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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Wednesday, August 7, 2019

युगबोध से ओतप्रोत दोहों का संग्रह: पानी जैसा रंग


युगबोध से ओतप्रोत दोहों का संग्रह: पानी जैसा रंग

‘पानी जैसा रंग’ वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम समीप का नव प्रकाशित दोहा संग्रह है| जिसमें उनके 871 दोहे और एक दोहा ग़ज़ल संकलित किये गए हैं| जीवन जगत के विविध रंगों को समेटे दोहे कथ्य और शिल्प दृष्टि से सराहनीय हैं| अनुभूति की कसौटी पर ये दोहे बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ संप्रेषण करने वाले कहे जा सकते हैं। सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है। कवि ने जीवन के विभिन्न पहुलुओं को छूते हुए सहज और मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करके अपने कथ्य को प्रभावशाली बनाया है, वहीँ बिम्ब, प्रतीक और अलंकारों का यथोचित प्रयोग करके दोहों की संप्रेषणीयता भी बढाई है|  
      संत करें व्यापार अब, शासक बने महंत|
      काँटों पर भी आजकल, छाने लगा बसंत||

समीप जी के दोहे कल्पना पर आधिरित न होकर अपने आसपास की सुनी, देखी और भोगी हुई सच्चाइयों के जीवन्त मंज़र पेश करते हैं| इन दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से दोहाकार राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का खुलासा प्रभावी ढंग से कर पाते हैं।
एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|
यहाँ मदारी हांक ले, बंदर कई करोड़||

देखा तानाशाह ने, ज्यों ही आँख तरेर|
लगा तख़्त के सामने, जिव्हाओं का ढेर||

अजब सियासत देश की, गज़ब आज का दौर|
ताला कोई और है, चाबी कोई और||

कवि ने समसायिक संदर्भों को नजरअंदाज नहीं किया । इसका प्रमाण उनके कतिपय दोहे हैं जो भरपूर संवेदना के साथ हमारे हृदय को झकझोर कर रख देते हैं।
      
      करुणा बेची जा रही, भावुकता के संग|
      भीख मांगने के लिए, बच्चे किये अपंग||

      रिश्वत दे सकता नहीं, नहीं जान-पहचान|
      दुखिया ऐसे भी कहीं, मिलता है अनुदान||

संग्रह के दोहे व्यवस्थागत विसंगतियां को चिन्हित करते और व्यवस्था की अमानवीय स्थितियों के विरुद्व संघर्ष की घोषणा करते दोहे हमारा ध्यान खींचते हैं-
पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ|
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ||

बस थोड़ी-सी आग हो और हवा का साथ|
अंधियारे से कर सकूं, मैं भी दो-दो हाथ||

समीप जी के दोहे वर्तमान की विसंगतियों की प्रस्तुति से जनमानस को यथार्थ का बोध कराते हैं। आज बाजार में प्रत्येक व्यक्ति को जहां गलाकाट प्रतियोगिता जन्म से ही मिल जाती हो वहां संवेदना, सहृदता या अपनेपन के लिए कितना स्पेस बच पाया है। वैश्वीकरण के बढ़ते इस प्रभाव से उत्पन्न व्यक्ति मन की पीड़ा को उन्होंने पूरी मार्मिकता से व्यक्त किया है-
अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख|
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख||

संघर्षरत ग्रामीण जीवन के प्रति भी उनके सरोकार स्पष्ट हैं। इन दोहों में आधुनिक जीवन की त्रासदियों की कराह हमें स्पष्ट सुनाई दे रही है। जीवन मूल्यों में आ रहे सामाजिक धार्मिक राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के बदलाव के प्रति दोहाकार ने जागरूकता दिखाई है। गरीब मजदूर किसान दलित जीवन का चित्रण किया है। इस तरह उनके सरोकार मनुष्य की अस्मिता उसकी सोच और सम्बंधों पर आधारित हैं। इसीलिए इन दोहों में जीवन यथार्थ से साक्षात्कार की अनेक स्थितियाँ दृष्टिगत होती हैं।
क्यों रे दुखिया! क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़|
मुखिया के घर आ गया पहने नयी कमीज़||

कवि खुद को उन लोगों के साथ खड़ा करना चाहता है जो आज भी दबे-कुचले हैं, दुख में हैं| इस का उद्घोष भी वे अपने दोहों में करता है-

मेरे दोहों का रहा, सिर्फ यही इक रंग|
जो भी दुख में है कहीं, मैं हूँ उसके संग||
तमाम विसंगतियों और विद्रूपताओ के बावजूद कवि निराश नहीं है, उसका नजरिया आशावादी है और यह उनके दोहों में अभिव्यक्त हुआ है-

फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस|
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास||
हालांकि संग्रह के अधिकांश दोहे धारदार और प्रभावशाली हैं किन्तु प्रूफ की अशुद्धियों की भरमार खीर में कंकर की तरह स्वाद ख़राब करती है| लगता है प्रकाशक ने कतई मेहनत नहीं की और यूनिकोड में टाइप पाण्डुलिपि का फॉण्ट कन्वर्ट करके ज्यों का त्यों छाप दिया गया है| ‘क’ और ‘फ’ के नीचे की मात्राएँ उचित स्थान पर नहीं हैं| एकाध जगह को छोड़कर उर्दू-फारसी के शब्दों के नीचे से नुक्ते गायब हैं| चन्द्र बिंदु के स्थान पर कहीं केवल बिंदु का प्रयोग है तो दूसरी जगह उसी शब्द पर चन्द्र बिंदु| शब्दों के ऊपर लगे ‘र’ के बाद या ‘ई’ पर बिंदु उचित ढंग से नहीं लगाये गए हैं| कवि ने जहाँ ‘य’ का प्रयोग किया था उसे ये/ए बना दिया गया है, जिससे दोहों में छंद दोष पैदा हो गए हैं|
किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी द्वारा प्रकाशित इस 120 पृष्ठीय पेपरबैक कृति का आवरण, छपाई, कागज स्तरीय हैं और 195 रूपये मूल्य भी वाजिब कहा जा सकता है| कुल मिलकर समीप जी ने हिंदी साहित्य को एक स्तरीय संग्रह प्रदान किया है जो दोहा साहित्य को समृद्ध करेगा और नवोदित दोहकारों को श्रेष्ठ दोहा लेखन के लिए प्रेरित करेगा ऐसी आशा है|
दोहाकार को बहुत-बहुत बधाई|

