विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, March 16, 2024

चम्पू विधा को पुनर्जीवित करने में महती भूमिका निभाएगी : ‘गाँव का महंत’ कृति

साहित्य तीन शैलियों में लिखा जाता है। गद्य, पद्य काव्य और चंपू| गद्य में कहानी, उपन्यास आदि लिखे जाते हैं, वहीं पद्य में कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, दोहे आदि लिखे जाते हैं| जबकि चम्पू काव्य इन दोनों का मिश्रण होता है| यानि इसमें गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है| गद्य और पद्य में हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं और लिखी जा रही हैं। लेकिन  उपलब्ध जानकारी के अनुसार अभी तक चंपू शैली में कुछ चुनिंदा रचनाएँ ही प्रकाशित हुई हैं। जिसमें अथर्ववेद को संस्कृत का पहला प्रमाण माना जाता है, जिसमें गद्य और पद्य दोनों के माध्यम से विषय का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि 10वीं से 17वीं शताब्दी के बीच सोमदेव सूरी की यशस्तिलक, भोजराज की चंपू रामायण, कवि कर्णपुरी की आनंद वृन्दावन, जीवा गोस्वामी की गोपाल चम्पू, नीलकंठ दीक्षित की नीलकंठ चम्पू और अनंत कवि की काव्य और चम्पू दोनों कविताएँ थीं। ये सभी रचनाएँ संस्कृत में लिखी गई थीं। हालाँकि ये रचनाएँ काव्यात्मक रूप में अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकीं।

हिन्दी में चम्पू शैली में लेखन का श्रेय मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद को है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा हिन्दी में लिखित "यशोधरा" और जय शंकर प्रसाद द्वारा लिखित 'उर्वशी' ने यह ख्याति अर्जित की, जो चम्पू ग्रंथ साहित्य की श्रेणी में गिनी जाती है। इनके अलावा चंपू शैली की एक भी रचना हिन्दी में प्रकाशित हुई हो, प्राप्त नहीं हुई। आज तक किसी भी भाषा में चंपू शैली में कोई "आत्मकथा" लिखी हो इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते|

“गाँव का महंत” चर्चित सरपंच राधेश्याम गोमला की चम्पू काव्य में लिखी गई आत्मकथा है| जिसे निर्मला प्रकाशन दादरी (हरियाणा) ने प्रकाशित किया है| पुस्तक को पाँच खण्डों में बाँटा गया है और आगे प्रत्येक खंड को चार-चार, पाँच-पाँच उपखण्डों में विभक्त किया गया है| प्रथम अध्याय में लेखक ने अपना संक्षिप्त-सा और गाँव का परिचय दिया है| बताया है कि कैसे उनके पिता को गाँव का महंत बने रहने का संत से आशीर्वाद प्राप्त हुआ और वे निर्विरोध सरपंच बने| कैसे वे प्रभावशाली हुए और कैसे एक गलत निर्णय से उनके साथी ही उनके विरोधी हो गए और गाँव में पार्टीबाज़ी का जन्म हुआ|

दूसरे अध्याय के विभिन्न उप-खंडों में पिता के विरोधी के सरपंच बनने और गलत लोगों के हाथों खेलने, गुटबाजी के चरम पर पहुँचने| भाई कि नौकरी लग जाने, ताऊ की मौत हो जाने, खुद पर मुकदमा दर्ज होने और पिता के चुनाव हार जाने आदि घटनाओं का विवरण दिया गया है|

तीसर अध्याय में गाँव में आरक्षित श्रेणी के सरपंच बनने और उसे बनाने में अपनी और अपने परिवार की भूमिका का ज़िक्र लेखक ने किया है| इसके बाद लेखक ने सक्रीय राजनीति में भाग लेने, पत्रकारिता करने और विभिन्न घटनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने कि चर्चा की गई है| उन घटनाओं का ज़िक्र किया गया है, जिन्होंने उन्हें गाँव में लीडर के रूप में मान्यता दिलवानी शुरू की और परिवार का विश्वास मिला|

