं है कि जो चाहे वही बन जाये। सच मानना गुरुजी अध्यापक बनने की प्रक्रिया में मेरा शरीर छिल-छिल कर लहुलुहान हो गया है। अध्यापक बनने के लिए लोग दोनों जेबें भरे घूमते रहते हैं। मेरे पिताजी भी यही कहते थे-''बेटे शुरू में आधे किले की मार है फिर सारी उम्र मौज करेगा।" न तो उस दिन और न आज तक मैं उस 'मौज' का अर्थ समझ पाया। यह तो सच है अध्यापक कुछ न करे तो कोई पूछता नहीं, परन्तु कर्र्मठ अध्यापक का काम कभी पूरा नहीं हो सकता। बल्कि करने वाले को अधिक काम दिया जाता है और वही उसकी प्रतिष्ठा है।
आज दुनिया में सब विद्वान हैं सब दूसरे को उपदेश देना चाहते हैं कोई दूसरे की बात सुनना ही नहीं चाहता। यह तो अबोध विद्यार्थी हैं जो हमारी सारी अच्छी-बुरी बातों को सुनते रहते हैं और बिना किसी विरोध के स्वीकारते रहते हैं। एक और बड़ा परिवर्तन आया है आजकल के विद्यार्थी हमें सर जी, मैडम जी कहकर संबोधित करते हैं गुरुजी शब्द में जो आदर व निष्ठा थी वह इस हिन्दी-अंग्रेजी के मिले-जुले शब्दों में कहाँ? मैंने बदलाव करने का सोचा था, परन्तु मुख्याध्यापक ने समझाया-'राधारमण सारी दुनिया अंग्रेजी के पीछे दौड़ रही है। अच्छे परिवारों के सब बच्चे प्राइवेट स्कूलों में चले जाते हैं। सरकार भी प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले में अपने स्कूलों में कुछ सुधार करना चाहती है। इसीलिए मेरा सुझाव है, इस परिवर्तन को रहने दो।Ó गुरुजी मैं भी क्या बक-बक लेकर बैठ गया। ये सब पढक़र आप मुझ पर हँसेंगे। परन्तु मैं भी क्या करता बहुत दिनों से आपके सामने बातें करने का मन हो रहा था, आज पत्र लिख कर मन संतुष्ट हो गया। यदि आपको कष्ट न हो तो आशीर्वाद स्वरूप कुछ पंक्तियाँ मेरे लिए अवश्य लिख भेजियेगा।
आपका
राधारमण 'साँवरिया'
सांकला, 2 अक्टूबर 2005
प्रिय राधारमण,
खुश रहो। तुम्हारा पत्र मिला। समझ में नहीं आया मुझे पत्र लिखने का तुम्हारा क्या प्रयोजन रहा है। वैसे तो मै तुम्हें पहचानने में असफल रहता परन्तु गाँधी जी के भजन ने तुम्हारी स्मृति को ताजा कर दिया। तुम्हारे कण्ठ की आवाज सुनकर उन दिनों मैं सोचता था कि तुम एक अच्छे गायक बनोगे परन्तु बहुत कठिन है कि आदमी का शौक और व्यवसाय एक हो जाये। खैर वक़्त ने तुम्हें अध्यापक बना दिया, परन्तु प्रिय राधारमण अब केवल अध्यापक नहीं एक शिक्षक बन कर दिखाना।
तुमने मेरे शिक्षक बनने की प्रक्रिया की चर्चा की। यह पूर्णतया सच है कि मेरे घोर व्यवसायी घराने में कोई अध्यापक बनने की कल्पना भी नहीं कर सकता। पारिवारिक परम्परा के अनुसार व्यवसाय करना, धन कमाना, धनवान होने की प्रतिष्ठा अर्जित करना मेरे लिए सरल ही था और अनुकूल भी। परन्तु मुझे लगा था कि प्रभु ने मुझे लिखने के लिए भेजा है। लेखन और अध्ययन दोनों कार्य अध्यापक के अनुकूल बैठते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षण को मैं श्रेष्ठ कार्य मानता हूँ। सुबह-सुबह निश्चित समय पर विद्यालय में प्रवेश। छात्रों-अध्यापकों का आपसी अभिवादन, फिर नन्हे-मुन्ने बच्चों के साथ सामूहिक प्रार्थना। दिन-भर ज्ञान-विज्ञान की चर्चा, अध्यापकों द्वारा नैतिक, श्रेष्ठ नागरिक बनने पर बल। शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाने के लिए क्रीड़ा-अभ्यास, छात्रों में निहित नाना प्रकार की प्रतिभाओं का विकास- दुनिया में इससे अच्छा काम क्या हो सकता है?
आज भी समाज में अध्यापक का चाहे जो स्थान हो, परन्तु अन्य व्यवसाय का नौकरी से वह अधिक ईमानदार और विश्वसनीय है। स्कूल में उपस्थित अध्यापक सच बोलने की बात सिखाता है या चुप रहता है, परन्तु झूठ बोलने की प्रेरणा कभी नहीं देता।
प्रिय राधारमण, शिक्षक बनना तो आसान है, परन्तु शिक्षक होना मुश्किल है। समाज अध्यापक को एक विशिष्ट प्राणी मानता है और यह सच भी है, क्योंकि छात्रों के लिए अध्यापक अनुकरणीय होता है। इसलिए अनेक बार अध्यापक को अपने मन के विपरीत वह करना पड़ता है जो समाज के लिए श्रेष्ठ हो।
तुम नये-नये अध्यापक बने हो। तुम्हारे सम्मुख अनेक प्रकार के अध्यापक आयेंगे, परन्तु तुमको एक विशिष्ट कर्म योगी अध्यापक बनना है ताकि दूसरे तुमसे प्रेरणा लें। अधिक से अधिक समय अपने शिष्यों के साथ रहना है। भययुक्त अनुशासन नहीं बनाना भयमुक्त शिक्षण करना है। प्रत्येक छात्र में एक विशिष्ट प्रतिभा है। तुम्हें उसको दिशा बोध कराना है। उसकी जिज्ञासाओं को खुशी-खुशी शांत करना है, सभी शिष्यों को अपनी औलाद के समान मानना है। सच कहता हूँ तुम्हें इतनी खुशी व संतोष मिलेगा कि दुनिया का कोई भी सुख उतना आनंद नहीं दे पाएगा।
जानते हो भरे बाजार में गुजरते हुए जब एक सेठ-नुमा शिष्य ने दुकान से निकलकर सबके सामने मेरे पाँव छुए तो मुझे बहुत खुशी हुई थी। मन हुआ था कि चिल्लाकर सबके सामने कहूँ-'दुनिया वालो देखो, किसी भी व्यवसाय या नौकरी में इतना गौरव और सम्मान है जो आज मुझे अध्यापक बनने पर मिला है।Ó अध्यापक दृढ़ संकल्प करके अपने मन में ठान ले तो कुछ भी बदल सकता है। अपने शिष्यों को बदलना तो बहुत आसान है, क्योंकि वे तो कच्ची मिट्टी के बने हैं, परन्तु अध्यापक तो उनके माँ-बाप को भी बदल सकता है। क्योंकि अभिभावकों की चाबी (बच्चे) उसके हाथ में है। मालूम नहीं तुम्हें याद है कि नहीं जब मैं 1998 में इस विद्यालय में आया था तो कई अध्यापक व बहुत सारे छात्र धुम्रपान करते थे। विद्यालय में एक माह तक संस्कार उत्सव चलाया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य धुम्रपान रोकना था। जब मैंने बच्चों के माध्यम से यह बात उनके घरों में भेजी कि जिनके परिवार में एक व्यक्ति भी धुम्रपान करता है तो परिवार के नन्हे-मुन्ने बच्चों को भी न चाहते हुए धुम्रपान करना पड़ता है। उनके अभिभावक ही उनके नाजुक फेफड़ों को खराब कर रहे हैं। परिणाम जानने के लिए संस्कार उत्सव समापन पर अभिभावकों की प्रतिक्रिया जानी, तो आश्चर्यजनक परिणाम सामने आये। बच्चों ने जिद्द करके, प्रार्थना करके अपने घर में धुम्रपान बंद करवा दिया। स्कूल में धुँआ उड़ाना वैसे ही बंद हो गया। ऐसी अपूर्व शक्ति संजोए हैं अध्यापक।
प्रिय राधारमण, मैं इसलिए अध्यापक बना कि साहित्य साधना के लिए पर्याप्त समय और उपयुक्त वातावरण मिल जाएगा, परन्तु अध्यापक बनने के बाद मैंने समझा कि अध्यापक के पास तो समय का बड़ा अभाव है। वह कितना भी कार्य करे वह पूरा हो ही नहीं सकता। साहित्य सृजन के लिए अन्दर की कुलबुलाहट जो हिलोर मारकर कागज पर उतारना चाहती थी, वह छात्रों के साथ अभिव्यक्त होकर शांत हो जाती। इसलिए अध्यापक बनकर खूब लिखने का जो विचार था उसके लिए न मन ही तैयार होता और न समय ही मिलता। अब तुम केवल शिष्य नहीं हो, मेरे अनुरूप, एक शिक्षक का, राष्ट्र निर्माता का कार्यभार तुम्हारे कँधे पर आ गया है। मेरा सम्पूर्ण सहयोग और आशीर्वाद तुम्हारे लिए है।
बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ।
तुम्हारा
विद्या भूषण
जामगढ़ 5 सितम्बर, 2010
आदरणीय गुरुजी,
प्रणाम। लगभग पाँच वर्ष पूर्व आपका पत्र मिला था। वह पत्र नहीं मेरे लिए गीता-अमृत था। जब कभी मन कुंठित व व्यथित होता तो आपके पत्र को निकाल कर पढ़ लेता था। सच मानना पत्र पढक़र मेरा मन खुशी व उत्साह से भर जाता और मुझे सही दिशा का बोध करा देता। आपने इतना जीवंत व पे्ररणादायक पत्र लिखकर मुझ जैसे पूर्व शिष्य पर जो अनुकम्पा की है वह केवल मेरे लिए नहीं, सभी शिष्यों के लिए आशीर्वाददायक रहेगी। अध्यापक बनने के बाद पिछले पाँच वर्षों में मैंने एक शिक्षक के कार्य को करीब से देखा है। शिक्षण कार्य पहले से दुरुह हो गया है। कक्षाओं में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसको देखने के लिए शिष्य आए, वहाँ सुनने के लिए कुछ भी नवीन व रोचक नहीं है जो छात्र के कानों को आकर्षित करे, वहाँ करने को कुछ नहीं है जो फलदायक या प्रेरणादायक हो। प्रारम्भ में लगभग आधे छात्र स्कूल में प्रवेश करते थे। जो आते वो भी एक दो घण्टी इधर-उधर घूमकर चले जाते। अद्र्धावकाश के समय पूर्णावकाश जैसा वातावरण बन जाता।