रघुविन्द्र यादव



Sunday, December 27, 2015

कविता आजकल : एक सार्थक प्रयास

 'कविता आजकल' एक वाद के रूप में 'समकालीन कविता' का पर्याय है| इसकी चर्चा दो अर्थों में होती है| काल सापेक्ष अर्थ में और निकाय विशिष्ट के अर्थ में|  काल-सापेक्ष अर्थ में यह लगभग 1960 ई. के आसपास प्रारंभ होती है और निकाय विशिष्ट के अर्थ में यह कविता अपने भाव, विचार और शिल्प में परम्परा से भिन्न कविता है| यद्यपि यह भी स्पष्ट है कि साहित्य का प्रारम्भ या तो मंत्रों से होता है या छंदों से| एक में विचार की गहनता है तो दूसरे में भावों या संवेदनाओं की भी| यह फर्क भी अब मिटता जा रहा है| अगर कोई फर्क मोटे तौर पर रह गया है तो वह है छंदों या गीतों का लयबद्ध होना| पर समकालीन कविता पूर्णत: छन्दमुक्त और यहाँ तक किसी भी तरह की लयात्मकता से रहित हो सकती है| 
कदाचित् इसीलिए वरिष्ठ गीत-कवि और गज़लकार सतीश गुप्ता ने 'कविता आजकल' में इक्यानवे वर्षीय डॉ राम प्रसाद 'अटल' से लेकर सत्ताइस वर्षीय विजय कुमार पटीर तक की उन कविताओं को चुनकर एक समवेत संकलन तैयार किया है जो विषय वस्तु और शिल्प में समकालीन कविता की शर्तों का पालन करती हों| 
अनेक कविताएँ मात्र इतिवृत्तात्मकता या सपाटबयानी से परिपूर्ण हैं| दरअसल उन कवियों का यह मानना हो सकता है कि केवल छंदों या ले का बंधन तोड़ देने से समकालीन कविता बन जाती है| इसी तरह कुछ गीतकार या छंदकार भी यह समझ लेते हैं कि मात्र सतही तुकबंदी गीत या छंद का निर्वाह मात्र छन्दोबद्ध कविता है | 
वस्तुत: छंद और लययुक्त कविताएँ तभी अच्छी हो सकती हैं जब वे लैय का अतिक्रमण कर उससे आगे निकल जाएँ तथा हमारे चीर-परिचित से शब्द को नई अर्थवत्ता से भर दें और गद्य कविता तभी सार्थक है जब वह अपने अंदर से बहुत कुछ कहने के बाद भी अनकहा छोड़ दे और हमें विचार करने के लिए एक प्लेटफार्म उपलब्ध कराये| उसका प्रभाव मंत्र जैसा हो|
उक्त कसौटी पर संकलित कवियों में से कुछ नाम गिनाये जा सकते हैं| अवध बिहारी श्रीवास्तव की कविता 'ओशो: एक अनुभूति', डॉ.राजेन्द्र पंजियार की 'विकलांग श्रद्धा का दौर', डॉ.मधु प्रधान की 'चुटकी भर चांदनी' आदि| सतीश गुप्ता की छोटी-सी कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
"ओ कविता 
कितना अच्छा होता/यदि तुम बन पाती
बाढ़ में न डूबने वाली नाव 
सूखे की मार में बरसता जल|" 
इस कविता को पढ़ते हुए समकालीन कविता के बड़े कवि शमशेर बहादुर सिंह की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं-
"मेरी बांसुरी है एक नाव की पतवार-
जिसके स्वर गीले हो गये हैं,
छप, छप, छप, मेरा हृदय कर रहा है|"
इसका आशय यह है कि समकालीन कविता का लक्ष्य एक बांसुरी की मधुर धुन की तरह सिर्फ आनंद प्रदान करना नही है वरन वह हमारी चेतना का उत्कर्ष भी करती है| संकलन में अनेक ऐसी कवितायेँ हैं जिनमे चिंतन के विविध आयाम हैं, जो सामाजिक बोध से अनुप्राणित हैं और जिनमे अपने युगीन परिवेश के दबावों एवं तनावों को अच्छी तरह व्यक्त किया गया है| संवेदना की अनुभूति और शिल्प के प्रति नवीनता से भी अनेक कविताएँ रिक्त  नहीं हैं| कुल मिलकर अधिकांश कविताओं में अपने आसपास की जिन्दगी को खुली आँखों से देखने की सामर्थ्य है| 
समर्थ कवियों में जहाँ कात्यायनी प्रभा दीक्षित, अरविन्द अवस्थी, सुरेश उजाला सम्मिलित हैं तो संभावनाशील कवियों में शरद कुमार सक्सेना, शशि जोशी, शुभम शिवा, अपर्णा अवस्थी और विनय कुमार पटीर की कविताएँ कहीं न कहीं मन को छू जाती हैं| कुल मिलाकर सतीश गुप्ता का यह प्रयास सार्थक और सराहनीय है| 

-डॉ.राकेश शुक्ल

एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
वी.एस.एस.डी. कॉलेज, कानपुर

Tuesday, September 29, 2015

मेरी नज़र में 'आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं' : माधव नागदा

त्रिलोक सिंह ठकुरेला द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं’ मेरे सम्मुख है| आजकल संपादित लघुकथा संग्रहों की बाढ़ सी आ गई है| यह बात लघुकथा के भविष्य के लिए अच्छी भी है और बुरी भी| लघुकथा की विकास यात्रा में मील का पत्थर बनने की होड़ में कई लोग बिना किसी संपादकीय दृष्टि या कि सूझ-बूझ के जैसी भी लघुकथाएं उन्हें उपलब्ध हो जाती हैं उन्हें इकट्ठाकर पाठकों के सम्मुख पटक देते हैं| शायद इसी बात से दुखी होकर बलराम को कहना पड़ा है कि अधिकांश लघुकथा संग्रह भूसे के ढेर हैं जिनमें दाना खोज पाना बहुत मुश्किल काम लगता है| इस बात का उद्धरण स्वयं ठकुरेला ने ‘अपनी बात’ में दिया है| इसका अर्थ यह हुआ कि ठकुरेला ऐसा लघुकथा संकलन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसमें भूसा कम और दाने अधिक हों| यद्यपि उन्होंने ‘अपनी बात’ में सीधे-सीधे अपने उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं कहा है| हम केवल अनुमान लगा सकते हैं| वे कहते हैं, ‘लघुकथा घनीभूत संवेदनाओं को व्यक्त करने की क्षमता रखती है|’ अर्थात् वे ऐसी क्षमतावान लघुकथाएं संकलित करना चाहते हैं जिनमें घनीभूत संवेदनाएं हों| परन्तु मुझे लगता है कि उनका वास्तविक उद्देश्य कुछ और ही है जो कि पुस्तक के शीर्षक से ध्वनित होता है| शीर्षक है, ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं|’ यानि ऐसी लघुकथाओं का संकलन जो आधुनिक हों| परन्तु उन्होंने कहीं भी ‘आधुनिक’ की अवधारणा पर प्रकाश नहीं डाला है| यदि हम ‘आधुनिक’ की काल सापेक्ष चर्चा करें तो डॉ.