युगबोध से ओतप्रोत दोहों का संग्रह: पानी जैसा रंग
‘पानी जैसा रंग’ वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम समीप का नव प्रकाशित दोहा
संग्रह है| जिसमें उनके 871 दोहे और एक दोहा ग़ज़ल संकलित किये गए हैं| जीवन जगत के
विविध रंगों को समेटे दोहे कथ्य और शिल्प दृष्टि से सराहनीय हैं| अनुभूति की कसौटी पर ये
दोहे बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ संप्रेषण करने वाले कहे जा सकते
हैं। सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है। कवि ने जीवन के विभिन्न पहुलुओं को छूते
हुए सहज और मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करके अपने कथ्य को प्रभावशाली बनाया है,
वहीँ बिम्ब, प्रतीक और अलंकारों का यथोचित प्रयोग करके दोहों की संप्रेषणीयता भी
बढाई है|
संत करें व्यापार अब, शासक बने महंत|
काँटों पर भी आजकल, छाने लगा बसंत||
समीप जी के दोहे कल्पना पर
आधिरित न होकर अपने आसपास की सुनी, देखी और भोगी हुई सच्चाइयों के जीवन्त मंज़र पेश
करते हैं| इन दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व
है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से दोहाकार राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का
खुलासा प्रभावी ढंग से कर पाते हैं।
एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|
यहाँ मदारी हांक ले, बंदर कई करोड़||
देखा तानाशाह ने, ज्यों ही आँख तरेर|
लगा तख़्त के सामने, जिव्हाओं का ढेर||
अजब सियासत देश की, गज़ब आज का दौर|
ताला कोई और है, चाबी कोई और||
ताला कोई और है, चाबी कोई और||
कवि ने समसायिक संदर्भों को
नजरअंदाज नहीं किया । इसका प्रमाण उनके कतिपय दोहे हैं जो भरपूर संवेदना के साथ
हमारे हृदय को झकझोर कर रख देते हैं।
करुणा बेची जा रही, भावुकता के संग|
भीख मांगने के लिए, बच्चे किये अपंग||
रिश्वत दे सकता नहीं, नहीं जान-पहचान|
दुखिया ऐसे भी कहीं, मिलता है अनुदान||
संग्रह के दोहे व्यवस्थागत
विसंगतियां को चिन्हित करते और व्यवस्था की अमानवीय स्थितियों के विरुद्व संघर्ष की
घोषणा करते दोहे हमारा ध्यान खींचते हैं-
पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ|
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ||
बस थोड़ी-सी आग हो और हवा का साथ|
अंधियारे से कर सकूं, मैं भी दो-दो हाथ||
समीप जी के दोहे वर्तमान की
विसंगतियों की प्रस्तुति से जनमानस को यथार्थ का बोध कराते हैं। आज बाजार में
प्रत्येक व्यक्ति को जहां गलाकाट प्रतियोगिता जन्म से ही मिल जाती हो वहां संवेदना,
सहृदता या अपनेपन के लिए कितना स्पेस बच पाया है। वैश्वीकरण के बढ़ते इस प्रभाव से
उत्पन्न व्यक्ति मन की पीड़ा को उन्होंने पूरी मार्मिकता से व्यक्त किया है-
अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख|
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख||
संघर्षरत ग्रामीण जीवन के प्रति
भी उनके सरोकार स्पष्ट हैं। इन दोहों में आधुनिक जीवन की त्रासदियों की कराह हमें
स्पष्ट सुनाई दे रही है। जीवन मूल्यों में आ रहे सामाजिक धार्मिक राजनीतिक और आर्थिक
परिस्थितियों के बदलाव के प्रति दोहाकार ने जागरूकता दिखाई है। गरीब मजदूर किसान
दलित जीवन का चित्रण किया है। इस तरह उनके सरोकार मनुष्य की अस्मिता उसकी सोच और
सम्बंधों पर आधारित हैं। इसीलिए इन दोहों में जीवन यथार्थ से साक्षात्कार की अनेक
स्थितियाँ दृष्टिगत होती हैं।
क्यों रे दुखिया! क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़|
मुखिया के घर आ गया पहने नयी कमीज़||
कवि खुद को उन लोगों के साथ खड़ा करना चाहता है जो आज भी दबे-कुचले हैं, दुख
में हैं| इस का उद्घोष भी वे अपने दोहों में करता है-
मेरे दोहों का रहा, सिर्फ यही इक रंग|
जो भी दुख में है कहीं, मैं हूँ उसके संग||
तमाम विसंगतियों और विद्रूपताओ के बावजूद कवि निराश नहीं है, उसका नजरिया
आशावादी है और यह उनके दोहों में अभिव्यक्त हुआ है-
फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस|
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास||
हालांकि संग्रह के अधिकांश दोहे धारदार और प्रभावशाली हैं किन्तु प्रूफ की
अशुद्धियों की भरमार खीर में कंकर की तरह स्वाद ख़राब करती है| लगता है प्रकाशक ने
कतई मेहनत नहीं की और यूनिकोड में टाइप पाण्डुलिपि का फॉण्ट कन्वर्ट करके ज्यों का
त्यों छाप दिया गया है| ‘क’ और ‘फ’ के नीचे की मात्राएँ उचित स्थान पर नहीं हैं| एकाध
जगह को छोड़कर उर्दू-फारसी के शब्दों के नीचे से नुक्ते गायब हैं| चन्द्र बिंदु के
स्थान पर कहीं केवल बिंदु का प्रयोग है तो दूसरी जगह उसी शब्द पर चन्द्र बिंदु|
शब्दों के ऊपर लगे ‘र’ के बाद या ‘ई’ पर बिंदु उचित ढंग से नहीं लगाये गए हैं| कवि
ने जहाँ ‘य’ का प्रयोग किया था उसे ये/ए बना दिया गया है, जिससे दोहों में छंद दोष
पैदा हो गए हैं|
किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी द्वारा प्रकाशित इस 120 पृष्ठीय पेपरबैक कृति
का आवरण, छपाई, कागज स्तरीय हैं और 195 रूपये मूल्य भी वाजिब कहा जा सकता है| कुल
मिलकर समीप जी ने हिंदी साहित्य को एक स्तरीय संग्रह प्रदान किया है जो दोहा
साहित्य को समृद्ध करेगा और नवोदित दोहकारों को श्रेष्ठ दोहा लेखन के लिए प्रेरित
करेगा ऐसी आशा है|
दोहाकार को बहुत-बहुत बधाई|
रघुविन्द्र यादव