छात्रों को जोडऩे के लिए मैंने अभिभावकों के साथ सम्पर्क किया। यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आस-पास से आने वाले गाँवों के कुछ बच्चों का निरन्तर अनुपस्थित रहने से स्कूल से निष्कासन हो गया है, परन्तु वे अपने अभिभावकों से प्रतिदिन झूठ बोलकर पढ़ाई के लिए खर्च ले आते और सारा दिन बाजार, स्टेशन, सिनेमाघर में घूमकर घर लौट जाते। जब अभिभावकों को यह पता लगा कि स्कूल में उनका नामांकन भी नहीं तो उन्होंने दाँतों तले उँगली दबा ली।
कुछ अभिभावकों को सजग करके, छात्रों को समझाकर, खेलों के माध्यम से बच्चों को स्कूल से जोड़ा गया। नियमित प्रार्थना होने लगी। स्कूल में फूल-पौधे लगाये गये। स्कूल-भवन में पहली बार सफेदी हुई, लैब और पुस्तकालय की धूल झाड़ी गई। जहाँ गाली-गलौच व फिल्मी गानों का चलन था वहाँ भजन, प्रार्थना होने लगी। धीरे-धीरे वह भवन स्कूल का रूप लेने लगा। इस प्रक्रिया में कई अवसर ऐसे भी आए जब छात्रों, अभिभावकों, अधिकारियों व अध्यापकों के कारण मन कुंठित व कलांत हुआ। उन जैसा बन जाने का भी मन हुआ परन्तु आपकी प्रेरणा व आशीर्वाद ने मुझे बचा लिया।
शहरों से फैलता हुआ अब ट्यूशन का जाल कस्बों और गाँवों तक फैल गया है। इस विद्यालय के विज्ञान और गणित अध्यापक खूब ट्यूशन करते हैं। स्कूल से अधिक परिश्रम वे घर की कक्षाओं में करते हैं। अंग्रेजी का अध्यापक होने के नाते आरम्भ में कुछ विद्यार्थी मेरे पास भी ट्यूशन रखने आये थे। मैंने तो स्पष्ट कह दिया-स्कूल में मुझ से कुछ भी समझ लो, घर पर समझो आ जाओ, परन्तु ट्यूशन के रूप में नहीं। गुरु जी आपने ही बताया था कि ट्यूशन करने वाले अच्छे से अच्छे अध्यापक में भी कमजोरी आ जाती है। आपका अनुकरण करते हुए मैंने भी ट्यूशन न करने का संकल्प किया हुआ है। जो अध्यापक ट्यूशन नहीं करते, वे दूसरे पार्ट टाइम काम करते हैं। सामाजिक ज्ञान का अध्यापक प्रोपर्टी डीलर का काम करता है। बहुत कम स्कूल आता है और जब आ जाता है तो उसके कान पर फोन लगा रहता है। ड्राइंग मास्टर की स्टेशनरी की दुकान है, सुबह उसकी पत्नी और शाम को वह खुद दुकान पर बैठते हैं। संस्कृत शिक्षक, शास्त्री जी, विवाह-महूर्त, जन्म-पत्री, ज्योतिष आदि अनेक कामों में लगे रहते हैं। पी.टी.आई. दिन-रात अपने खेतों तथा पशुओं की देखभाल करने की योजना बनाता रहता है। सांय को दूध बेचता है और स्कूल में बैठकर सबका हिसाब जोड़ता है। संक्षेप में कहूँ तो पूरा स्कूल एक डिपार्टमैंटल सर्विसिज एजेन्सी-सा लगता है।
आपने ठीक लिखा है कि अध्यापक के शब्दों में बहुत ताकत होती है। दृढ़ इच्छा से कुछ भी कराया जा सकता है। मैंने कई छात्रों पर इसका प्रयोग किया। आपकी दया से सफलता मिली। उत्साह भी बढ़ा और अधिकारियों में साख बढ़ी। प्रत्येक मास जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में होने वाली मासिक बैठक में मुझे शैक्षिक सलाहकार के रूप में बुलाया जाने लगा है।
गुरु जी एक बात मैं सच्चे मन से आपके सामने रखना चाहता हूँ। जब मै छात्र था तो सोचता था गुरु जी सदैव बच्चों के पीछे पड़े रहते हैं। क्यों प्रतिदिन स्कूल आ धमकते हैं? कोई नेता क्यों नहीं मरता की स्कूल की छुट्टी हो जाए? क्यों बार-बार परीक्षा का आतंक दिखाया जाता है? परन्तु आज ये सब बातें बेमानी लगती हैं। कैसी नादानी थी उन दिनों। आज अध्यापक बनने के बाद साफ-साफ समझ में आ रहा है। छात्रों को श्रेष्ठ बनाने के लिए अध्यापक को कुछ तो अंकुश लगाना ही पड़ता है। कच्चे घड़े की मानिंद एक ओर से हाथ का सहारा देकर पीटना पड़ता है। तभी तो घड़े का सुन्दर व उपयोगी रूप बनकर निकलता है।
विद्यार्थियों के साथ खेलना मैंने आपसे सीखा था। आपके साथ इस सुखद समाचार को भी बाँटना चाहता हँू कि इस वर्ष हमारे विद्यालय की फुटबाल टीम ने जिला स्तरीय खेलों में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। हमारी टीम के पाँच छात्रों का चयन स्टेट में खेलने के लिए हुआ है। इन्हीं सफलताओं के कारण छात्र व अभिभावक मेरा बहुत सम्मान करते हैं। दूध, दही, लस्सी, अनाज, गुड़ न जाने क्या-क्या मेरे मना करने के बाद भी चुपचाप मेरे घर में रख जाते हैं। आपने सच लिखा था गुरुजी, यह सब मान-सम्मान और आनंद किसी और व्यवसाय में कहा..?
गुरु जी, ये सच है, मैं जार्ज बर्नाद शॉ के अनुसार जब कुछ न बन सका तो शिक्षक बन गया, परन्तु आप निश्चय रखा मैं अध्यापक बन तो गया, अब अध्यापक होकर भी दिखाऊँगा।
अपना आशीर्वाद यथावत बनाए रखना।
आपका शिष्य
राधारमण
सांकला, 2 अक्टूबर, 2010
प्रिय राधारमण,
उद्र्धोभव:। तुम्हारा दूसरा पत्र पढक़र मुझे जो खुशी और संतोष हुआ वह ऐसा ही था जो एक दीपक द्वारा दूसरे दीपक को प्रज्वलित करके होता है। माता-पिता और गुरु संसार में ऐसे प्राणी हैं जो अपने अनुज को अपने से भी बड़ा देखकर गर्व अनुभव करते हैं, क्योंकि उसमें उनका शारीरिक और वैचारिक अंश होता है।
आधुनिक युग में धन-लोलुपता को त्याग कर तुम ट्यूशन से अलग रहे हो तो मैं तुम्हें अपने से अधिक श्रेष्ठ बनाता हूँ। क्योंकि जिन दिनों मैंने ट्यूशन से बचने का फैसला किया था उन दिनों यह कार्य अधिक दुरुह नहीं था। परन्तु आज के भौतिक युग में यह बहुत कठिन कार्य है।
ऐसा नहीं है कि पूरा शिक्षक समाज आलसी, भ्रष्ट और गैर-जिम्मेदार है। यदि ऐसा होता तो शिष्यों का शिक्षकों से विश्वास उठ चुका होता। यूँ कहीं-कहीं ऐसा समाचार भी आ जाता है जो गुरु के सम्मान और प्रतिष्ठा पर प्रश्र चिह्न खड़ा कर देता है, परन्तु उन अध्यापकों की चर्चा नहीं होती जो चुपचाप मनोयोगपूर्वक अपने शिष्यों के सर्वांगीण विकास में लगे रहते हैं।
सांय के समय मैं दो घंटे बच्चों के साथ फुटबाल खेलता हूँ। बच्चों को तो लाभ होता ही है, परन्तु इससे मुझे जो स्वास्थ्य लाभ मिलता है उसी का परिणाम है कि पचास साल पार कर जाने के बाद भी लोग मुझे 35-40 का समझते हैं। यह क्या कम उपलब्धि है कि पचास साल बीत जाने के बाद भी मैंने आज तक किसी भी प्रकार की दवा का सेवन नहीं किया है। किसी अयोग्य छात्र को योग्य बनाने के लिए प्रेरित करना, उस पर उसका प्रभाव दिखाई देना सचमुच कितना संतोष और सुख प्रदान करता है इसका मैं आजकल अनुभव करने लग गया हूँ। पूरा दिन, सप्ताह, माह और एक वर्ष कब बीत जाता है पता ही नहीं चतला। पुराने छात्र जाने के बाद नये छात्र, नये अनुभव, नया संघर्ष, सब कुछ कितना मजेदार होता है, बताया नहीं जा सकता। आज के युग में रोजी-रोटी कमा लेना कोई मुश्किल कार्य नहीं है। रोजी-रोटी से पेट तो भर जाता है लेकिन एक मन की भूख होती है, ज्ञान की पिपाषा होती है, उसी को शांत करने के लिए एक शिष्य अपने गुरु के पास आता है। उन दोनों के बीच जब सही संवाद होता है तब शिक्षण का विकास होता है। यही निरन्तर संवाद ही अध्यापक को श्रेष्ठता प्रदान करता है।
एक अच्छा अध्यापक कभी नहीं मरता। वह अपने शिष्यों के विचारों में सदैव परिलक्षित होता रहता है। छात्र एक आइना होता है। तुम्हारे खतों को पढक़र आज मुझे अपने गुरु जी की याद आ गयी। उनका बहुत प्रभाव है मुझ पर। काश वो इस दुनिया में होते तो मैं उन्हें $खत लिखता।
राधारमण, मैं तुम्हें क्या बताऊँ अध्यापक तो एक राजा के समान होता है। राजा कंस ने अपने पिता को कारागार में डालने से पूर्व उनकी इच्छा जाननी चाही तो महाराज उग्रसेन ने समय व्यतीत करने के लिए कुछ शिष्यों को पढ़ाने की इच्छा व्यक्त की थी, तब दुष्ट कंस ने कहा था अभी तक सम्राट बनने की बू आपमें से गई नहीं। हमारे धर्म-शास्त्र इस बात के गवाह हैं कि राजा ने सदैव अपने गुरुओं को अपने से श्रेष्ठ और सम्मानित समझा है तभी तो अरस्तु ने सिकन्दर से कहा कि भारत से मेरे लिए एक गुरु लेकर आना। यही सच्चे गुरु की प्रतिष्ठा है और इसी प्रतिष्ठा को हमें बनायेे रखना है।
तुम्हारा
विद्याभूषण
राधारमण को इतना लम्बा पत्र लिखकर विद्याभूषण ने लिफाफे में बंद कर दिया। इत्मिनान से उसको एक तरफ रख पढऩे के लिए अखबार उठाया तो प्रथम पृष्ठ पर राज्य पुरस्कार के लिए श्रेष्ठ अध्यापकों की लिस्ट छपी हुई थी। लिस्ट में पहला ही नाम राधारमण का था। विद्याभूषण ने खड़े होकर पेपर उछाल दिया और आत्म-विभोर होकर नाचने लगे। एक क्षण ऐसा लगा की यह पुरस्कार उनके लिए ही घोषित हुआ है। वे राधारमण को हार्दिक बधाई देने के लिए सावधानीपूर्वक लिफाफे में पड़े खत को खोलने लगे।