रामकुमार घोटड़ के अनुसार लघुकथा के संदर्भ में सन् 1970 के पश्चात् का समय आधुनिक काल है| इस दृष्टि से सन् 1971 से अब तक रचित लघुकथाएं आधुनिक लघुकथाएं हैं| परन्तु मेरी दृष्टि में आधुनिकता की यह परिभाषा मुकम्मल नहीं है| कारण कि काल विभाजन की दृष्टि से कोई रचना आधुनिक होते हुए भी जरूरी नहीं कि मूल्यबोध की दृष्टि से भी आधुनिक ही हो| उदाहरण के लिए एक लघुकथा (इस संग्रह से नहीं) इस प्रकार है: एक स्त्री को प्रसव-पीड़ा से मुक्ति मिलती है| जब दाई बताती है कि लड़की हुई है तो वहां उपस्थित सभी स्त्रियों के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठते हैं| आगे लेखक अपनी तरफ से टीप जड़ता है, ‘कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सब वेश्याएं थीं|’ यानि पुत्री जन्म पर यदि कोई स्त्री खुशी जाहिर करती है तो लेखक के अनुसार वह वेश्या होगी| जाहिर है कि आधुनिक काल में रची गई होने के बावजूद प्रतिगामी मूल्य वाली यह लघुकथा आधुनिक तो कतई नहीं है| हां, समकालीन जरूर है| समय सापेक्षता समकालीनता का द्योतक है, आधुनिकता का नहीं| तो फिर सर्जनात्मकता के संदर्भ में आधुनिक होने का क्या तात्पर्य है? मेरे विचार से भाषा, भाव, कथ्य, संवेदना, शिल्प, विचार, जीवन मूल्य की दृष्टि से जिस रचना में नयापन हो वही आधुनिक है| आधुनिक वह है जो पुरानी सड़ी-गली, तर्कहीन मान्यताओं के प्रति अपना विरोध दर्ज करे या फिर उनके परिष्कार की ओर संकेत करे| आधुनिक लघुकथा या कोई भी रचना ताजा हवा के झोंके की तरह होती है| डॉ.कुन्दन माली के अनुसार, ‘आधुनिकता जीवन और सर्जन के क्षैत्र में मौजूद यथास्थिति और रूढ़ियों के प्रतिकार का नाम है|’
इस दृष्टि से विचार करें तो ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं’ की कई लघुकथाएं आधुनिकता की कसौटी पर खरी उतरती हैं|
आज के दौर की कई लघुकथाओं में नगरीय जीवन की भागदौड़ भरी जिंदगी के कारण बुजुर्गों की दयनीय होती जा रही स्थिति को खूब चित्रित किया गया है| परन्तु रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊंचाई’ इन सबसे अलग हटकर है| यहां पिता जिस ऊंचाई पर खड़े हैं उसे देखकर एक ताजगी का अहसास होता है| यह लघुकथा सिर्फ कथ्य की दृष्टि से ही नहीं वरन अपनी संवेदनात्मक छुअन के लिए भी उल्लेखनीय है| रामयतन यादव की ‘डर’ में भी कमोबेश यही स्वर उभरकर आया है परन्तु तनिक भिन्न संदर्भ में| यहां मरणासन्न माधव अंकल का स्वाभिमान मन को भिगो देता है|
राजेन्द्र परदेसी ने आज के शहरी युवा के मन में ग्रामीण जन-जीवन के प्रति पनप रहे वितृष्णा भाव को बड़ी कुशलता के साथ अपनी लघुकथा ‘दूर होता गांव’ में पिरोया है| प्रकान्तर से यह उपेक्षा श्रमशील संस्कृति के प्रति भी है जिसे लेखक ने सटीक संवादों के साथ प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है| डॉ.रामनिवास मानव की लघुकथा ‘दौड़’ भी गांव और नगर के बीच की खाई की ओर इशारा करती है|
प्रतापसिंह सोढ़ी ‘शहीद की माँ’ में शहीद बेटे की तस्वीर के माध्यम से देश की दुर्दशा के बीच स्वतंत्रता दिवस की धूमधाम के विरोधाभास को बड़े ही मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत करते हैं|
ज्योति जैन की ‘अपाहिज’ लघुकथा सोच को सार्थक दिशा देने वाली एक सशक्त लघुकथा है| इसमें पायल अपाहिज यश को अपना जीवन साथी चुनती है क्योंकि वह स्वयं फैसला लेने में सक्षम है| अमन पूर्णतया स्वस्थ होते हुए भी रीढ़विहीन है क्योंकि जिन्दगी के अहम् फैसले स्वयं नहीं ले सकता| यश को चुनकर पायल न केवल साहस का परिचय देती है वरन समाज के लिए भी एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करती है|
सुकेश साहनी सदैव शिल्प और कथ्य के स्तर पर पुरानी जमीन तोड़ते रहे हैं| इस संग्रह की लघुकथा ‘बिरादरी’ में उन्होंने बड़े सधे हुए अंदाज में इस बात को रेखांकित किया है कि किस तरह मनुष्य का व्यवहार सामने वाले के स्टेटस को देखकर पल-पल रंग बदलता है| भाषा के स्तर भी उन्होंने ध्यानाकर्षक प्रयोग किए हैं यथा, ‘किसी पुराने परिचित से सामना होने की आशंका मात्र से मेरे कान गर्म हो उठे’, ‘दांयीं आंख के नीचे बड़े-से मंसे के कारण मुझे अपने बचपन के दोस्त सीताराम को पहचानने में देर नहीं लगी’, ‘मैंने प्यार से उसकी तौंद को मुकियाते हुए कहा|’ साहनी की ‘आईना’ भी एक स्थापित उपन्यासकार की गरीबों के प्रति सहानुभूति के खोखलेपन को आईना प्रतीक के माध्यम से एकदम मौलिक तरीके से अभिव्यक्त करती है|
मुरलीधर वैष्णव की ‘पॉकेटमार’ तीर्थस्थलों पर पंडे-पुजारियं द्वारा की जाने वाली लूट पर प्रकाश डालती है तो अंजु दुआ जैमिनी की ‘कमाई का गणित’ इन पवित्र स्थलों पर दुकानदारों द्वारा भक्तों के साथ की जाने वाली चालाकियों का रोचक बयान है|
संग्रह की कई लघुकथाओं में दरकते रिश्तों को नयेपन के साथ विश्वसनीय तरीके से चित्रित किया गया है| ये लघुकथाएं हैं आशा शैली की ‘खोटा सिक्का’, कमल कपूर की ‘सर्वेंट क्वार्टर’ व ‘सहारे’, ज्योति जैन की ‘झप्पी’, कृष्णकुमार यादव की ‘बेटे की तमन्ना’, शकुन्तला किरण की ‘कोहरा’, सुरेश शर्मा की ‘भूल’ , अमरनाथ चौधरी अब्ज की ‘वसीयत’ आदि| इनमें से कमल कपूर की ‘सर्वेंट क्वार्टर’ को पाठक लम्बे समय तक भूल नहीं पायेंगे| पोता पेंटिंग में घर बनाता है, घर में अलग-थलग सर्वेंट क्वार्टर| पिता खुश होता है कि बेटा सर्वेंट के लिए भी अलग घर बना रहा है| इस पर बेटा कहता है कि यह आपके लिए है, जब बूढ़े हो जाओगे तब इसमें रहोगे| दादाजी भी तो सर्वेंट क्वार्टर में ही रहते हैं| यह लघुकथा उस पुरानी कहानी का आधुनिक परिवेश में सार्थक रूपान्तरण है जिसमें बेटा मिट्टी के बरतन को संभालकर रखता है जिसमें दादाजी को बचा-खुचा खाना खिलाया जाता रहा है| सूर्यकान्त नागर की ‘कुकिंग क्लास’ तथा डॉ.सुधा जैन की ‘समाज सेवा’ सास-बहू के रिश्तों के तनाव को नये ढंग से परिभाषित करती हैं| अर्थहीन होते जा रहे रिश्तों को लेकर प्रभात दुबे की ‘गर्म हवा’ जबर्दस्त लघुकथा है| यह रचना वृद्ध लोगों की त्रासदी को घनीभूत संवेदना के साथ प्रस्तुत करती है| यह जानकर कि शर्माजी को उनके बेटे-बहू ने वृद्धाश्रम भेज दिया है, उनके साथ रोज घूमने वाले शेष दो वृद्ध बुरी तरह सहम जाते हैं| उन्हें अपना भविष्य दिखने लगता है| ट्रीटमेंट के लिहाज से यह लघुकथा बेहद सशक्त है|