अध्याय चार और पाँच में उनके सरपंच बनने से प्रदेश और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले उनके कार्यों और अन्य गतिविधियों का सचित्र चम्पू काव्य में विवेचन किया गया है| कैसे उन्होंने पहले सरकार के सहयोग से गाँव का चहुंमुखी विकास किया और फिर बिना शासकीय मदद के गाँव के सहयोग से अपने गाँव को आदर्श गाँव बनाकर देश-दुनिया का ध्यान अपनी और अपने गाँव की ओर खींचा इसका खुलासा किया है|

उनकी यह कृति दो दो तरह से महत्त्वपूर्ण है| एक तो यह चम्पू काव्य में लिखी गई आत्मकथात्मक संभवतः पहली कृती है और दूसरे उनकी इस विकास यात्रा से भावी पीढ़ी और समकालीन जनप्रतिनिधि प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं|

आशा है लुप्तप्राय हो चुकी चम्पू विधा को पुनर्जीवित करने में यह कृति महती भूमिका निभाएगी, वहीं मित्र राधेश्याम की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाने से सफल रहेगी| लेखको को बधाई और शुभकामनाएं |

रघुविन्द्र यादव

Sunday, October 22, 2023

समय से संवाद करते दोहों का संग्रह : देगा कौन जवाब

     “देगा कौन जवाब” श्री राजपाल सिंह गुलिया का नवीनतम दोहा संग्रह है| अयन प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस 104 पृष्ठीय हार्ड बाउंड कृति में जीवन जगत से जुड़े विभिन्न विषयों पर उनके 552 दोहे संकलित किये गए हैं|

कवि ने दोहों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, विसंगतियों और राजनैतिक विद्रूपताओं को जमकर बेनकाब किया है, वहीं मनुज के दोगलेपन, स्वार्थ लोलुपता और रिश्तों का खोखलापन भी उजागर किया है| दोहाकार ने बढती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और कानून व्यवस्था की बदहाली के साथ-साथ न्याय व्यवस्था पर भी सवाल खड़े किये हैं| श्री गुलिया ने भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता और धर्म की सियासत पर भी अपनी लेखनी चलाई है| उन्होंने मीडिया और तकनीक के दुष्प्रभाव, पर्यावरण-प्रकृति, मदिरापान, बचपन आदि विषयों को भी अपना कथ्य बनाया है| संग्रह में कुछ नीतिपरक दोहे भी शामिल हैं|

स्वार्थ, आपाधापी और भाई भतीजावाद के इस दौर में आम आदमी के लिए कहीं कोई जगह नहीं है| वह हर दिन कुआँ खोदता है और पानी पीता है| उसकी जिन्दगी कोल्हू के उस बैल जैसी हो गई है, जो चलता तो दिनरात है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं है| कवि ने सुंदर दोहे के माध्यम से इसे व्यक्त किया है-

हुई अश्व-सी ज़िन्दगी, दौड़ रहे अविराम|

चबा-चबाकर थक गए, कटती नहीं लगाम||

जिस देश में कल तक माता-पिता को देव कहा जाता था, उसी देश में आज माँ-बाप को अपने ही बच्चों की उपेक्षा और प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है| उन्हें प्रतिदिन दो रोटी के लिए ज़लील होना पड़ता है तो अंतिम समय में भी बच्चे उन्हें सहारा देने नहीं आते| कवि ने इस पीड़ा को दोहों के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया है-

दे दी सुत को चाबियाँ, कहकर रीतिरिवाज|

उस दिन से वह हो गया, टुकड़ों को मुहताज||

संग्रह के लगभग सभी दोहे कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से परिपक्व हैं| कवि ने मुहावरों, अलंकारों और प्रतीकों का प्रयोग करके दोहों की प्रभावोत्पादकता को बढाया है|

जली-कटी सुन आपकी, बही नयन यूँ पीर|

नम लकड़ी का आग में, रिसता है ज्यूँ नीर||

सहज सरल भाषा में रचे गए इन दोहों में कहीं-कहीं देशज और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी प्रसंगवश हुआ है| कुछ दोहों का कथ्य, शिल्प ही नहीं, भाव और भाषा भी देखने लायक है-