-मधुकांंत

211 -एल, मॉडल टाऊन, डबल पार्क, रोहतक

कौन-सी ज़मीन अपनी-सुधा ओम ढींगरा

'ओये मैंने अपना बुढ़ापा यहाँ नहीं काटना, यह जवानों का देश है, मैं तो पंजाब के खेतों में, अपनी आ$िखरी साँसें लेना चाहता हूँ।' जब वह अपने बच्चों को यह कहता, तो बेटा झगड़ पड़ता, 'अपने लिए आप कुछ नहीं सहेज रहे और गाँव में ज़मीनों पर ज़मीन खरीदते जा रहे हैं।'
वह मुस्कराकर कहता-'ओ पुत्तर, तूं और तेरी भैण ने मेरा सिर ऊँचा कर दिया है, अमेरिका में मेरी मेहनत सफल कर दी है। मैंने तो आसमान छू लिया है... तूं डॉक्टर बन रहा है और तेरी भैण वकील। बेटा जी, इससे ऊपर तो मुझे और कुछ नहीं चाहिए। तुम नहीं समझ सकते, अभी बाप नहीं बने हो ना।'
बेटा बहस करता-'वह सब ठीक है पापाजी, पर एक घर तो बनवा लें, सारी उम्र दो रूम वाले टाऊन हाउस में गुजार दी। कल को हमारे बच्चे आपके पास आयेंगे तो कहाँ खेलेंगे?'
'पुत्तर जी, पंजाब के खेतों में बड़ा खुला घर बनवाऊँगा, वहाँ खेलेंगे। जब हम यहाँ सबसे मिलने आयेंगे, तब तेरे और तेेरी भैण के पास रहेंगे, वहाँ खेलने के लिए काफी जगह होगी...।'
बेटा उनकी जि़द्द के आगे हथियार डाल देता, बेबस सिर झटक कर घर से बाहर निकल जाता, 'ही विल नैवर चेन्ज।'
मनविन्दर भी तो बेबस हो जाती थी। दारजी और बीजी की चिट्ठी आते ही मनजीत सिंह सोढ़ी नवाँशहर 'पंजाब' में अपने भाइयों को ज़मीनें खरीदने के लिए पैसे भेज देता था।
मनविन्दर तड़प कर रह जाती, समझाने की सब कोशिशें बेकार हो जाती थी, 'सिंह साहब घर के खर्चों की ओर भी ध्यान दीजिए, ठीक है बच्चे स्कॉलरशिप पर पढ़ रहे हैं, पर उनके और भी तो खर्चे हैं, चार कारों की किश्तें जाती हैं। इतनी ज़मीनें खरीदकर क्या करेंगे?'
'मनविन्दर कौरे, जाटों की पहचान ज़मीनों से होती है।' बड़े गर्व से छाती चौड़ी कर मनजीत सिंह कहता।
यही बात झगड़े का रूप ले लेती, 'पर कितनी पहचान सरदार जी, कहीं तो अंत हो। वर्षों से आपके घरवाले ज़मीनें ही तो खरीद रहे हैं। पैसों का कोई हिसाब-किताब नहीं, यहाँ ज़मीन बिकाऊ है, वहाँ ज़मीन बिकाऊ है, यह टुकड़ा खरीद लो, गाँव की सरहद से लगे खेत ले लो। किल्ले पर किल्ले इक_े करते जा रहे हैं।'
मनविन्दर का पारा चढ़ते देख मनजीत घर से बाहर दौड़ लगाने चला जाता और फिर दूसरे दिन ही एक चैक पंजाब नैशनल बैंक में दारजी के नाम भेज देता। मनविन्दर बस रोकर रह जाती।
रोई तो वह तब भी थी जब मनजीत सिंह सोढ़ी से तीस वर्ष पहले उसकी शादी हुईथी। हालाँकि उसका तो सारा परिवार अमेरिका में था, फिर भी वह रोई थी, दादा-दादी को छोड़ते समय। मनविन्दर के दो भाई यूबा सिटी 'कैलिफोर्नियाÓ के खेतों में काम करते थे। नाज़ायज तरीके से वे अमेरिका में आये थे, पर मैक्सिकन लड़कियों से शादी कर जायज हो गये थे, यानी ग्रीन कार्ड होल्डर। पाँच साल बाद अमरीकी सिटीजन बनकर, उन्होंने अपना पूरा परिवार बुला लिया था। तब इमिग्रेशन के कायदे-कानून इतने सख़्त नहीं थे जितने अब हैं।
छह फुट लम्बे, कसरती, सुगठित गोरे सिख मनजीत सिंह को दादा-दादी ने ही तो पसंद किया था। माँ-बाप और दो छोटे भाई थे उसके। गरीब घर के बेटे को जानबूझ कर पसंद किया गया था, ताकि मनविन्दर की कद्र कर सके। नौजवान मनजीत, मनविन्दर के साथ आसूँ बहाता अमेरिका आ गया था।
मनजीत अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था और मनविन्दर नहीं चाहती थी कि उसके भाइयों की तरह उसका पति भी खेतों में काम करे। शादी से पहले ही अपने भाइयों को समझाकर, कायल करके, उसने उनसे बैंक में अग्रिम राशि...डाउन पेमैंट के रूप में दिलवा दी थी, और गैस स्टेशन का लोन लेकर, कैरी 'नार्थ कैरोलीना' में गैस स्टेशन खरीद भी लिया था।
शादी के बाद भारत से वे सीधे कैरी ही आये थे। मनजीत सिंह को जब तक ग्रीन कार्ड नहीं मिला, मनविन्दर गैस स्टेशन के व्यवसाय में मुख्य भूमिका में रही तथा बाद में मनजीत सोढ़ी उसका मालिक हो गया। मनविन्दर सिलाई-कढ़ाई में माहिर थी। गैस स्टेशन मनजीत के हवाले करके, उसने उसी समय अमरीकी दुल्हनों के कपड़े सीलने की दुकान शुरू की, जो बाद में 'वैडिंग गाउन बुटीक' बन गया। बुटीक खूब चल निकला और उसका काम इतना बढ़ गया कि बीस लोग मनविंद्र के साथ काम करने लगे-कुछ भारतीय मूल के थे और कुछ स्थानीय। अपने आकर्षक व्यक्तित्व और मधुर बोली से मनजीत कैरी शहर के सब समुदायों के लोगों में लोकप्रिय हो गया। तब गिने-चुने भारतीय थे, अब तो चारों ओर भारतीय ही नज़र आते हैं। लोग उन्हें प्यार से वीर जी और मनविंदर को भाभी जी कहने लगे थे।
तब से अब तक मनजीत का एक ही सपना रहा कि बुढ़ापा भारत में बिताना है। मनविंदर, मनजीत की इस उत्कंठा के आगे मजबूर हो चुकी थी, उम्र के इस पड़ाव में, वह भारत जाना नहीं चाहती थी, यह देश उसे अपना-सा लगता, उसका पूरा परिवार अमेरिका में फैला हुआ है। साथ-साथ फले-फूले वे मित्र, सालों पहले बने रिश्ते जो समय के थपेड़ों से प्रगाढ़ हुए, सब छोडऩा उसके लिए आसान नहीं था...ये रिश्ते जन्म से मिले रिश्तों से कहीं गहरे हो गए थे...जीवन की कडक़ड़ाती धूप, बरसात और ठंडक ने इन्हें पका दिया था। भारत के रिश्तों के लिए तो वे बस मेहमान बनकर रह गये थे, जो साल या दो साल में एक बार उन्हें, रिश्तेदार होने व अपनेपन का एहसास दिलाते थे।
मनजीत आज भी तीस साल पुराने सम्बंधों में ही जी रहा था। समय का परिवर्तन भी उसकी सोच व रिश्तों के प्रति दृष्टिकोण में कोई अन्तर न ला सका। भारत की प्रगति और बदलता परिमंडल भी उसकी ठहरी सोच के तालाब में कंकर फेंक, लहरें पैदा नहीं कर सका था। मनजीत को समझाना मनविंदर के लिए बहुत मुश्किल हो रहा था, वह हर समय तनाव में रहने लगी थी।
बच्चों ने अपनी पसंद से शादियाँ कर लीं। मनविंदर ने सोचा कि शायद अब मनजीत के स्वभाव में कुछ परिवर्तन आ जाये, घर में बहू और दामाद आ गये हैं। पर मनजीत अपने आप को हर जि़म्मेदारी से मुक्त समझने लगा और मन ही मन पंजाब में घूमता रहा। अपने खेतों में पहुँच जाता... तीनों भाई गन्ने के खेतों में घूमते, गन्ने चूसते फिर गन्ने के रस से दार जी गर्म-गर्म गुड़ बनाते और तीनों भाई गर्म गुड़ की भेली सूखी रोटी के साथ खाते। शक्कर में एक चम्मच देसी घी और डलवाने की मनजीत जि़द करता, छोटे भाई बिलबिलाकर, पैर पटक-पटककर अपनी कटोरियाँ बीजी के आगे करते। ऐसे में बीजी बड़ी समझदारी से दोनों छोटों को प्यार से सहलातीं, मुस्कराते हुए कहतीं-'मनजीता मेरा जेठा पुत्तर है, इसने बड़ा हो के सानू सब नूं संभालणा है, इस नूं ताकत दी बहुत ज़रूरत है।Ó और दोनों छोटों की कटोरी मेें आधा-आधा चम्मच घी डाल देतीं। सरसों का साग और मकई की रोटी परोसते समय भी बीजी चाटी में हाथ डालकर मु_ीभर मक्खन उसके साग पर डाल देतीं और लस्सी के छन्ने को भी मक्खन से भर देती थीं। छोटों को वे आधे हाथ के मक्खन में ही टाल जातीं।
नींद में भी मनजीत गाँव वाले घर पहुँच जाता... आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित पक्का घर, ट्रैक्टर, काम$गार और... बीजी का बार-बार मनजीत का माथा चूमना, छोटों का गले लगना और साथ सटकर बैठना। दार जी का, अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए गर्दन अकड़ा कर अपने दोस्तों को सुनाना-'पुत्तर होवे तां मनजीता वरगा, अमरीका जा के वी एॅह सानुं नहीं भुलिया। साडा पेट भर गया, पर एॅह डालर भेजता नहीं थकिया... ज़मीनां जट्टां दा स्वाभिमान हुंदा है... मेरे पुत्तर ने मेरा मान रखिया।'