यह सच है कि आज के समय में तमाम रिश्ते बेमानी होते जा रहे हैं, वृद्धजन लगातार अपनों ही के द्वारा अपमान झेलने को मजबूर हैं और स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं| ऐसे में डॉ.दिनेश पाठक शशि की ‘साया’ एवं डॉ.योगेन्द्र नाथ शुक्ल की ‘टूटी घड़ी’ अंधेरे में प्रकाश की बारीक लकीर की तरह नयी आशा जगाती है| ‘साया’ में अपनी बीमार वृद्धा मां की मृत्यु पर बेटा स्वयं को अकेला और अनाथ-सा अनुभव करता है जबकि ‘टूटी घड़ी’ में पुत्र अपनी मां की निशानी स्वरूप बची एक टूटी घड़ी के प्रति पिता के भावनात्मक लगाव को देखकर उसे कमरे से फेंकने की बजाय पुनः वहीं रख देता है| ये दोनों लघुकथाएं इस बात के प्रति आश्वस्त करती हैं कि अभी तक मानवीय संवेदनाएं पूरी तरह मरी नहीं हैं कि अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है|

संग्रह में ऐसी लघुकथाएं भी हैं जिनमें अभावग्रस्त आम आदमी की भूख और जिल्लत भरी जिंदगी को नये शिल्प और अछूते प्रतीकों के माध्यम से वाणी दी गई है| पेट की ‘आग’(देवांशु पाल) ‘भूत’(डॉ.पूरन सिंह) पर भारी पड़ती है| ‘भूत’ लघुकथा का नायक भूख के आगे बेबस होकर श्मशान घाट पर रखे भोजन को ग्रहण करने से भी भयभीत नहीं होता है| ‘पैण्ट की सिलाई’(डॉ.रामकुमार घोटड़), ‘साहब का कुत्ता’(आकांक्षा यादव), ‘पसीना और धुंआ’(अंजु दुआ जैमिनी), ‘सोने की चेन’(डॉ.रामनिवास मानव) तथा ‘पहली चिन्ता’(डॉ.कमल चोपड़ा) लघुकथाएं आम आदमी की बेबसी को अपने-अपने ढंग से बयान करती है| डॉ.कमल चोपड़ा की ‘धर्मयुद्ध’ भी उल्लेखनीय है जो बेबाकी के साथ सांप्रदायिक दंगों के राजनीतिक मुखौटे को बेनकाब करती है| डॉ.सतीशराज पुष्करणा की ‘अंधेरा’ भी इसी अंधेरे पक्ष के चलते चारों ओर पसरे वैचारिक शून्य को भरने की सर्जनात्मक कोशिश है|
संग्रह में कुछ और लघुकथाएं हैं जो कथ्य या शिल्प की ताजगी के चलते अलग से ध्यान आकर्षित करती हैं| ये हैं ‘विरेचन’(डॉ.पुरुषोत्तम दुबे), ‘गुस्सा’(गुरुनाम सिंह रीहल), ‘मामाजी’(नदीम अहमद नदीम), ‘यकीन’, ‘भरोसा’(निशा भोंसले), ‘घिसाई’(राजेन्द्र साहिल), ‘प्रश्न चिह्न’(प्रदीप शशांक), ‘फर्क’(इंदु गुप्ता), ‘मध्यस्थ’(मालती बसंत), ‘सुकन्या’(कुंवर प्रेमिल) और ‘नया क्षितिज’(साधना ठकुरेला)| ‘विरेचन’ में चुटीले संवादों के माध्यम से पर निंदा सबसे बड़ा सुख कहावत को चरितार्थ किया गया है तो ‘गुस्सा’ में कायर का गुस्सा सदैव कमजोर पर निकलता है को| ‘मामाजी’ और ‘नया क्षितिज’ में पुरुष मानसिकता पर सार्थक चोट की गई है| साधना ठकुरेला ने चिड़े का प्रतीक लेकर एक नयी बात कही है कि नर किसी भी प्रजाति का हो नारी के प्रति उसका रवैया सदा समान रहता है|
आज भ्रष्टाचार ने इस कदर शिष्टाचार का रूप धारण कर लिया है कि ईमानदार आदमी की निष्ठा भी अविश्वसनीय लगती है(यकीन)| दूसरी ओर राजेन्द्र सिंह साहिल की ‘घिसाई’ ईमानदार आदमी के भोलेपन और तद्जन्य बेबसी को बताती है| निशा भोंसले की ‘भरोसा’ में पिता द्वारा जवान बेटी को दिया गया यह जवाब मन को झिंझोड़कर रख देता है, ‘तुम पर (भरोसा) है पर इस शहर पर नहीं|’ यह अकेला वाक्य लोगों की मानसिकता पर एक मुकम्मल बयान है| ‘प्रश्न चिह्न’ समय के साथ लोगों के बदलते मिजाज का अच्छा जायजा लेती है| यहां तलाक मिल जाने की खुशी(?) में युवती को मिठाई बांटते हुए दिखाया गया है| संतोष सुपेकर की ‘उलझन’ तथा ‘एक और जानवर’ भी नयी जमीन पर खड़ी दिखायी देती है| लेखक जब एक व्यक्ति को घायल बैल पर गाड़ी चढ़ाते देखता है तो उसकी यह टिप्पणी बहुत कुछ कह देती है, ‘सबने केवल एक जानवर देखा, पर मैंने दो जानवर देखे, एक चौपाया और एक दोपाया|’ वस्तुतः आज समाज में दोपाये जानवरों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है जिनके प्रति एक साहित्यकार ही अपनी लेखनी द्वारा लोगों को सचेत कर सकता है|
आजकल जातिवाद भी हमारे समाज में नासूर की तरह फैलता जा रहा है| अफसोस कि राजनेता अपने नहित स्वार्थों के लिए इस सड़ांध को बचाए और बनाये रखना चाहते हैं| हालांकि जातिवाद के इस पहलू पर गौर करने वाली लघुकथाओं का अभाव है फिर भी इसके परंपरागत कारणों पर प्रहार करने वाली कतिपय लघुकथाएं यहां संकलित की गई हैं| ये लघुकथाएं हैं त्रिलोक सिंह ठकुरेला की ‘रीति-रिवाज’, आनन्द कुमार की ‘विभेद’, ‘अपवित्र’ अशोक भाटिया की ‘बंद दरवाजा’ तथा डॉ.सुरेश उजाला की ‘जातिगत द्वेष|’
यद्यपि सभी लघुकथाओं में यथार्थ को विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है और भाषा के प्रति भी पर्याप्त सावचेती बरती गई है फिर भी कहीं-कहीं असावधानीवश कुछ छिद्र रह गये हैं| उदाहरण के लिए जातिगत भेदभाव की मनोवृत्ति पर प्रहार करने वाली लघुकथा ‘विभेद’ का आरंभ यों होता है, ‘बात आज से 20-25 साल पूर्व की है|’ यह पंक्ति अनावश्यक है और लघुकथा के शिल्प को क्षति पहुंचाने वाली है| लगता है जैसे लेखक किसी सत्य घटना का बयान करने जा रहा है| इसी तरह ‘सोने की चेन’ लघुकथा जो आरंभ में बहुत सहजता के साथ आगे बढ़ रही होती है कि ‘मैं’ पात्र द्वारा चेन वाले से पूछा गया यह प्रश्न पाठकों को चौंका देता है, ‘भाई, यदि तुम्हारी चेन इतनी बढ़िया है तो इसे अपनी बेटी और बीवी को क्यों नहीं पहनाते?’ यह वाक्य यथार्थ को खंडित करने वाला है क्योंकि लघुकथा में कहीं नहीं बताया गया है कि लेखक (मैं) ने चेन वाले की बीवी व बेटी को पहले कहीं देखा है कि ये दोनों नकली चेन नहीं पहने हुए हैं| पाठक के मन में तो यह सवाल भी उत्पन्न होता है कि लेखक को कैसे पता कि चेन वाले के एक बेटी भी है| जरा सी असावधानी लघुकथा की विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है| एक लघुकथा में वाक्य प्रयोग आता है, ‘उल्लास से छलकता, उसका मन सहसा बुझ गया|’ बुझता वह है जो जलता है| छलकने वाला तो रीतता है| अतः यहां छलकने के साथ बुझना का प्रयोग अप्रासंगिक है| एक और लघुकथा में वाक्य-खण्ड आता है, ‘एक पान के ठेले के सामने खड़े रिक्शेवाले की वजह से’ जबकि होना चाहिए ‘पान के एक ठेले के सामने...|’
कुल मिलाकर ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं’ संग्रह की आधिकतर लघुकथाओं में नये शिल्प और संवेदना के साथ समकालीन जीवन मूल्यों तथा समाज में व्याप्त विसंगतियों का गहराई के साथ जायजा लिया गया है| ये लघुकथाएं निस्सन्देह पाठकों को रोजमर्रा की समस्याओं पर नये सिरे से सोचने के लिए बाध्य करेंगी|

संदर्भ-

आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं, संपादक-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, प्रकाशक-अरिहन्त प्रकाशन, जोधपुर |