उतना सुलगा यह जिया, जितना भीगा गात|

छनक-छनक कर चूड़ियाँ, जागी सारी रात||

पुस्तक का शीर्षक प्रासंगिक, आवरण आकर्षक और छपाई तथा प्रस्तुतिकरण सुंदर है| हाँ, प्रूफ की अशुद्धियाँ कुछ जगह अवश्य दृष्टिगोचर होती हैं| एक दो दोहों में शिल्पगत दोष भी रह गए हैं| कुल मिलाकर यह एक पठनीय दोहा संग्रह है जो पाठक को इस दौर की कडवी सच्चाईयों से रूबरू करवाता है|

                                                                  -रघुविन्द्र यादव


Saturday, July 22, 2023

धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक जीवन : एक रोचक कृति

"धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक जीवन" अहीरवाल में जन्में और दौसा में सेवारत श्री राजेन्द्र यादव 'आजाद' द्वारा सम्पादित और राइजिंग स्टार्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 248 पृष्ठों की एक ऐसी कृति है जिसमें स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उनके जानकारों, उनके सानिध्य में रहे लोगों और उनके प्रशंसकों द्वारा प्रकाश डाला गया है| इनमें कवि, शिक्षक, पत्रकार, राजनेता, डॉक्टर, वकील, इंजिनियर और सामान्यजन भी शामिल हैं| लेखक ने अधिकतर टिप्पणियाँ और आलेख सोशल मीडिया के माध्यम से संकलित किये हैं|
पुस्तक की शुरुआत कवि उदय प्रताप सिंह  की काव्यात्मक श्रद्धांजली से की गई है| इसके बाद धरतीपुत्र का जीवन परिचय, नेताजी का हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान, पांच दशक का लम्बा सफ़र, शिक्षक से रक्षामंत्री तक का सफ़र आदि आलेख दिए गए हैं | 
संपादक राजेंद्र यादव ने मुलायम सिंह यादव के लगभग दो दर्जन किस्से स्वयं प्रस्तुत किये हैं, वहीं चन्द्र भूषण सिंह के हवाले से भी लगभग अढाई दर्ज़न नेताजी से जुडी बातों को स्थान दिया गया है| पुस्तक में लगभग 80 ऐसे लोगों के उद्गार भी शामिल किये गए हैं, जिन्होंने अपने निजी संस्मरण साझा किये हैं| इनमें पत्रकार राजीव रंजन, उर्मिलेश, वीर विनोद छाबड़ा, राजीव नयन बहुगुणा, योगेश यादव, हाफ़िज़ किदवई, समालोचक वीरेंदर यादव, केन्द्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, डॉ. लाल रत्नाकर, लक्ष्मी प्रताप सिंह, सत्येन्द्र पी एस, रामप्रकाश यादव, कर्नल शरद सहारण, आवेश तिवारी, प्रख्यात चिकित्सक डॉ ओमशंकर यादव और अन्य बहुत से नामचीन लोगों द्वारा लिखे गए प्रसंग प्रकाशित किये गए हैं| 
पुस्तक में नेताजी के देहावसान के समय आये कुछ शोक संदेशों को भी स्थान दिया गया है, जिनमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पूर्व सांसद डॉ कर्णसिंह यादव, वेद प्रकाश मीना, राव बिजेंद्र सिंह (रानी की ड्योढ़ी), सोबरन सिंह, विजेंद्र सिंह मुंड, रमेश सिंह आदि के उदगार शामिल हैं| 
पुस्तक में जहाँ नेताजी मुलायम सिंह यादव के जीवन की तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध है, वहीं उनके द्वारा किये गए कार्यों का लाभार्थियों और प्रत्यक्ष्दार्शियों द्वारा उपलब्ध करवाया गया ब्यौरा भी उपलब्ध है| उनके जीवन के रोचक किस्सों ने पुस्तक को रोचक बना दिया है| पुस्तक में नेताजी के बहुत से छायाचित्रों को भी स्थान दिया गया है| जिनमें कहीं सेना के टैंक पर खड़े होकर सैनिकों से मिल रहे हैं तो कहीं चौधरी चरण सिंह और कासीराम जी के साथ नजर आ रहे हैं| कहीं परिवार के सदस्यों, कहीं अभिन्न मित्रों और कहीं राजनेताओं के साथ हैं| 
आवरण पर नेताजी का सुंदर रंगीन छायाचित्र पुस्तक को आकर्षक बना रहा है| राजेंद्र जी अगर थोड़ी मेहनत और कर लेते तो मुझे उम्मीद है, कुछ और अच्छे आलेख नेताजी के जानने वालों से मिल सकते थे और पुस्तक की सामग्री का और बेहतर वर्गीकरण किया जा सकता था| लेकिन वर्तमान स्वरुप में भी पुस्तक पठनीय और रोचक है| कैसे एक साधारण सा व्यक्ति धरतीपुत्र बन गया, यहाँ जानने के लिए यह पुस्तक पढ़ी जानी चाहिए|
इस श्रम साध्य कार्य के लिए राजेंद्र यादव 'आजाद' बधाई के पात्र हैं|  