सुबह मनजीत तरोताजा और ऊर्जा से भरपूर उठता... सारा दिन इसी तरंग में रहता कि इतना प्यार करने वाले परिवार में बुढ़ापा कितना बढिय़ा गुज़रेगा। बेटा-बेटी तो अपनी जि़न्दगी में व्यस्त हो गये हैं। कभी सोचता कि ज़मीनों के दो-चार टुकड़े बेचकर गाँव का स्कूल ठीक करवा दूँगा, दीवारें काफी गिर गई हैं, कुछ कम्प्यूटर भी ले दूँगा... बच्चों को पढ़ाई की सख़्त ज़रूरत है, उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। अगर वह पढ़ा-लिखा होता तो अमरीका में इतनी सख्त मेहनत न करता, डॉक्टर, साइंटिस्ट, इंजीनियर बनकर वह भी सम्पन्न जीवन जीता।
मनजीत अपने आप से बातें करता-'दार जी नहीं मानेंगे, वे गुरुघर को चंदा देना चाहेंगे। बीजी को समझाकर उन्हें भी मना लूँगा।'
सुुखद कल्पनाओं और भारत लौटने की चाह में वह दिन गिन रहा था। अंतत: वह दिन भी आ गया। मनजीत को गैस स्टेशन खरीदने वाला मिल गया, पार्टी ऐसी थी जिसने बुटीक भी खरीद लिया।
बस अब जल्दी-जल्दी घर का सारा सामान गैराज सेल में रखा गया और कुछ सामान बच्चे ले गये। जो नहीं बिका उसे वियतनाम वैटेरंस वाले अपने ट्रक में उठा कर ले गये।
मनजीत को अमेरिका में दिन काटने मुश्किल हो रहे थे और मनविंदर उदास-परेशान रहने लगी, उसके सिर में हर समय दर्द रहने लगा। बात-बात में झगडऩा उसकी दिनचर्या हो गई थी। मनजीत की दृढ़ता के आगेे भारत जाने का वह खुलकर विरोध नहीं कर पा रही थी। चुप, शांत यंत्रवत-सी वह सारे काम कर रही थी।
'बैंक जाकर मैं सारा पैसा पहले ही वहाँ परिवार में भिजवा देता हूँ, ताकि जाते ही काम शुरू करवा दूँ।Ó मनजीत के इस कथन से मनविंदर के अंदर का लावा ज्वालामुखी बन फट पड़ा। 'खबरदार! सरदार मनजीत सिंह, अगर इस पैसे को हाथ लगाया। मैं और हमारे बच्चे भी आपका परिवार हैं, सिर्फ पंजाब में ही आपका परिवार नहीं बसता... और आप तो वर्षों से कहते आये हैं कि वहाँ कुछ ज़मीन बेचकर सारे काम पूरे करेंगे, कल ही मैं जाकर इसे वकोविया बैंक में जमा करवा दूँगी सी.डी. में।'
मनविंदर की कडक़ आवाज़ भी मनजीत को विचलित नहीं कर पाई और वह अपने मीठे लहज़े में फिर बोला-'सरदारनी जी, इतना गुस्सा ठीक नहीं, हमने इस देश में वापिस थोड़े ही आना है, गये तो पलटकर क्या देखना?'
मनविंदर बिखर पड़ी-'क्या बच्चों को मिलने नहीं आयेंगे? तब उनसे पैसे माँगेंगे, पोते-पोती, नवासे-नवासी को गिफ्ट देने के लिए बच्चों के आगे हाथ फैलायेंगे?'
वह शांत लहज़े में बोला-'ओ मेरी हीरे, अपने राँझे की बात गौर से सुन, हमारे बच्चों को इस पैसे की ज़रूरत कहाँ है। डॉक्टर और वकील के पास तो रब्ब की मेहर होती है... गिफ्ट हम पंजाब से लायेंगे।'
मनविंदर का धैर्य अब जवाब दे गया था-'नवांशहर में इस पैसे की ज़रूरत है? जहाँ ज़मीनों की कीमतें आसमान छू रही हैं। अपनी जि़द पर अगर अड़े रहे तो, आप अकेेले ही भारत जायेंगे, मैं यहाँ इसी टाऊन-हॉउस में रह कर बच्चों को मिलने जाती रहूँगी और आप पंजाब में अपने परिवार के साथ बुढ़ापा बिताना।'
यह सुनते ही मनजीत ढीला पड़ गया... मनविंदर के व्यक्तित्च के इस पहलू से वह वाकि$फ था। बेवजह वह उत्तेजित नहीं होती, पर अगर कोई निर्णय वह ले ले, तो उसे वापिस मनाना भी आसान नहीं।
आसान तो मनजीत को कुछ भी नहीं लग रहा, दो दिन बाद वापसी है और पल-पल काटना कठिन हो रहा है। मन खेतों की मेड़ों और पैलियों में झूम रहा है और धड़ यहाँ घिसट रहा है। पंजाबी गुट और अन्य समुदायों ने विदाई की पार्टी दी, पर मनजीत ने बस औपचारिकता निभाई। मनजीत का मन अमेरिका से उचट गया था।
कैरी से न्यूयार्क और न्यूयार्क से दिल्ली तक का सफर एयर इंडिया के जहाज़ में, उसने तो सो कर या रब ने बनाई जोड़ी फिल्म देखकर काटा। टाऊन हॉउस को बेचा नहीं गया, बच्चों ने जि़द करके, इस तर्क के साथ कि उनका बचपन और जवानी उसमें बीती है, उसे अपने पास रख लिया था। फिलहाल उसे किराये पर चढ़ा दिया गया, किरायेदार को सौंपने और सामान की पैकिंग करने से मनविंदर बहुत थक गई थी, वह तो सारे रास्ते सोती गई। दोनों की आपस में कोई ज्य़ादा बातचीत नहीं हुई।
मनविंदर कई दिनों से गुमसुम थी, मतलब की बात करती, मनजीत कुछ पूछता बस उसी का उत्तर देती, उससे ज्य़ादा कभी नहीं बोलती।
पर उसके पास मनविंदर की तर$फ ध्यान देने का समय ही कहाँ था... वह तो भारत जाने के सरूर में मस्त था... जहाज़ में भी उसे महसूस नहीं हुआ कि मनविंदर किस अप्रतिम वेदना से गुजर रही है। मूवी देखकर वह सो गया।
मनविंदर को प्यास लगी और उसकी आँख खुल गई। एयर होस्टेस से उसने पानी मंगवाया। साथ की सीट पर बच्चों की तरह सो रहे मनजीत को वह अपलक निहारती रही...।
इसके प्यार की $खातिर वह गृहस्थी की तकली पर सुतती रही, पर कभी उ$फ नहीं की... अब तो उसकी भावना ही अटेरनी चढ़ गई है... वह बस अटेरी जा रही है... और इसे $खबर भी नहीं है।
आदमी अपनी धुन में औरत से इतना बे$खबर कैसे हो जाता है? जिससे प्यार करता है, उसकी अग्रि-परीक्षा लेते हुए उसका दिल क्यों नहीं दुखता? दादी कहती थी, आदमी की जि़द बच्चों जैसी होती है, प्यार से मना लेते हैं... पर यहाँ तो प्यार, गुस्सा कुछ काम नहीं आया। सोचों ने उसका सिर भारी कर दिया और थकान भी शरीर को ढ़ीला करने लगी, नींद हावी हो गई... उसने सिराहना उठाया, जहाज़ की खिडक़ी के साथ टिकाया और टाँगों को अपनी छाती के साथ लगाकर कुर्सी पर गठड़ी-सी बन कर, सिराहने से टेक लगाकर, कम्बल ओढक़र सो गई।
जैसे ही जहाज़ ने इंदिरा गांधी एयरपोर्ट का रनवे छुआ, मनजीत सिंह की आँखों में आँसू आ गये। '30 वर्षों की कैद से छूटकर आ रहा हूँ।' कहते हुए उसने नैपकिन से अपने आँसू पोंछे। मनविंदर खिडक़ी से बाहर एयरर्पोट की चहल-पहल देखती रही। कस्टम की औपचारिकता निभाकर जब सरदार मनजीत सिंह एवं बीबी मनविंदर कौर बाहर निकले तो भतीजों ने फतेह बुलाकर स्वागत किया। मनजीत बाग-बाग हो गया... दो भतीजे वैन लेकर आये थे।
दिल्ली से नवाँशहर जाने में पाँच घंटे लगे।
ऊबड़-खाबड़ सडक़ों के हिचकोले, चारों ओर उड़ती धूल देख पहली बार मनविंदर बोली-'भारत कितनी भी तरक्की कर ले, सडक़ें कभी भी ठीक नहीं होंगी... प्रदूषण तो बढ़ता ही जा रहा है।'
मनजीत ने बीच में ही बात काट दी-'सोनिओ, अपने देश की तो धूल-मिट्टी का भी आनंद है। 30 वर्ष में गोरों की धरती पर मिट्टी का सुख भी नहीं मिला।'
'ताया जी, वहाँ बिल्कुल धूल नहीं होती, कैसे इतनी सफाई रखते हैं?' बड़े भतीजे सुखबीर ने पूछा।
'अमरीका बड़ी प्लानिंग के साथ बना हुआ है। बड़ी-बड़ी इमारतें मिलेंगी या साफ-सुथरी सडक़ें, खुली जगह तो बहुत कम देखने को मिलती है। खाली जगह को भी घास और फूलों से भर देते हैं, ताकि धूल न उड़े।'
'पर ताया जी सडक़ों की मरम्मत करते समय और इमारतें बनाते समय तो गंद पड़ता होगा, धूल-मिट्टी उड़ती होगी।'
'पुत्तर जी, उनके काम करने के ढंग भी बहुत विचित्र हैं। एक ट्रक फैला-बिखरा सामान उठा ले जाता है और दूसरा ट्रक पानी की टंकी लाता है और सारी जगह धो जाता है।'
सुखबीर आँखें फैलाकर बोला-'हैं, ताया जी फिर तो आप स्वर्ग में रहते हैं।'
'नहीं ओय, स्वर्ग में काले पानी की सज़ा है, सब कुछ ऊपरी, बनावटी और बेरंगी दुनिया है। भावनाएँ, गहराई, सच्चाई और रस तो अपने देश में है।' मनजीत सिंह अपनी मस्ती में बोलता जा रहा था। भतीजे सुन रहे थे और मनविंदर पिछली सीट पर इन सब बातों को अनसुना करते हुए सो गई थी।
घर में प्रवेश करते ही बीजी, दार जी ने आशीर्वादों के साथ दोनों के माथे चूम लिए। ऊपरी मंजिल पर एक कमरा ठीक कर दिया गया था। उनका सामान वहीं टिका दिया गया। जल्दी-जल्दी खाना खिलाया गया। एक बात ने दोनों का ध्यान आकर्षित किया कि रसोई भतीजों की पत्नियों के हवाले थी और उनमें से कोई भी सुघड़ गृहणी जैसा व्यवहार नहीं कर रही थी... सभी काम को निपटाने और जल्दी-जल्दी समेटने में लगी हुई थीं। उनका अधैर्य स्पष्ट नज़र आ रहा था।