Thursday, September 24, 2015

छोटी सीपियों के बड़े मोती : यतीन्द्रनाथ राही

    अभी पढ़ा है कृष्णलता यादव का लघुकथा संग्रह पतझड़ में मधुमास। सोचता हूँ जब अप संस्कृतियों की तेज हवाओं में साँझे परिवार पीले पत्तों की तरह टूट कर एकल परिवारों में बिखर रहे हों। न्याय-नीति-निष्ठा के टूटे डंठलों पर बैठे कुछ गीध चील कौवे, समय की खाल नोच रहे हों, तब एक प्रबुद्ध रचनाकार के सम्वेदनशील हृदय में, शांति-शुचिता और नैसर्गिक सौन्दर्य युक्त मधुमय बसंत के सुखद स्वप्र के अतिरिक्त और आएगा ही क्या?
    कृष्णलता यादव का पतझड़ में मधुमास इसी अवतरण की मोहक सृष्टि ही तो है, जो उनकी 90 लघुकथाओं के रूप में पल्लवित हो उठी है। इन कथाओं के दृश्य पटल पर पतझड़ का रूखा यथार्थ भी है और वसन्त के फू टते पीकों से उठती भीनी महक, नीड़ों में कुलबुलाती चहक, पंखों में कसमसाती उड़ान, संवादों की गुटरगूँ, चिन्तन की मौन गहराइयों, आदर्शों की ऊँचाइयों, धरती की कसक, रिश्तों की खनक, ममता के सागर, प्यार के निर्झर, सभी को बटोर कर, इन लघुकथाओं की छोटी-छोटी सीपियों के सम्पुट में बाँधकर रख दिया है लेखिका ने। इनमें करवटें लेता अतीत भी है और शोर मचाता वर्तमान भी परन्तु दोनों ही इस वसन्त के साथ एक रस हो गए हैं।
    मैंने इन सीपियों को खोला है, मोतियों का एक-एक दाना परखा है, तोला है। इनमें आव है, आकर्षण है, मूल्य है। लगता है उठाते चले जाओ, किन्तु रखूँ कहाँ? इतनी बड़ी डिबिया भी तो नहीं है मेरे पास कि सुरक्षित कर लूँ। बिखर भी कैसे जाने दूँ, सो कलम की नोक से पिरो लिया है इनको। कभी विपन्नता में काम आएँगे।
    कृष्णलता से मेरा परिचय तब हुआ जब उनकी छोटी मोटी 6 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं और वे बाल साहित्यकार के रूप में अपना एक सम्माननीय स्थान बना चुकी थीं। उनकी प्रथम कृति जो मुझे पढऩे को मिली वह थी-'मन में खिला बसंतÓ (दोहा संग्रह) जिसमें मुझे वे दोहाचार्य कविवर रहीम के चिह्नों पर चलती नीति निर्देशिका  कवयित्री के रूप में दर्शित हुईं। मैंने उनकी एक सामान्य-सी समीक्षा भी लिखी और हम परिचित हो गए। उम्र के लिहाज से वे मेरी बेटी ही हैं, सो मैं उनका चाचाजी भी बन गया। हम एक दूसरे को पढऩे-समझने और सीखने भी लगे। कुछ ही दिनों बाद उनका व्यंग्य संग्रह फायदे गरीबी के आया और अब यह पतझड़ में मधुमास। इसी संग्रह के साथ उनके आगामी और शीघ्र प्रकाश्य गीत संग्रह के कुछ गीत भी पढऩे को मिले, जिनमें यथार्थ की पीठिका पर संवेदना के रचे कुछ सहज गीतों को पढक़र लगा कि बहुत शीघ्र ही नवगीतकार के रूप में भी वे अपना एक स्थान सुनिश्चित कर लेंगीं। वे अच्छी आलेखिका और समीक्षाकार भी हैं। उनकी समीक्षाएँ अक्सर प्रकाशित होती रहती हैं। मैं उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा को नमन करता हूँ और आशान्वित हूँ कि सेवा-निवृति से प्राप्त इन मुक्त क्षणों से वे साहित्य सृजन में बहुत कुछ दे सकेंगी।
    जहाँ तक इन लघुकथाओं का संबंध है, ये कथाएँ जैसा मैंने महसूस किया है, कृष्णलता के जीवन के भोगे हुए सत्य हैं। कृष्णलता ने इन्हें जिया है तभी तो इनके रूपांकन इतने जीवन्त हैं। इनमें घर है, परिवार है, परिवेश है, समाज है, राष्ट्र है, जगत है, जिसमें घटित होती ये छोटी-छोटी घटनाएँ हैं जिनमें लेखिका दर्शक मात्र नहीं रही, स्वयं उतर आई है। वह लिख नहीं रही, घटनाएँ उससे लिखवा रही हैं।
    कथाएँ गल्प भी होती हैं। किसी सत्य, अद्र्ध सत्य या कल्पित सत्य के आधार पर कल्पना प्रसूत कथा से भी, उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है, किन्तु प्रभावकारी कथानक वही बन पाती हैं जिनमें विचार और संवेदन का जीवन्त समन्वय होता है। कोरे विचार को तो लेखिका ने भी फूटे ढोल कहा है। लेखिका के सभी कथानक ऐसे ही संवेदन प्लुत सत्य या अद्र्ध सत्य हैं, जिन्हें अपने ही आस-पास से उठाकर, संवेदन से सींचकर नैसर्गिक सत्य बना दिया है। और अब वे घटनाएँ हमें सबके घर-आँगन की धूल में, गली-चौपाल-चौबारों में खेलती, उछलती-मचलती मिलती, बतियाती हृदय में बस जाती हैं। साहित्य में साधारणीकरण की ऐसी शक्ति देखना सहज नहीं होता। यह कौशल इन लघुकथाओं में है। ये लघुकथाएँ टॉर्च लाईट नहीं, जुगनुओं के ऐसे नन्हें प्रकाश हैं, जो एक मोहक ललक देकर, दूर तक हमें अपने पीछे चले आने की विवशता दे जाते हैं। इनमें वह सब है, जो मानवीयता के लिए श्रेय भी है और प्रेय भी। कर्म-धर्म, प्यार, ममता, अधिकार, कर्तव्य, वर्ग-भेद, जीवनानुभूति, श्रम की साधना, पसीने की खुशबू, परिवार से लेकर समाज, राष्ट्र, विश्वबन्धुत्व और तेजी से फैलता हुआ बाज़ारवाद भी है इन लघुकथाओं में। परिवार में लेखिका अधिक रमी है। जिसमें उनके गहरे परम्परागत संस्कार प्रतिबिम्बित होते हैं। वह एकल परिवारों में विघटित होते संयुक्त परिवारों के दर्द जानती हैं। उसने लक्ष्मण रेखाओं में बंद वृद्धों को देखा है। वात्सल्य से वंचित खिलौनों और विलासितापूर्ण उपहारों में भटके बच्चों का दर्द जाना है। बहुओं को मिलती उपेक्षा और शोषण, रिश्तों के बीच उगती दूरियाँ, जि़न्दगी में पसरती रुक्षता उसने अनुभूत की है। इसलिए इनमें अनेक कथाएँ जैसे-कौन जाने, बड़े दिल वाली, रिश्तों के रंग, माँग पत्र, दृष्टिकोण, बुढ़ापे की लाज, शब्दों की धरोहर ऐसी ही लघुकथाएँ हैं, जिनके माध्यम से लेखिका सास-बहू, ननद-भाभी आदि परिवारजनों के बीच, रिश्तों के रंग भरती, स्नेह-सूत्र बुनती दृष्टिगत होती है। परन्तु ठोकर खाकर घूँघट की पनिहारिन को सास का स्नेह तो दिलवा देती है, घूँघट हटाने का साहस बहू में जागृत नहीं कर पायी, जिसकी ज़रूरत है। इन सारी कथाओं में परम्परागत स्नेह-सूत्रों को कसने का प्रयास तो है, परन्तु जाग्रत स्वाभिमान के साथ नारी की विश्वास भरी स्वतन्त्र आवाज़ के स्वर सुनाई नहीं दिए, जिसकी अपेक्षा एक प्रबुद्ध संवेदनशील लेखिका से की जानी चाहिए। शबनम जैसी लड़कियों के स्वर अकेले क्यों रह जाते हैं? अनीति का अन्त करने के लिए, मौन की नहीं विद्रोही स्वरों की आवश्यकता है।
    समाज के गरीब और विपन्न वर्ग पर किए कटाक्ष हिला देते हैं। जब पढ़ता हूँ-बच्चे नाचना भूल गए और बियर की खाली बोतलें बीनने लगे, भूख का भूगोल, असलियत, घेरे अपने-अपने, ऐसी ही कुछ लघुकथाएँ हैं जो हमें यह सोचने को विवश कर देती हैं कि भूख ही तो है जो व्यक्ति को पाप करने के लिए विवश करती है। जहाँ पेट खाली हो, वहाँ कैसी शिक्षा, कैसा विकास और कैसा धर्म? 
    मीता का टैंशन है कि महात्मा का प्रसाद वह अपने प्यारे टॉमी को नहीं खिला पायी, रूपाली को दाने चुगते कबूतरों की आँखों में उनके बच्चों की भूख दिखाई देती है। ऐसी कुछ कथाएँ हैं जो जीव जगत के प्रति ममता जाग्रत करने की प्रेरणा बन जाती हैं।
    हम कितना समय, शक्ति और धन तीर्थ यात्राओं के ढोंग और प्रदर्शन में तो व्यय कर देते हैं, घर में पड़े जीवन्त तीर्थ बुजुर्गों को बूँद पानी और भोजन के लिए तरसते देखते रहते हैं। कैसे तीर्थाटन?
    संस्कारों का क्षरण, अप संस्कृति का तीव्रता से प्रवेश। निरन्तर संकीर्ण होते हुए हमारे सोच, स्वार्थ और साधने के हर संभव भ्रष्ट उपाय, आदर्श वाक्यों के दुहरे अर्थ दर्शाती लघुकथाएँ निश्चित ही अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, एक स्वस्थ दिशा देती हैं।
    ग्लोबलाइज़ेशन के नाम पर हम बसुधैवकुटुम्बकम की व्यापक परिधि तो नहीं छू पाए, वैसा प्रयास भी नहीं करते, हाँ अपने घर-गाँव शहर यहाँ तक कि देश भावना को भी अवश्य भूल गए हैं। सकल भूमि गोपाल की कह तो लेते हैं, उसका अर्थ तक नहीं जानते। अर्थ है तो सिर्फ अपना सोच, अपना हित।
    लेखिका हिन्दी की प्राध्यापिका रही हैं। एक अच्छे शिक्षक के रूप में अपने भाव और विचार अपने छात्रों को हृदयंगम करा सकने की कला उन्हें आती है। उन्होंने साहित्य साधना का प्रारम्भ भी बुनियादों को शिक्षित और संस्कारित करने से ही किया है। लम्बे व्याख्यान देने की अपेक्षा, मंत्र रूप में सूत्र वाक्यों में बात कहने की कला में वे पारंगत हैं। वही सब कुछ व्यक्त हुआ है इन लघुकथाओं में, जो समय सापेक्ष्य भी है और युग सापेक्ष्य भी।
    जीवन भले ही क्षण भंगुर और निरर्थक हो, पर कथा उसे सार्थक शाश्वत करने की क्षमता रखती है। कृष्णलता कथा की गल्पता में नहीं, सार्थक सृजन में विश्वास करती हैं। साहित्य समाज का दर्पण भी है और दिशा-दर्शक, निर्मायक भी। कभी-कभी जब कोई सत् साहित्य, निर्देशक होता हुआ निर्मायक का गौरव प्राप्त कर लेता है तब वह कालातीत और अमर हो जाता है। उस दिशा में लेखिका का यह अति लघु प्रयास, मूल्य तो अवश्य रखता है। मुझे विश्वास है कि लघुकथा साहित्य में कृष्णलता की ये कथाएँ समादरित होंगी।
    इन कथाओं की भाषा प्रांजल और पात्रानुकूल है। संवादों में क्षिप्रता, कथा सूत्रों की बुनावट चातुरी पूर्ण है। विशेष बात यह है कि हरियाणा में जन्मी पली बढ़ी होने पर भी उनकी खड़ी बोली विशुद्ध है। कहीं कोई शब्द आ भी गया है तो दूध में मिश्री-सा घुल गया है।
बधाई! शुभकामनाएँ और अपेक्षाओं की सम्पूर्ति हेतु आशीष।                      
                                                                                                    -यतीन्द्रनाथ राही
                                                                                                     भोपाल 462026
पुस्तक - पतझड़ में मधुमास
लेखिका -कृष्णलता यादव
प्रकाशक -अयन प्रकाशन, महरौली
पृष्ठ संख्या -104  मूल्य -220  रुपये