Tuesday, June 20, 2023

अहीरवाटी बोली का पहला कुण्डलिया छंद संग्रह है : आयो तातो भादवो

“आयो तातो भादवो” श्री सत्यवीर नाहड़िया को थोड़ा दिन पहल्यां छप्यो अहीरवाटी बोली को कुण्डलिया छंद संग्रह सै| अमें नाहड़िया का लिक्ख्या हुया 300 छंद छप्या सैं| नाहड़िया नै दुनियादारी सै जुड़ी घणखरी बातां पै छंद लिक्ख्या सैं| छन्दां म्हं रिश्ता-नाता, बेरोजगारी, महँगाई, तीज-त्यौहार, भाण-बेटी, खेल-खिलाड़ी, आबादी, संत-फकीर, नेता-महापुरुष, फौजी, जात-पात, धर्म का झगड़ा, गरमी-सरदी, मेह, लोक-परलोक, खेती-किसानी, चीन, पकिस्तान, भासा, दान-दहेज़, कैंसर, करोना, तीर्थ-नहाण, चेले-चमचे, गुरु, डीजे, कर्ज़ा-हर्जा सारी बात कवि नै लिक्खी सैं|

कवि ने गावां म्हं कही जाण आळी कहावत अर मुहवारा भी अपणा छन्दां म्हं ले राख्या सैं, इनका लेणा सैं छंद बहोत आच्छ्या बणगा| यो छंद देखो-

आयो तातो भादवो, पड़ै कसाई घाम।

के तै मारै घाम यो, के साझा को काम।

के साझा को काम, कहावत घणी पुराणी।

फूंक बगावै खाल, बड़ां की बात सियाणी।

फिक्को साम्मण देख,  नहीं झड़ लांबो लायो।

बचकै रहियो ईब, घाम भादो को आयो।

तीन सौ छन्दां म्हं कवि नै गागर म्हं सागर सो भर दियो| या तो बात हुई छन्दां का बिसय की|

अर जित तायं छन्दां का सिल्प की बात सै कुण्डलिया छंद लिखणा आसान काम ना सै, इसम्हं दोहा अर रोला छंद को ज्ञान होणों जरुरी सै अर साथ म्हं कुण्डलिया की भी जानकारी होणी चावै, जब जाकै कुण्डलिया लिक्ख्यो जाय सै| पर नाहड़ियो घणा ही दिनां सै छंद लिख रह्यो सै अर कती एक्सपर्ट हो रह्यो सै| किताब का छन्दां म्हं कमी को कोई काम ना सै| अर अं किताब की एक ख़ास बात और सै, वा या के या किताब अहीरवाटी बोली का छन्दां की पहली किताब सै, अं किताब सै पहल्यां छन्दां की किताब तो घणी ही छप लई, पर अहीरवाटी बोली म्हं आज तायं ना छपी| यो काम नाहड़िया नै लीक सै हटकै करयो सै| नाहड़िया जी घणी बधाई को पातर सै| यो छंद भी देख ल्यो-