आधी रात में मनविंदर पेशाब के लिए जब नीचे गई तो मनजीत भी उसके साथ नीचे आया। ऊपर कोई बाथरूम नहीं था, नई जगह और घना अंधेरा था। वह जानता था मनविंदर अंधेरे से बहुत डरती है। उसने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा-'मेरी रानी, कुछ दिन तकलीफ सह ले, मैं तुझे बहुत बड़ा और अच्छा-सा घर बनवाकर दूँगा। बहुत साल तुमने इंतज़ार किया है।'
मनविंदर कुछ बोली नहीं थी, बस गहरी साँस लेकर चुप हो गई थी।
दूसरे दिन मनजीत तो भाई-भतीजों के साथ खेतों में चला गया। पूरे गाँव और आस-पास की अपनी ज़मीने देखने।
मनविंदर बहुओं के साथ रसोई में जाने लगी तो बीजी ने टोका-'नहीं मन्नी कुछ दिन तां आराम कर लै, करन दे इन्हां नु कम।' बीजी प्यार से मनविंदर को मन्नी कहती थी। 'बीजी मैं खाली नहीं बैठ सकती। साथ काम करवा देती हूँ। जल्दी निपट जायेगा।'
मनविंदर रसोई में गई तो थोड़ी देर बाद सब बहुएँ एक-एक करके वहाँ से खिसक गईं। कोई कपड़े धोने और कोई कपड़े सुखाने के बहाने। मनविंदर अकेली ही रसोई में लगी रही। उसे तो हर तरह के काम की आदत थी। अमेरिका में हलवाई, धोबी, बावर्ची, मेहतरानी वह खुद ही तो थी। उसे हैरानी तो इस बात की हुई कि एक भी देवरानी उसका साथ देने नहीं आई। एक सिर में तेल लगाती रही, दूसरी बीजी के और अपने शरीर की मालिश करती रही। वे उससे बेपरवाह, बेखबर धूप में बैठी, अपना बदल सहलाती रहीं।
सारा कुनबा जब थका-हारा घर लौटा तो मनविंदर ने बड़े प्यार और मुहब्बत से सबको खाना खिलाया।
लक्खी से रहा नहीं गया, कह ही दिया उसने-'भाभी बीजी दी रसोई दी याद आ गई, आप दियां देवरानिया तां निक्कमियां ने, नुआं उन्हां तो वी गईयां गुज़रियां, बीजी तां सब कुछ छड़ के बैठ गए, इन्हांनू अकल कौन दवे?'
'वीरा, ऐसा नहीं कहते घर की औरत को, वह तो लक्ष्मी का स्वरूप है। उसको सम्मान देते हैं, चाहे वह कैसी भी हो।' मनविंदर ने मुस्कराकर कहा।
मुस्कराकर ही तो लक्खी ने पूछा था-'भराजी, किन्ने दिन रहन दा इरादै, कमरा छोटे काके दै। दोनों पति-पत्नी ड्राईंग रूम विच सोंदे ने।'
'हम यहाँ हमेशां के लिए, आप लोगों के साथ रहने, परिवार की धूप-छाँव का आनंद लेने आए हैं।' मनजीत ने अपने दार जी से कहा।
इतना सुनते ही सबके चेहरों के भाव बदल गये। एक बेरुखी-सी झलक आई, उन सबके मुस्कराते चेहरों पर।
'बच्चे तां अमरीका च ने, उन्हां तो बिना तेरा दिल किंज लगेगा?' बीजी ने निर्विकार भाव से कहा।
'बीजी, हर साल हम उन्हें वहाँ मिलने जाएंगे और छुट्टियों में वे यहाँ हमारे पास आएंगे। अमरीका में मैंने आप सब को बेइंतिहा याद किया... यहाँ आने तक आप सबको बहुत मिस करता रहा, माँ आप मेरे दिल में हर समय रही हैं।'
'तीस सालां बाद वी?'
'हाँ माँ, 30 सालां बाद वी। जहाँ मिली रोटी वहाँ बाँधी लंगोटी...अमरीका के इस कल्चर को मैं अपना नहीं पाया। आपको नहीं पता, मैंने वहाँ दिन कैसे काटे?' मनजीत ने वहाँ जीवन कैसे बिताया...किसी ने यह जानने में रुचि नहीं दिखाई।
लक्खी का चेहरा कठोर हो गया-'ज़मीनों पे ह$क जमाने आये हो?'
'ह$क कैसा लक्खी, मैंने ही तो पैसा भेजा था, सारी ज़मीनें हम सब की ही तो हैं। एक टुकड़ा बेचकर, मैं अपना घर बनवा लूँगा ताकि सब आराम से रह सकें।' मनजीत का स्वर दृढ़ था।
बीजी की कडक़ती आवाज़ उभरी-'तीस साल पहिलां मेरा पुत्तर मैथों खोह लिया, हुन ज़मीना, एक सब तेरे कारनामे ने, मेरा मनजीता इंज दा नहीं, कन्जरिये।'
मनजीत और मनविंदर सन्न रह गये।
सहनशीलता का दामन छोड़ते ही शर्म का पर्दाभी हट गया, मनविंदर भडक़ उठी-'पानी वार कर आपने ही कहा था-नुएं संभाल मेरे पुत्तर नूं, तेरे हवाले कीता, इसनूं अमरीका विच पक्का करवा दई। डालरां ने तां पिंड अमीर कर दिते ने, इसदी कमाई साडी वी गरीबी हटा दवेगी।'
'गरीबी तो हट गई पर पैसे की गर्मी ने रिश्ते ठंडे कर दिये। इस उम्र में कु$फर ना तोलें बीजी, रब्ब से डरें, मनजीत आपका सौतेला बेटा नहीं, आपका हिस्सा है। क्यों आप मुझे गालियाँ देकर मुँह गंदा कर रही हैं। हम कुछ छीनने नहीं आये, बस आपके दिलों में थोड़ी-सी जगह चाहते हैं, सालों से आपके नाम की माला जपने वाला आपका पुत्तर यहीं रहना चाहता है, आपके पास।'
दार जी बिना कुछ कहे उठ गये और उनके साथ ही सब अपने कमरों में चले गये।
कुछ दिन दोनों के लिए बहुत कष्टप्रद रहे। घर में सबने बोलचाल बंद कर दी थी। मनजीत अपने ही घर में अजनबी बन गया था। मनविंदर का गुस्सा उसकी बेबसी देखकर शांत हो गया था। वह उसके लिए चिंतित हो उठी थी। परिवार के प्रति उसकी भावनाएँ मनविंदर से छिपी हुई नहीं थीं। जानती थी कि कितनी शिद्दत से वह अपने परिवार को चाहता है और उनके व्यवहार ने उसे भीतर तक तोड़ दिया था। वे स्वंय ही खाना बनाते, अकेले खाते, सब उनसे कटे-कटे दूर-दूर रहते।
मनजीत अब भी अपने पुराने बीजी, दार जी और भाइयों के सपने लेता। सपना टूटने के बाद करवटें बदलते रात निकाल देता। वर्तमान स्थिति उसे मानसिक तनाव दे रही थी। वह स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि माँ-बाप, भाई ऐसे कैसे इतना बदल सकते हैं। ज़मीनों ने रिश्ते बाँट दिये थे, जिन पर सरदार मनजीत सिंह ने सारी उम्र मान किया था। मन और बुद्धि में संघर्ष चल रहा था, कभी मन अर्जुन बन, रिश्तों के भावनात्मक पहलू की दुहाई देता और कभी बुद्धि वासुदेव बन हक की लड़ाई को प्रेरित करती। अगर रिश्ते आँखों पर पट्टी बाँध लें तो उन्हें खोलनी ही पड़ेगी। उसके अन्दर महाभारत का युद्ध चल रहा था, भावनाएँ पाण्डव बन, कौरव बने रिश्तों का स्वभाव एवं व्यवहार समझ नहीं पा रही थीं, उसका कसूर क्या था? रिश्तों को हद से ज्य़ादा चाहना या उस चाहत में सब कुछ भूल जाना और स्वंय को मिटा डालना। संबंधों के लाक्षागृह के जलने से अधिक वह बीजी, दार जी के बदलते मूल्यों और मान्यताओं से आहत हुआ था।
इसी द्वंद में वह एक रात पानी पीने उठा तो नीचे के कमरे में कुछ हलचल महसूस की, पता नहीं क्यों शक-सा हो गया। दबे पाँव वह नीचे आया, तो दार जी के कमरे से फुसफुसाहट और घुटी-घुटी आवाज़ें आ रहीं थीं।
दोनों भाई दार जी से कह रहे थे-'मनजीते को समझाकर वापिस भेज दो, नहीं तो हम किसी से बात कर चुके हैं, पुलिस से भी साँठ-गाँठ हो चुकी है। केस इस तरह बनाएंगे कि पुरानी रंजिश के चलते, वापिस लौटकर आये एन.आर.आई. का कत्ल। केस इतना कमज़ोर होगा कि जल्दी ही र$फा-द$फा हो जाएगा। बेशक अमरीका की सरकार भी ढूँढ़ती रहे, कोई सुराग नहीं मिलगा,ऐसी अट्टी-सट्टी की है।'
मनजीत सिंह का सारा शरीर पसीने से भीग गया और वह वहाँ खड़ा नहीं रह सका। शरीर की सारी ऊर्जा कहीं लुप्त हो, बदन को ठंडा कर गई। चलने की हिम्मत नहीं रह गई थी अपने आप को घसीटता हुआ वह कमरे में लौटा और बिसतर पर धड़ाम से गिर गया। मनविंदर की नींंद टूट गई, वह उसके काँपते शरीर और चेहरे का उड़ा रंग देखकर बहुत घबरा गई। मनजीत ने बाईं ओर अपने दिल पर हाथ रखा हुआ था।
'सरदार जी दर्द हो रहा है तो डॉक्टर को...।' मनविंदर ने अपनी बात अभी पूरी भी नहीं की थी कि मनजीत ने उसका हाथ अपने सीने पर रख लिया-'दर्द नहीं, दिल टूटा है, अपनों ने तोड़ा है। टूटे दिल के टुकड़े संभाल नहीं पा रहा हूँ। तेरी बातों को अनसुना कर मैं सारी उम्र तुझे पराई समझता रहा और अब अन्दर तड़पन है, जो सुनकर आया हूँ, क्या वह सच है? जान नहीं पा रहा हूँ कि कौन-सी ज़मीन अपनी है?'
मनविंदर ने अपनी उंगली मनजीत के होंठों पर रखकर उसे चुप करा दिया। वह बहुत कुछ समझ गई थी और उछलकर बिस्तर से नीचे उतरी। सौष्ठव देहयष्टि वाली मनविंदर ने मनजीत को बाँहों में भर कर उसे उठने में मदद कर, अपना पर्स उठाया और आधी रात में ही दोनों पिछले दरवाजे से निकल गये। उनके पाँव के नीचे वही ज़मीन थी, जिसके लिए मनजीत उम्रभर डॉलर भेजता रहा।
चारों तरफ गहरा काला अंधेरा था।
-डॉ.सुधा ओम ढींगरा अमेरिका