Thursday, August 13, 2015

संवेदनाओं का विस्तार करता लघुकथा संग्रह : प्रतिबिम्ब

आधुनिक परिवेश और प्रकृति की उपज है - लघुकथा। लघुकथा की परिभाषा इसके नाम में ही शामिल है। यह सीमित आकार वाली वह कथात्मक रचना है जो द्वन्द्वमूलक नाटकीय प्रसंग विधान के माध्यम से विकृति पर प्रहार करके पाठकों को सही सांस्कृतिक दिशा में सोचने को प्रेरित करती है। लघुकथा की आकारगत लघुता उसे कलात्मक कसाव प्रदान करती है। साथ ही पाठक की संवेदनशीलता जगाकर मन की ऋतु का परिवर्तन कर सकती है। कहते हैं, लघुकथा लेखन गागर में सागर भरने जैसा है। बात ठीक है, परन्तु यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि सागर में कई विषैले जीव-जन्तु भी रहते हैं। इन सबको एक साथ भर लेने से गागरी फूटने का डर रहता है।

'प्रतिबिम्ब' की लघुकथाओं से गुजरते हुए पाया कि इन कथाओं में संवेदना व शिल्प का सुखद संयोजन है। लेखक के व्यक्तित्व में भावना व चिंतना का मनोहर सामन्जस्य दिखाई देता है। मूल्यों के विघटन की स्थिति में वह चिंतन में लीन हो जाता है तो पीडक़ प्रसंगों में भावुक हो जाता है। इन लघुकथाओं में स्वार्थ की नागिनें फुफकारती हैं तो परमार्थ के हिंडोले भी हैं।
भयावह स्थितियों के पीछे की मानसिकता को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने वाली रचनाएं किसे अच्छी नहीं लगेंगी? लघुकथा में हल्के व्यंग्य तथा मजबूत अस्वीकृति के साथ वक्रीय आक्रोश हो तो बड़ी बात होती है। इस दृष्टि से, नरेन्द्र गौड़ की लेखनी से निसृत करारे व्यंग्य से न शिक्षक बच पाया है, न पुलिस वाला, न दौलतमन्द, न राजनीतिज्ञ, न साहित्यकार और न ही मीडियामैन। यानि जो जैसा है, उसका बखान भी वैसा ही है।
अनेक लघुकथाओं में पैसा फेंक तमाशा देखने वाले, पैसे के लिए रिश्ते भुलाने वाले बहुतायत में हैं। साथ ही, पैसे को ढलती-फिरती माया की संज्ञा देकर इसके गुमान में न रहने वाले चरित्र भी हैं जो पाठक को सुकून प्रदान करते हैं। कई लघुकथाएं 'चलो गांव की ओर' का शंखनाद करती हैं। इससे सिद्ध होता है कि ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े और शहर की आधुनिकता के अंग-संग रह रहे लेखक ने गांव के जीवन को भली प्रकार जिया है, इसलिए उसे पूरी धज के साथ उपस्थित किया है।
'राक्षस और देवता' लघुकथा शिल्प की दृष्टि से अनूठी बन पड़ी है वहीं कथ्य की दृष्टि से 'भात', 'सुरक्षा गार्ड' आदि सशक्त रचनाएं हैं। 'यशोदा' एक मार्मिक रचना है जिसके ये शब्द देर तक कानों में गूंजते रहते हैं, 'इस बच्चे को जन्म चाहे किसी ने भी दिया हो किन्तु इसको गोद में खिलाने, नहलाने-धुलाने का सुख मैं लूंगी।' 'प्रतिबिम्ब' शीर्षक वाली लघुकथा मनोजगत् की प्रतिनिधि लघुकथा है जिसका कथानायक, अपना हो या गैर, हर किसी को बुराई की दलदल से बचाना चाहता है। 'मर गई संवेदनाएं' करारा तमाचा है उन स्वपोषी ताकतों पर जिन्हें अपने से आगे कुछ दिखाई नहीं देता।
'मां अभी जिन्दा है', अति भावपूर्ण रचना में दर्शाया है कि सारे रिश्ते एक तरफ, मां का रिश्ता दूसरी तरफ रखें तो मां का ही पलड़ा भारी रहता है। इन लघुकथाओं के विषय घर-परिवार की टोह लेते हुए, समाज व राजनीति की पगडंडियां फलांगते हुए विश्वग्राम तक पहुंचते हैं। अनुभूति के फलक से उतरे इन विषयों में पीढिय़ों का अन्तराल, भौतिकता की अंधी दौड़, रूढिय़ां-विश्वास, परम्पराएं, बालमन की सरलता, लोक दिखावा, सामाजिक विषमता, चरित्र का दोगलापन, बुजुर्गों की उपेक्षा,मूल्यों का अपघटन, व्यवहारगत छलावा, असीमित अपेक्षाएं आदि शामिल हैं। इसके साथ ही मानव मन की उदारता, सरलता, सादगी, त्याग, कर्तव्यपरायणता और संवेदनाओं के विस्तार का उजला अध्याय प्रस्तुत करती हैं। कितनी ही ऐसी लघुकथाएं हैं जिनमें पात्र तो आंसू पौंछते ही हैं, पाठक भी स्वयं को उसी धार मेंं पाता है।
संग्रह की भाषा सहज है। लेखक ने संवाद शैली व कहीं-कहीं वर्णनात्मक शैली अपनाई है। प्रश्रात्मक शैली भी है जिसने पाठक को सोचने को मजबूर किया है। चित्रात्मकता इन कथाओं का विशेष गुण है। आवरण कलात्मक व अर्थपूर्ण है। कुछ लघुकथाओं के शीर्षक कथ्य से मेल नहीं खाते। यहां और मन्थन किया जाना चाहिए था। कहीं-कहीं पात्रों की आयु का जिक्र अनावश्यक रहा है। कुछ एक लघुकथाओं के अंत में एक दो पंक्तियां फालतू-सी लगती हैं। कुल मिलाकर लघुकथाएं पाठक के मनोजगत् पर छाप छोड़ती हैं। लेखक को साधुवाद। 
 
-कृष्णलता यादव,गुरुग्राम - 122001
 
पुस्तक: प्रतिबिम्ब, लेखक: नरेन्द्र कुमार गौड़
प्रकाशन: सूर्यभारती प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 150 रू, पृष्ठ: 96, संस्करण: 2012 