हरयाणा की रागनी, रही सदा बेजोड़|

टेक कळी अर तोड़ की, कौण करैगो होड़|

कौण करैगो होड़ अनूठी सै लयकारी|

छह रागां की तीस, रागनी लाग्गैं न्यारी|

किस्से अर इतिहास, सदा सुर कै म्हं गाणा|

रीत गीत को मीत, रहै साईं न्यूँ हरयाणा||

किताब को कवर, छपाई अर कागज सारी चीज बढ़िया सैं, अर रेट भी 175 रुपया वाजिब ही सै| कुल मिलाकै बात या सै कि किताब नै खरीद कै पढोगा तो थारा पैसा वसूल हो जायंगा|

रघुविन्द्र यादव


Thursday, May 4, 2023

कटु यथार्थ की बिम्बावली : आस का सूरज

    दोहा तथा कुंडलिया छंद के क्षेत्र में विशेष आवाजाही रखने वाले सशक्त हस्ताक्षर रघुविन्द्र यादव का पहला ग़ज़ल संग्रह है – आस का सूरज। इसमें सम्मिलित 91 ग़ज़लों के कथ्य का उम्दापन, किसी भी कोण से यह आभास नहीं होने देता कि यह पहला संग्रह है। अपनी बात के अन्तर्गत ग़ज़लकार ने लिखा है – जब आँचल परचम बन सकता है तो ग़ज़ल भी धारदार और सच कहने का औजार बन सकती है। हमारी ग़ज़लों में अंतिम व्यक्ति की बात, समाज के हालात, पूंजी के उत्पात और जाति-धर्म के नाम पर हो रहा रक्तपात ही प्रमुख मुद्दे हैं।

    उपरोक्त कथनी पर खरी उतरती हैं ये ग़ज़लें। अपने कथ्य में विशेष हैं ये और विशेष हैं सम्प्रेषणीयता के गुण में। बात सीधी-सी, पर घाव गहरा। है न कमाल! लुकाव-छुपाव में कुछ नहीं रखा, भला लगे या बुरा, जो कहना सो डंके की चोट पर कहना। फिर निशाने के सामने राजा हो या प्रजा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इस आशय से वे लिखते हैं –

दिन को केवल दिन लिखना है हमको तो

जिनको सच कड़वा लगता है रूठेंगे।
***
बोझ ही कहते रहे समझा नहीं अपना
वोट जिनको थे दिए सरकार की खातिर।
            ***
बेच देगा मुल्क भी कल रहनुमा
दिख रहे हैं आज ही आसार से।

     दो राय नहीं कि सच्चाई सदा कड़वी होती है लेकिन जिस प्रकार मलेरिया के निवारणार्थ कड़वी कुनीन खा कर सुकून मिलता है, उसी प्रकार मिठास के मुहाने की तमन्ना है तो पहले कड़वाहट का पान करना ही होगा। सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रूपता का बिम्ब देखिए –

कानों को पीड़ा देते हैं

बजते फूहड़ गीत कबीरा। 

सत्ता की खामियों की पोल खोलना लेखनी का धर्म समझकर लिखा है –

सच बोला तो चुन देगी,

सत्ता अब दीवारों में।
***
रहजन भी तो शामिल हैं
अपने चौकीदारों में। 

    ग़ज़ल संख्या 10 में भावनात्मकता तथा यथार्थ के अनेकानेक बिम्ब रचे गए हैं। ग़ज़ल संख्या 11 पाठक को स्वयं को भी कसौटी पर कस कर देखने का आह्वान करती है –

एक दर बंद था, दूसरा था खुला,

फैसला तुम करो, अब ख़ुदा कौन है?
      ***
आदमी दर्द से मर रहे रात-दिन,
देखते सब रहें, बाँटता कौन है? 