कुमार शर्मा 'अनिल' की कहानी "हरामी"



आम की फुनगी हिली और तपती दुपहर में लू से बदहवास टिटहरी उड़ी तो सुखिया चाची की बदहवास आँखेें एक विश्वास का बोझ उठाये आम की कच्ची बरौनियों पर टिक गई। जून के बयालीस डिग्री तापमान और उमस में पसीने और आँसुओं के गंगा-जमुनी संगम में नहाया सुखिया चाची का सोच में गुम चेहरा। मैं सूती साड़ी के कोर से धीरे-से उनकी आँखें पोंछता हूँ तो बिलख उठती है चाची-''हरामी...मरने से पहले ये भी ना सोचा कि बूढ़ी कौन के सहारे जिएगी।" करूणा और ममता से भीगे शब्द मुझे अंदर तक भिगो जाते हैं।
''हरामी..." धरमवीर का हर वक्त तमतमाया-सा चेहरा मेरी आँखों के आगे घूम गया।
''साला कौन बहन का यार कह सकता है दावे से कि वह हराम की औलाद नहीं। तू बोल किसना! तू कर सकता है दावा कि चाचा ही तेरे असली पिता हैं। बुरा मत मानियो... कमला चाची के चरित्र पर छींटे नहीं उछाल रहा हूँ...मेरी माँ जैसी है कमला चाची। लेकिन तू बता किसना... साला दुनिया का कौन आदमी इस बात की गारंटी देता है कि...।"
क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात ही नहीं कहता, वह केवल वही कहता है जिससे दूसरों का दिल दुखे। मैं उसे समझाता-''तू क्यों लोगों की बातों पर कान देता है। हर बात को घुमा फिराकर वहीं... उसी बात पर ले आता है कि तेरा जन्म चाचा के मरने के बाद विधवा चाची की कोख से हुआ। तुझे तो अब कहते हैं लोग... चाची ने तो पूरा जीवन सही हैं गाँव भर की गालियाँ। किस तरह पाला है उन्होंने तुझे... सबसे लडक़र। एक माँ की तरह नहीं, एक बाप बनकर।"
''अम्मा को कोई दोष नहीं देता मैं..."- वह तैश में आ जाता-''वह चाहती तो मुझे कोख में ही मार सकती थी। गुस्सा तो मुझे इन गाँव वालों पर है जो अम्मा को दोषी मानते हैं और मुझे हरामी कहते हैं। इन सालों को इस बात का दुख है कि मर क्यों नहीं गई अम्मा... मुझे जन्म क्यों दिया... पाला-पोसा क्यों...?" असहाय क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठता-''तू देखियो किसना, जिस दिन भी मुझे पता चला कि कौन था वो... उसी दिन उसकी बहू-बेटियों का भी वही हश्र करूँगा... बस पता चलने दे मुझे।"
''क्या करेगा तू?" मैं उसे समझाता। ''कुछ उल्टा-सीधा करके जेल जाएगा और जैसे अब तक रोती रही हैं सुखिया चाची वैसे ही आगे भी रो-रोकर अपनी जान दे देंगी... इस बारे में सोचा है तूने?"
''मुझे नहीं मतलब किसी से... मुझे बस बदला लेना है। और किसना, बदला मुझे अपनी अम्मा की बेइज्जती का नहीं लेना... बदला लेना है मुझे अपनी बेइज्जती का... समझ गया तू?" वह तेजी से वहाँ से चल देता।
धरमवीर बचपन से ही मेरा दोस्त था। हम साथ खेले-पढ़े थे। बचपन से ही ना जाने क्यों मुझे उससे सहानुभूति थी। गाजियाबाद से सटे इस गाँव की कुल आबादी पाँच हजार भी नहीं थी तब। सारे गाँव में सभी एक दूसरे को नाम से पहचानते थे। दूर-दूर तक फैले खेत, कच्ची सडक़ें और पगडंडियाँ... विकास से कोसों दूर। गाँव में स्कूल मात्र आठवीं तक था और आठवीं तक ही धरमवीर और मैं साथ-साथ पढ़े थे। आठवीं में फेल होने के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और घर की खेती संभाल ली। पढाई में उसका शुरू से ही मन नहीं लगता था। इसका एक कारण यह भी था कि स्कूल के बच्चे ही नहीं मास्टर जी भी उसे हरामी कहते। शुरू-शुरू मेें मेरी तरह उसे भी हरामी शब्द मात्र एक गाली की तरह लगता, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, इस शब्द का अर्थ समझने लगा था। गाँव के दकियानूसी माहौल में हमउम्र बच्चों को उनके माँ-बाप की ओर से सख्त मनाही थी कि वे धरमवीर के साथ ना ही खेलें और ना ही उसके घर जायें। सिर्फ एक मेरा घर था जहाँ उसका आना-जाना था। वह भी इस कारण कि वह मेरे पड़ोस में रहता था और मेरा सबसे अच्छा दोस्त था। जब माँ-बाबूजी दबे स्वर में उसका विरोध करते तो मैं उसके समर्र्थन में खड़ा हो जाता-''सजा तो उसको मिलनी चाहिए थी जिसने अपराध किया है। आप धरमवीर को किस बात की सजा देना चाहते हो? सभी जानते थे कि यह अपराध गाँव के ही किसी दबंग व्यक्ति का है। ...तो जिन लोगों पर शक था उनसे खुलकर पूछताछ क्यों नहीं की गई? उस समय तो गाँव की बदनामी का डर दिखाकर सुखिया चाची को पुलिस मेें रपट तक नहीं लिखाने दी। असली अत्याचार तो चाची और धरमवीर के साथ हुआ है"-मैं तैश में आ जाता-''और अपराधी अब भी खुला घूम रहा है।"
''सब जानती है वह कुलच्छिनी..." -अम्मा अपनी खीज उतारतीं-''विदेशी नहीं था कोई... आँखों पे पट्टी नहीं बंधी थी उसके... रात में इतना अँधेरा भी नहीं होता कि... अंधेर है अंधेर...।" अम्मा बड़बड़ाती हुईं सामने से हट जातीं।
मैं अन्दर ही अन्दर गुस्से से उफनता रहता। पूरा गाँव जानता था कि खेतों में पानी लगाकर लौटते वक्त रात सुनसान गन्ने के खेतों में अपना चेहरा छुपाए व्यक्ति ने जब चाची से बलात्कार किया था तो चाची ने बुरी तरह घायल होने की हद तक विरोध किया था। स्कूल के अभिलेखों मेें यद्यपि उसके पिता के नाम की जगह सुखिया चाची के स्वर्गीय पति वीरभान का ही नाम दर्ज था, किन्तु जल्दी ही उसे पता चल गया था कि वीरभान की मृत्यु तो उसके जन्म के एक वर्ष पूर्व ही हो चुकी थी। उसका बाप कौन है? यह प्रश्र उसे बौखला देता।
आठवीं में वह फेल हुआ और आगे पढऩे से इंकार कर दिया। सुखिया चाची उसे बहुत प्यार करतीं। उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य वही था। जब वह छोटा था और खेल-खेल में बच्चे आपस में झगड़ पड़ते तो धरमवीर को आहत करने का ब्रह्मास्त्र उन्हें पता था-हरामी। यही वह शब्द था जिसे सुनकर वह बौखला जाता। बच्चों का यह झगड़ा तब बड़ों तक पहुँच जाता और चाची हमेशा धरमवीर का पक्ष लेतीं। यही कारण था कि गाँव भर के बच्चों को उनके माता-पिता ने उसके साथ खेलने की मनाही कर रखी थी। स्वभाव से भी वह कुछ जिद्दी और अक्खड़ किस्म का था। बात-बेबात झगड़े पर उतर आता। उसके इस स्वभाव के पीछे उसका नाजायज संतान होना मुख्य कारण था। परन्तु चाची का उसके प्रति अटूट, एकनिष्ठ प्यार भी एक वजह थी, क्योंकि वह इससे चिढ़ता था।
मैं उसे समझाता-''तू क्यों चाची की भावनाओं को ठेस पहुँचाता है? इस बात में तो कोई शक नहींं कि तेरा जन्म उसकी कोख से हुआ है। जमाने भर के ताने सुनकर भी उन्होंने तुझे पाला-पोसा है। माँ और बाप दोनों का प्यार दिया है तुझे।"
''सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए किसना... अम्मा को अपने बुढ़ापे के लिए एक सहारा चाहिए था बस"-वह फिर तैश में आ जाता-''मुझे चिढ़ होती है अम्मा के इस तरह प्यार करने से। तेरी भी तो माँ है। क्या वह इस तरह तेरे पीछे छाया की तरह लगी रहती है? अब मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं।"
''हर माँ इसी तरह अपने बच्चों का भला चाहती है। ...और फिर तुझे वह अपने बुढ़ापे का सहारा समझती है तो इसमें बुराई क्या है?"-मैं समझाता-''मेरे माँ-बाप भी मुझसे यही अपेक्षा रखते होंगे।"
''मैं इसे गलत तो नहीं कह रहा। माँ-बाप अपने बच्चों के लिए इतना कुछ करते हैं तो उन्हें हक है ऐसा सोचने का। सारी दुनिया इसी लेन-देन पर चलती है। सारे रिश्ते स्वार्थ पर टिके हैं... यही सच्चाई है। बाकी सब ढकोसला है। कौन नहीं जानता कि एक औरत दो वक्त की रोटी और सामाजिक सुरक्षा के नाम पर अपना शरीर और आत्मा आदमी के पास गिरवी रख देती है और आदमी अपनी शारीरिक भूख के बदले में औरत को पालता है... पालतू कुतिया की तरह। बस एक यही रिश्ता है आदमी-औरत का... बाकी सब दिखावा। पूरे गाँव में ये जितनी भी औरतें हैं ना सब की सब अपने आदमियों की पालतू हैं।"
''इसका मतलब एक रिश्ते के अलावा और कोई रिश्ता नहीं है इस दुनिया में?" मैं नाराज हो जाता-''तू एक बीमार मानसिकता को पाल रहा है।"