Saturday, August 8, 2015

एक प्रेरणादायक बाल-कृति : मुस्काता चल

कृष्णलता यादव एक सुपरिचित कथा लेखिका हैं। अब तक इनके तीन लघुकथा संग्रह-अमूल्य धरोहर, भोर होने तक तथा चेतना के रंग के अतिरिक्त एक बाल कथा संग्रह-दोस्ती की मिसाल तथा एक बाल कविता संग्रह-मीठे बोल भी प्रकाशित हो चुके हैं। समय-समय पर इनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होती रही हैं। मुस्काता चल कृष्णलता यादव का नवीनतम बाल कविता संग्रह है।
मुस्काता चल की सभी 26 बाल कविताओं में विषय वैविध्य के अनुसार निम्रप्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है-प्रेरणाप्रद, शिक्षाप्रद, जीव-जन्तुओं संबंधी, रिश्ते-नातों पर आधारित एवं पर्व-त्यौहारों की बाल कविताएँ।
प्रेरणाप्रद कविताओं में मुस्काता चल, हुनर बच्चों के,करवट बदली, सपनों का उपहार दें, नूतन पथ का सेनानी, सीमा के सिपाही तथा चींटी से सीख प्रमुख हैं। सपनों का उपहार दें की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
हर बालक बाला के मुख पर
गौरवमयी मुस्कान है।
आशा की यह किरण सुनहरी
धीर-वीर बलवान है।।
शिक्षाप्रद कविताओं के शीर्षक हैं-कमाना सीख, सबकी छिपी भलाई, बनूं नहीं हलवाई, सबकी अपनी बोली, बचत का पाठ, छतरी, सूरज दादा, मिट्टी की महिमा तथा खूब सुहाना कल। छतरी की पंक्तियाँ देखिए-
धूप चढ़ी तब तानी छतरी।
कब करती मनमानी छतरी।।
तपन सहे औरों की खातिर।
देखो कितनी दानी छतरी।।
कुछ कविताओं में जीव-जन्तुओं को माध्यम बनाया गया है। जिनके उदाहरण हैं-मच्छर, हठीला तोता, मधुमक्खी, ओ रे कागा, आ री चिडिय़ा। ओ रे कागा की पंक्तियाँ-
ओ रे कागा मुझे बताओ
क्यों है तेरी कड़वी बोली?
क्या तुमको अच्छी न लगती
कभी-कभी की हँसी-ठिठोली।।
नानी जी, कह दो मुझे कहानी, समझदारी, रिश्ते-नातों पर आधारित कविताएँ हैं। कह दो मुझे कहानी की कुछ पंक्तियाँ देखिए-
नानी जी ओ नानी जी,
कह दो मुझे कहानी जी।
राजा की या रानी की,
धूप, हवा और पानी की।।
पर्व-त्यौहारों के अन्तर्गत होली पर एक कविता है-होली आई।
इसी प्रकार संग्रह में कुछ कविताएँ कथात्मक शैली में हैं। कविताओं की भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य है। बच्चे खेल-खेल में इन्हें कण्ठस्थ कर सकते हैं। चित्रांकन से कृति की सार्थकता बढ़ गई है।

- घमंडीलाल अग्रवाल

पतझड़ में मधुमास की तरह



लघुकथाकारों में कृष्णलता यादव एक चिरपरिचित नाम है और इसकी साक्षी हैं उनके द्वारा लिखी गई अनगिनत लघुकथाएं। हालिया प्रकाशित चौथा लघुकथा-संग्रह ‘पतझड़ में मधुमास’ में संकलित लघुकथाओं में आम जीवन से जुड़ा लगभग हर पक्ष अपनी विसंगतियों के साथ-साथ आशा व सकारात्मकता के साथ उपस्थित है। लेखिका में क्षणों को पकड़कर उसकी समीक्षा करनेवाली संवेदनशीलता है जो इन लघुकथाओं में स्पष्ट रूप से उभरती दिखती है। आधुनिकता ने हमारे जीवन और इसकी पद्धति को कहां तक प्रभावित कर डाला है, उसके सशक्त उदाहरण मिलते हैं, ‘पैकेज’, ‘हाइटेक’, ‘ग्लोबलाइजेशन’, ‘घेरे अपने-अपने’ और ‘ममता’ प्रभृति लघुकथाओं में। उदाहरण के लिए ‘आधुनिकता का रंग’ को ले सकते हैं जिसमें शराब पीकर सड़क पर बेसुध पड़े बेटे के बारे में जब हेड कांस्टेबल उसके पिता को फोन पर सूचित करता है तो पिता प्रत्युत्तर में कहता है—‘अजी साहब, यही उम्र है लाइफ को इंज्वाय करने की।’
बच्चों के प्रति संवेदनशीलता के साथ-साथ कृष्णलता महिलाओं और बुजुर्गों की मनःस्थिति पर सूक्ष्म पकड़ रखती हैं। ‘नेह का बंधन’, ‘सयानपत’, ‘बहिष्कार’, ‘समय का दस्तूर’, ‘सोच’, ‘कुशंका’, ‘यही सच है’, ‘अनमोल खजाना’, ‘कथनी’, ‘अमृतकण’, विश्वास-अविश्वास’, ‘पर-उपदेश’, ‘बुढ़ापे की लाज’ सरीखी लघुकथाएं वयोवृद्धों के मन का विभिन्न कोणों से पड़ताल करती हैं। ‘सोच’ की अंतिम पंक्तियां—‘बहन, तुम-सी भाग्यशाली कोई नहीं। तुम जी-जान से नब्बेसाला सास की सेवा करके, घर बैठी पुण्य कमा रही हो। क्या इससे बड़ा कोई तीर्थ हो सकता है?’ महिला की स्वस्थ चिंतनधारा को इंगित करती हैं। वहीं दूसरी ओर ‘कड़वा सच’ नारी-मन की एक स्वार्थपरक छवि को केंद्रित करने में सार्थक रही है। इसी तरह ‘आक्रोश‘ में शोषण के विरुद्ध महिलाओं का संगठन एक आदर्श विद्रोह के रूप में परिलक्षित हुआ है। समाज और परिवार से जुड़े प्रसंग संग्रह की संस्कारगत विशिष्टताएं हैं। बेटी-बेटे का फर्क की मानसिकता ‘कामकाजी का जन्म’, ‘बेटे का धन’ आदि में बखूबी हुआ है। संग्रह की कुछेक लघुकथाओं के थीम पर पहले भी कई लघुकथाएं लिखी जा चुकी हैं। उदाहरणार्थ ‘दिल के अरमां’ और ‘अपनी अपनी मदिरा’ थीम पर वरिष्ठ लघुकथाकार उम्दा लघुकथाएं दे चुके हैं। उनसे तुलना कर अपनी लेखनी क्षमता का लघुकथाकार स्वयं भलीभांति मूल्यांकन कर सकती हैं। बहरहाल लघुकथाओं में सपाटबयानी से बचने का जितना भी प्रयत्न किया जाएगा, रचना उतनी ही सार्थक व परिपक्व बनकर उभरेगी। एक ही थीम पर कुछ अलग-सी लिखी गई लघुकथा का असर कहीं अधिक होता है। और सब कुछ कहने के बजाय लघुकथा स्वयं कहे तो उसकी संप्रेषण-क्षमता कुछ अधिक बढ़ जाती है। संक्षेप में कहा जाय तो कृष्णलता की ये लघुकथाएं सचमुच पतझड़ में मधुमास की ही तरह हैं जो आश्वस्त करती हैं।

-रतन चंद ‘रत्नेश’

0पुस्तक : पतझड़ में मधुमास 
0लेखिका : कृष्णलता यादव 
0प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
0पृष्ठ संख्या : 90 0मूल्य : रुपये 220.
देनिक ट्रिब्यून से साभार

जिन्दगी की डाल से तोड़े गये- ‘नागफनी के फूल’