    युवावस्था के लिए यह निष्कर्षात्मक टिप्पणी काबिलेगौर है –

निराशा में जब तक जवानी रहेगी।

अधूरी सभी की कहानी रहेगी। 

        एक अन्य कहन का सौन्दर्य निहारिए –

सजा तय करेगी अदालत खुदा की

वहाँ पर तुम्हारी वज़ारत नहीं है। 

    सामाजिक विसंगति पर कटाक्ष देखिए –

घोड़ों पर पाबंदी है

खूब गधों को घास मिले। 

    प्रतीक, बिम्ब तथा व्यंजना का अनूठा मेल प्रस्तुत करता शेर है –

कंगूरों पर आँच न आई,

नींव के पत्थर हिले हुए हैं। 

    आधी आबादी के प्रति सामाजिक रवैये के विषय में बहुत कुछ कहता है यह शे’र –

जिसके आँगन बेटी जन्मी

वो पहरेदारी सीख गया। 

    कन्या-भ्रूण हत्या के जिम्मेदार कारकों को कैसे बख्शा जा सकता है –

मार रहे ख़ुद अपनी बेटी

दें किसको इल्ज़ाम कबीरा। 

    विडम्बना देखिए, जिस प्रेमी-युग्ल के प्यार के किस्से अमर हैं, आज उनके वंशज प्यार के नाम पर रीते-थोथे हैं-

लैला-मजनूँ के वंशज भी,

दो दिन करते प्यार कबीरा। 

    जब नेता जी वादे भूल जायें तो वार पर वार करना जनता का कर्तव्य है-

भूल गए नेता जी वादे,

करने होंगे वार कबीरा। 

    प्राकृतिक विपदा, उसके प्रभाव और लोगों के त्याग का प्रतिबिम्बन एक साथ सामने आया है –

देश पर संकट पड़ा है लोग डर कर जी रहे हैं

जान की बाजी लगा कोई दवाएँ दे रहा है। 

    जनता की तंगहाली देखकर राजाजी का ऐशो-आराम खटकता है इसलिए लेखनी लिखने से नहीं चूकती –

अच्छे दिन आएँ या जाएँ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,

हम तो मरने को जन्में हैं, आप अमर हैं राजाजी। 

    दुनिया में सम्पूर्ण कोई नहीं इसलिए अपनी भी पड़ताल करनी बनती है –

मौत सभी को आएगी

निज कर्मों का ख़्याल करें। 

    ऐतिहासिक सत्य बयाँ करती हैं ये पंक्तियाँ–

क़लमों के भी शीश कटे हैं

जब-जब तीखी धार हुई है। 

    लेखकीय निर्भीकता से भी रू-ब-रू हो लेते हैं – 

मुझको कोई खौफ नहीं,

उसकी नेक नज़र में हूँ। 

    रचनाकार रचना करे और जागरण की बात न करे, यह हो नहीं सकता। यह तथ्य इन ग़ज़लों पर भी लागू होता है – 

मन को तू बीमार न कर।

हार कभी स्वीकार न कर।
      ***
बेटों को भी देने होंगे
कुछ अच्छे संस्कार कबीरा।
      ***
जो लोगों को राह दिखाए
लिख ऐसा नवगीत कबीरा। 

    ग़ज़ल के शिल्प-विधान से अनभिज्ञ हूँ इसलिए इस विषय में चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती हूँ। हाँ, कथ्य से प्रभावित हो कर कहना चाहूँगी कि इन ग़ज़लों की यात्रा पर निकलेंगे तो पग-पग पर ऐसे डेरे मिलेंगे, जो कहेंगे – पल दो पल ठहर कर जाइए, हमारे पास सुच्चे मोती हैं। एक भी मोती नकली निकले तो जो चाहे सजा भुगतेंगे। बेहतर होता, उर्दू के कठिन-शब्दों के अर्थ पृष्ठ के अंत में दर्शा दिए जाते। त्रुटिरहित सुन्दर छपाई, स्तरीय क़ाग़ज और आकर्षक मुखपृष्ठ के होते यह ग़ज़ल संग्रह संग्रहणीय बन पड़ा है। 

    हार्दिक कामना है, रघुविन्द्र यादव की लेखनी, रात को रात लिखती हुई, निर्बाध गति से चलती रहे।

-कृष्णलता यादव
677, सेक्टर 10ए
गुरुग्राम 122001
पुस्तक –आस का सूरज 
लेखक – रघुविन्द्र यादव  
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली 
पृष्ठ  - 104, मूल्य – 175रु. (पेपरबैक)