''जानता हूँ मैं... लेकिन काश ऐसा नहीं होता। मैं चाहूँ तो भी अम्मा का सहारा नहीं बन सकता"-वह मेेरे पास से उठ जाता।
''मैं चाहूँ तो भी अम्मा का सहारा नहीं बन सकता।" उसके इस कथन का आशय मैं समझता था। अतीत की कंदराओं के यातना-कक्ष से उठता स्मृतियों का आर्तनाद हमेशा उसके अवचेतन मन में गूूँजता रहता। चाची से वह दिलोजान से प्यार करता था, परन्तु दिखावा ऐसा करता जैसे वह उनसे चिढ़ता हो। इसके पीछे उसकी वही बदला लेने की मनोवृत्ति थी जिसको उसने अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानकर पोषित किया था। ...और इस उद्देश्य की पूर्ति के बाद वह जानता था कि वह चाहकर भी अपनी माँ का सहारा नहीं बन सकता। वह कहता यही था कि मुझे अपनी माँ की नहीं बल्कि अपनी बेइज्जती का बदला लेना है, परन्तु सिर्फ मैं जानता था कि उसकी आँखों में आँसू सिर्फ तभी आते थे जब वह कहता था-''किसना जब किसी औरत के साथ बलात्कार होता है ना तब उसमें उसके जिस्म को नहीं बल्कि उसकी आत्मा को इतनी गहरी चोट पहुँचती है कि उसे अपने वजूद से नफरत हो जाती है। मुझे नहीं पता दुनिया में ऐसी कौन-सी सजा है जो उस व्यक्ति को वही अनुभूति कराये जो औरत को होती है। तू बता किसना, तू तो इतना पढ़ा-लिखा है। मैं उसे वही महसूस कराना चाहता हूँ जो अम्मा ने उस वक्त महसूस किया होगा। बरसों से मैंने अम्मा को रात के अन्धेरे में सुबकते हुए देखा है... सुना है। लेकिन मैं उसे सांत्वना भी नहीं दे सकता... क्या कहूँ उसको... भूल जा। जिस बात को मैं भूलना नहीं चाहता उसके लिए उसको कैसे कहूँ कि भूल जा"-वह मेरे कन्धे से लगकर सुबकने लगता- ''अम्मा ने बहुत अच्छा किया जो मुझे जन्म दिया वरना उसके अपमान का बदला कौन लेता।"
प्रेम और नफरत आदतों को अविश्वसनीय ढंग से बदल देते हैंं। प्रेम और नफरत में डूबा आदमी बड़ी से बड़ी चुनौती लेने को आमादा हो जाता है। सुखिया चाची के प्यार ने धरमवीर की उस बदला लेने की मनोवृत्ति का पोषण ही किया, क्योंकि मात्र दो वर्षों के अन्दर ही वह अपराध की दुनिया का एक ऐसा सितारा बन गया जिसके दुस्साहस से पूरे जिले में दहशत फैल गई। हत्या, लूटपाट और बैंक डकैती के अनेक मुकदमों में वह नामजद था।
सिर्फ हफ्ते पहले की बात है। मैं कॉलेज से लौटकर आया तो वह मेरे इंतजार में हॉस्टल के गेट पर मौजूद था। मैं आश्चर्य चकित रह गया-''तू यहाँ? पता है पूरे जिले की पुलिस तुझे ढूँढती फिर रही है?"
वह मेरे गले लग गया-''और मैं तुझे ढूँढता फिर रहा हूँ... तुझे तो यहाँ कोई जानता ही नहीं किसना।"
''तीन हजार स्टूडेंट हैं यहाँ... कौन किसको जानता है"-मैं चिंतित हो उठा-''तुझे सब जानते हैं किसी ने पहचान लिया तो...?"
''तू चिंता मत कर। आँख और दिमाग से आदमी पहचानता है, परन्तु बोलता तो जुबान से है ना...। किसकी हिम्मत है जो अपनी जुबान खोले। अच्छा ये सब छोड़...। मैं तेरे पास इसलिए आया था कि तू मेरे साथ गाँव चल। मुझे थोड़ी हिम्मत रहेगी... अम्मा के सामने। बहुत नाराज है वो मुझसे।"
''क्या करेगा गाँव जाकर...? सुखिया चाची को तूने कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।" -मैं छिटक गया।
''तू जानता है किसना... कसम से मैंने आज तक कोई अपराध नहीं किया। एक भी नहीं। हाँ, इस गुट में मैं शामिल हूँ... पर वो सिर्फ इसलिए कि मैंने बदला लेना है, अपने अपमान का। उस बदले के बाद जो अम्मा कहे या तू कहे... एक बार कह कर देखियो... कनपटी से लगाकर घोड़ा दबाने में एक सेकेण्ड भी नहीं लगाऊँगा। जो सजा देना चाहो, दे दीजियो... पर उस आदमी को मैं माफ नहीं करूँगा। अम्मा तो सिर्फ रात को ही रोती थी... मैं तो चौबीसों घंटे कलपा हूँ। काश! कोई तो तरीका होता यह जानने का कि वह कौन था?"
''बीस बरस हो गये धरमवीर.. बीस बरस। कहते हैं वक्त के साथ आत्मा पर लगी चोट के घाव भी भर जाते हैं। पर तूने तो इन बीस बरसों में इन घावों को नासूर बना लिया।"
''सच.. एकदम सच। यही तो चाहता था मैं...। इस घाव को खरोंच-खरोंचकर नासूर बनाना। इतना कि इसके मवाद और सड़ांध से मेरा जीना दूभर हो जाए। किसना... नहीं चाहता मैं जीना... बिल्कुल नहीं चाहता। लेकिन मैं मरूँगा भी नहीं तब तक जब तक अपना बदला ना ले लूँ।"
''कब तक जीएगा तू? पुलिस तेरे पीछे हाथ धोकर पड़ी है। पूरा गाँव तेरा दुश्मन है। तेरे जैसे हिस्ट्रीशीटर को पुलिस गिरफ्तार नहींं करती, सीधा एनकाउंटर करती है।"
''तू यह सब नहीं जानता किसना... तुझे बताना भी नहीं चाहता मैं। तेरे पास मैं आज सिर्फ इसलिए आया हूँ कि तू मेरे साथ गाँव चल। कुछ मेरे साथी भी होंगे। गाँव के सिर्फ दो चार लोग हैं जिनमें से ही कोई एक था इस अपराध में शामिल। बस उन्हीें से इस बार बात करनी है। लगता है मैं जो सोच रहा हूँ वही सच है। और अगर यह सच नहीं भी है तो यह अपराध मैं करने जा रहा हूँ कि वे सारे... हाँ... सारे के सारे। अब और ज्यादा सहने का मादा नहीं है मेरा।"
''अच्छा किया तूने मुझे बता दिया धरमवीर, क्योंंकि अब मैं तेरे साथ गाँव नहीं जा रहा हूँ।"
''चल ठीक है फिर...। तेरी तरह बातों को तर्क की कसौटी पर परखने की बुद्धि नहीं है मुझमें। एक तरह से यह ठीक भी है। दुनिया में दो ही लोग हैं जो मेरी कमजोरी हैं... एक अम्मा और दूसरा तू।" वह अपने छह फुट लम्बे शरीर के साथ सीधा खड़ा हो गया... ''आखिरी बार गले तो मिल ले"-उसने अपनी बलिष्ठ बाहें एक मासूम बच्चे की तरह फैला दीं। मैंने अपने कमजोर से शरीर को जब उसकी बाहों के हवाले किया तो एक बार मुझे फिर अहसास हुआ कि उसके चौड़े और मजबूत सीने में एक बहुत ही संवेदनशील दिल है।
''सिर्फ तुझसे कहूँगा किसना... मैं इस गिरोह से जुड़ा हुआ जरूर हूँ... अपने मकसद से... लेकिन मैंने अब तक किसी अपराध में हिस्सा नहीं लिया। पुलिस के सारे मामले झूठे हैं"-मैंने देखा उसकी आँखों में आँसू हैं, जिन्हें छुपाते हुए वह एकाएक कमरे से बाहर निकल गया-''एक तू ही तो था जो मुझ पर विश्वास करता... बाकी तेरी इच्छा।"
जब मैं गाँव पहुँचा तब मुझे पूरी कहानी पता चली। अपने चार साथियों के साथ जिन तीन लोगों पर उसे शक था उन्हें बंधक बनाकर वे गाँव के बाहर बने उस पवित्र मंदिर में ले गए जहाँ पुजारी रामदरस अपने परिवार सहित रहते थे। पुजारी रामदरस बड़े ही धार्मिक प्रवृति के थे और गाँव भर में उनका सम्मान था। गाँव के उस पुरातन मंदिर में गाँव वालों की बड़ी आस्था थी और उसकी कसमेें खाई जाती थीं।
आगे की कहानी बस इतनी है कि दोषी उन तीनों में से कोई नहीं था, लेकिन उसके बदमाश साथियों की नजरों में पुजारी रामदरस की बीस वर्षीया लडक़ी पूजा आ गई। उसे उठाकर जब वे खेतों में बने एक ट्यूबवैल पर ले गए तब धरमबीर अपने घर सुखिया चाची से मिलने आया हुआ था।
पुजारी रामदरस रोते-गिड़गिड़ाते सुखिया चाची के घर पहुँचे और उसके कदमों में गिर पड़े-''बचा ले उसे... मेरा कहा नहीं मानेगा धरमवीर।"
अंदर कमरे में बैठा धरमवीर सब सुन रहा था। वह क्रोध से चिल्लाया-''कोई नहीं बचाएगा चाचा... यह तो इस गाँव की परम्परा रही है"-वह बाहर निकल आया-''अम्मा भी तब ऐसे ही गिड़गिड़ाई होगी। तब आया था गाँव का कोई मर्द उसे बचाने? अब इस गाँव में हरामी ही पैदा होंगे, चाचा।''
पुजारी रामदरस धरमवीर के कदमों में गिर पड़े-''तुझसे नहीं कहूँगा, धरमवीर... पूजा को बचाने के लिए। लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि यह सब देखने से पहले मुझे गोली मार दे... कर ले अपना बदला पूरा। मैं ही हूँ तेरा अपराधी। माँ को तो बचा नहीं सकता था... बहन को बचा सकता है तो बचा ले।"
अगले दिन अखबार में तो बस इतना छपा था कि आपसी गैंगवार में चार ईनामी बदमाश ढेर हो गए।