रघुविन्द्र यादव बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील रचनाधर्मी हैं। आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल से सद्य प्रकाशित 80 पृष्ठीय ‘नागफनी के फूल’ उनके 25 शीर्षकों में बंटे 424 दोहों का मनभावन संग्रह है। इसमें सरल भाषा में लिखे गये दोहों में जीवन, राजनीति, यथार्थ, जीवन की विसंगतियों, मूल्यहीनता, भ्रष्ट व्यवस्था, आतंकवाद, गाँव की बदलती हालत, पर्यावरण प्रदूषण, रिश्तों में फैलती स्वार्थपरता, संबंधों की मृदुता, हिन्दी की महत्ता आदि अनेक विषयों पर प्रभावी दोहे अनुस्यूत हैं। इन दोहों में मिथकों का नवीनीकरण करते हुए यथार्थ को वाणी दी गई है और सरल प्रतीकों से जीवन के सत्य को रुपापित किया गया है। इनका संवेदना-संसार व्यापक है। वे व्यक्ति से लेकर विश्व और अंतरिक्ष तक को अपना कथ्य बनाते हैं। भाषा पर कवि का अधिकार है और समन्वय का परिपालन करते हुए दोहाकार ने परिमार्जित शब्दावली से लेकर विदेशी और देशज शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। लोक-संस्कृति और लोक-जीवन के प्रति कवि का गहरा अनुराग है। इसीलिए तो शहर की जिन्दगी उसे ‘घर में ही वनवास’ भोगने जैसी लगती है। सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण से कवि आहत है, इसीलिए उसे लगता है कि अब ‘लोग नागों से भी अधिक विषैले हो गए हैं’, ‘आँगन में नागफनी’ उग आई हैं, चीखती द्रौपदी की लाज बचाने वाला कोई नहीं क्योंकि आज के केशव स्वंय गुण्डों से मिल गए हैं, नेता और दलाल देश को लूट कर खा रहे हैं और हमारी संवेदनाएं सूख गई हैं। धारदार भाषा में जीवन के जटिल यथार्थ को प्रकट करने की कवि की क्षमता प्रसंशनीय है। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और पुलिस के खौ$फनाक भक्षक चेहरे को उजागर करते हुए जब यादव जी कहते हैं- 
संसद में होती रही, महिला हित की बात।
थाने में लुटती रही, इज्जत सारी रात।।
तो आज का नंगा यथार्थ अपने विद्रूपित चेहरे के साथ सामने आ जाता है। इसी तरह जब वे आज की व्यवस्था के षडय़ंत्रकारी शोषक चेहरे को निरावृत्त करते हुए कहते हैं-
हत्या, डाका, रहजनी, घूस और व्यभिचार।
नेता करने लग गये, लाशों का व्यापार।।
तो आज की राजनीति का सच सामने आ जाता है। भू्रणहत्या जैसे दुर्दान्त पाप हों, या प्रकृति का अनियन्त्रित और अंधाधुंध दोहन, नेताओं की धूर्तता हो या पुलिस का अत्याचार, आज की पीढ़ी में पनपती अनास्था हो या पारिवारिक मूल्यों का क्षरण, फैलते बाजारवाद का दुर्दान्त चेहरा हो गया वैश्वीकरण के अंतहीन दुष्परिणाम, कवियों की गिरती छवि हो या पत्रकारिता का थ्रिल तलाशता बाजारी चेहरा, महँगाई की मार से बेदम हुआ अवाम हो या संबंधों में पनपी स्वार्थपरता, मूल्यों की टूटन हो या संस्कृति का क्षरण यादव जी सच को सच की भाषा में उकेरना जानते हैं। वे आज की समस्याओं और प्रश्रों से सीधे-सीधे मुठभेड़ करते हैं। यथार्थ जीवन की विकृतियों और दुर्दान्तताओं पर सीधे-सीधे चोट करते कुछ दोहे दृष्टव्य हैं-
विद्वानों पर पड़ रहे, भारी बेईमान।
हंसों के दरबार में, कौवे दें व्याख्यान।।
* * *
दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज।
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज।।
* * *
जब से उनको मिल गई, झंडी वाली कार।
गुण्डे सारे हो गये, नेताजी के यार।।
* * *
नफरत बढ़ती जा रही, घटा आपसी प्यार।
जब से पहुँचा गाँव में, केबल का व्यापार।।
* * *
नारी थी नारायणी, बनी आज उत्पाद।
लाज-शर्म को त्याग कर, करे अर्थ को याद।।
इन दोहों की धार बड़ी तीखी है। भाषा के संबंध में कवि अत्यंत उदारवादी है। उसने एक ओर ख्वाहिश, उसूल, अदब, गिरवी, ज़लसे, तमन्ना, रहबर, राहजनी, अवाम तथा शान जैसे उर्दू फारसी शब्दों का प्रयोग किया है तो केबल टी.वी.जैसे अंग्रेजी शब्द भी इनमें उपलब्ध हैं। कुछ शब्दों को कवि ने देशज शैली में भी प्रयुक्त किया है, यथा मन्तरी, डूबन आदि। मिथकों का प्रयोग अत्यंत शानदार है। द्रौपदी, कृष्ण, देवकी, केशव आदि का प्रयोग करके कवि ने अभिव्यक्ति को दमदार बनाया है परन्तु यथार्थ की ऐसी दमदार अभिव्यक्ति वाले कुछ दोहों में भी कहीं-कहीं संरचनात्मक त्रुटियाँ रह गयीं हैं, परन्तु ये दोष अपवाद स्वरूप हैं, अन्यथा ये दोहे निर्दोष हैं। हमारा विश्वास है कि ‘‘नागफनी के फूल’’ के ये दोहे साहित्य जगत में सम्मान पायेंगे। 

-डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ 

डी.लिट.
86, तिलकनगर, बाईपास रोड़, फीरोजाबाद (उत्तर प्रदेश)-283203 


बात तो बोलेगी

बात बोलेगी मुरादाबाद के चर्चित रचनाकार श्री योगेन्द्र वर्मा व्योम की सद्य प्रकाशित कृति है। जिसे गुँजन प्रकाशन, मुरादाबाद ने प्रकाशित किया है। इस कृति में देश के पन्द्रह प्रसिद्ध गीत/नवगीतकारों और शायरों के साक्षात्कार प्रस्तुत किए गए हैं। जिनमें डॉ.शिवबहादुर सिंह भदौरिया, श्री ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग, श्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, श्री सत्यनारायण, श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव, श्री शचीन्द्र भटनागर, डॉ.माहेश्वर तिवारी, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री मयंक श्रीवास्तव, डॉ.कुँवर बेचैन, श्री ज़हीर कुरैशी, डॉ.ओमप्रकाश सिंह, डॉ.राजेन्द्र गौतम, श्री आनन्दकुमार गौरव और डॉ.कृष्णकुमार राज शामिल हैं।
साक्षात्कार का सबसे महत्वपूर्ण पहलु है कि साक्षात्कार करने वाले को खुद इस बात का पूरी तरह से ज्ञान होना चाहिए कि वह सामने वाले से क्या जानना चाहता है और इसी आधार पर प्रश्रोत्तरी तैयार की जानी चाहिए। श्री योगेन्द्र व्योम ने यह कार्य पूरी दक्षता के साथ किया है। उन्होंने ने न सिर्फ देश के वरिष्ठ रचनाकारों से उनके साहित्य के संदर्भ में चर्चा की है अपितु गीत-नवगीत और $गज़ल की दशा और दिशा के बारे में भी महत्त्वपूर्ण सवाल किए हैं। वरिष्ठ रचनाकारों के साथ की गई चर्चा नये कलमकारों के पथ-प्रदर्शक का काम करेगी। नये रचनाकार और पाठक जान सकेंगे कि गीत और नवगीत में क्या अंतर है, $गज़ल और गीत-नवगीत में क्या अंतर है और इनके सृजन के लिए क्या-क्या बातें ध्यान में रखना जरूरी है कि साहित्य टिकाऊ बने।
गीत-नवगीत के भविष्य के प्रति पुरानी पीढ़ी की सोच क्या है और वे किस हद तक आश्वस्त हैं, शायर गीत के साथ और गीतकार गज़ल के साथ न्याय कर रहे हैं या नहीं, गीत के कथ्य में क्या परिवर्तन आया है, नवगीत के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं, हिन्दी $गज़ल को कहाँ तक सफलता मिली है आदि सवालों के जवाब श्री व्योम ने उन रचनाकारों से पूछे हैं जिनका इन विधाओं को बुलंदियों पर ले जाने में अहम योगदान है।
बात बोलेगी के माध्यम से केवल गीत और गज़ल की ही जानकारी पाठकों को नहीं मिलेगी बल्कि वरिष्ठ रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व से भी पाठक रूबरू हो सकेंगे। अगर यह कहा जाए कि कृति हर लिहाज से एक एतिहासिक दस्तावेज बन गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आकर्षक आवरण, सुन्दर और शुद्ध छपाई वाली इस 208 पृष्ठ वाली कृति का मूल्य 300 रुपये वाजिब ही कहा जाएगा। कृति पठनीय है और व्योम जी बधाई के पात्र।

-रघुविन्द्र यादव