-कुमार शर्मा 'अनिल' चंडीगढ़

Sunday, February 12, 2012

जीत का जश्र - रघुविन्द्र यादव




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01.26.2012
जीत का जश्र-रघुविन्द्र यादव
मैं सुबह घर से जल्दी ही निकल लिया ताकि शाम होने से पहले काम ख़त्म करके वापस घर पहुँच जाऊँ। लगभग 20 किलोमीटर दूर ही गया था कि आगे रोड जाम थी। पता करने पर मालूम हुआ कि गाँव के बस अड्डे पर सुबह हिसार जाने वाली बस नहीं रुकती इसलिए लोगों ने जाम लगाया हुआ है। मैं गाड़ी साइड में लगाकर जाम लगा रहे लोगों के पास पहुँचा तो पाया कि वहाँ केवल 20-22 साल उम्र वाले 15-20 युवकों का एक समूह था, जिसने जाम लगाया हुआ था और कोई बुजुर्ग उनके साथ नहीं था।
युवक किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि बस चाहे कितने लम्बे रूट की हो उनके गाँव से गुज़रे तो ज़रूर रुके। इसी बीच वहाँ राज्य परिवहन की एक बस आ गई। सारे युवक उस पर टूट पड़े। पहले पत्थरों और लाठियों से उसके शीशे तोड़ डाले और फिर उसे आग के हवाले कर दिया। इससे कई सवारियों को चोटें भी आईं। इसके बाद जो भी सरकारी वाहन वहाँ आता उसकी यही हालत युवक कर रहे थे। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की- "बसें तो राष्ट्रीय सम्पति हैं, बसें तोड़कर तो आप अपना और देश का ही नुकसान कर रहे हैं। आज जितनी बसें आप इस रूट की जला देंगे, कल उतनी इस रूट पर और कम हो जाएँगी।"
युवक बोले- "हमें देश से कुछ नहीं लेना, हमें तो ड्राइवरों की मरोड़ निकालनी है। आप अपना काम करो और हमें अपना करने दो।"
करीब आधे घंटे बाद पुलिस बल के साथ जीएम रोडवेज़ मौके पर पहुँचे और उन्होंने युवकों की माँगें मानकर जाम खुलवाया।
शाम को जब मैं वापस लौटते वक़्त उसी गाँव के पास पहुँचा तो सुबह वाले ही युवक सड़क पर आतिशबाज़ी कर रहे थे और नाच रहे थे । जिसके कारण जाम लगा हुआ था और दोनों ओर के वाहन सड़क खुलने का इन्तज़ार कर रहे थे। मैंने उतरकर उन युवकों से आतिशबाज़ी का कारण पूछा तो वे बोले- "भारत ने पाकिस्तान को क्रिकेट मैच में हरा दिया है। हम देश की दुश्मन पर जीत का जश्र मना रहे हैं।"
सुबह मामूली-सी बात पर राष्ट्रीय सम्पति को तोड़फोड़ कर आग के हवाले करके देश को लाखों का नुकसान पहुँचाने वालों की क्रिकेट में जीत पर देशभक्ति देखकर मैं स्तब्ध रह गया।

Monday, June 27, 2011

लघुकथाएं

मिथ्या प्रलाप 

बेटे को देखने आये मेहमानों के साथ बैठक में बैठा रामसिंह टी.वी. पर समाचार देखते हुए कह रहा था-"सारी व्यवस्था ही भ्रष्ट हो गयी है, बिना पैसे दिए कहीं  कोई काम नहीं होता. सरकार तो बिलकुल निकम्मी हो गयी है, किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करती. सब चोर हैं साले."
तभी लड़की के पिता ने पूछा-"आपके लड़के की तनख्वाह कितनी है?"
"अरे साहब, तनख्वाह को छोडिये. तनख्वाह तो तीस हजार रूपया महिना ही है, जो आज तक उसने अपने खाते से निकलवाई ही नहीं. उसकी एक महीने की ऊपर की कमाई ही आठ से दस लाख रूपया है. जे.ई . है मेरा बेटा जे.ई. राम सिंह गर्व से बोला. 

अपना खून 
अस्पताल पहुँचने के घंटे भर बाद ही सविता को डिलीवरी रूम में ले जाया गया. डिलीवरी सामान्य हो गयी और कुछ ही देर बाद गाँव से उसके साथ आई नर्स दो बच्चों को गोद में उठाये उसके पास आई. नर्स ने निराशा भरे स्वर में कहा,"सविता, तुम्हारी तो तीसरी भी बेटी ही हुयी है, कहो तो मई सीमा के बेटे से इसे बदल देती हूँ. उसके तो पहले ही दो लड़के हैं और तीसरा भी लड़का ही हुआ है, जो अभी मेरी गोद में ....."
नर्स की बात पूरी होने से पहले ही सविता चीख उठी-"नहीं बहन जी, मुझे मेरी बेटी ही प्यारी है. मैं बेटे के लालच में अपनी बेटी किसी और को नहीं दे सकती, वह मेरा अंश है. बेटी है तो क्या हुआ है तो मेरा अपना खून. मैं बेटे के लिए अपने खून का सौदा नहीं कर सकती.

अलग-अलग पैमाने
रेलवे स्टेशन पर बैठी एक महिला किसी मुसाफिर  को गालियाँ दे रही थी. आसपास बैठे लोगों से कह रही थी -"बेरहम ने जरा-सी बात पर मासूम को दो तमाचे जड़ दिए. अरे! बच्चा था, इसे क्या पता था की खींचने से चश्मा गिर जायेगा और गिरा ही था टूटा भी नहीं. फिर भी कमीने ने मेरे चार साल के पौते को पीट दिया. पता नहीं उसके घर में कोई बच्चा है या नहीं. मै तो कहती हूँ बच्चे तो सबके एक जैसे ही होते हैं. इसीलिए उन्हें भगवन का रूप माना जाता है. मै तो....."
इससे पहले  की महिला बात पूरी करती सामने की बेंच पर बैठे एक बच्चे ने हाथ में ली हुयी गेंद फर्श पर फेंक दी. जो उछल कर महिला के चश्मे पर जा लगी. गेंद लगते ही वह आग-बबूला हो गयी. बोली हरामजादे, अभी बताती हूँ तुझे, मेरा चश्मा टूट जाता तो.....पूरे पाँच सौ का बना है, तुझे यही जगह मिली थी खेलने को...."  कहते हुए उसने अपने पौते से भी कम उम्र के उस बच्चे को दो थप्पड़ लगा दिए.
अब तक अपने पौते की वकालत में बच्चों को भगवन का रूप बताने वाली महिला के इस दोगले चरित्र को देखकर लोग हैरान रह गए.