विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Tuesday, June 7, 2016

उगे कैक्टस देश - होशियार सिंह 'शंबर'

निर्दोषों की खोपड़ी, रहे कसाई तोड़। 
क्रमिक योग कितना हुआ, रहे आँकड़े जोड़।।

दोहा छंद सुहावना, गाये लय अरु ताल।
गाया जो सकता नहीं, उठता वहीं सवाल।।

पत्नी की बातें सुनी, तुलसी त्यागी गेह।
तपकर रामायण लिखी, जगत सिखायी नेह।।

बोये बीज गुलाब के, उगे कैक्टस देश।  
उठो उखाड़ो मूल को, यह कवि का संदेश।।

हरिजन वह जो हरि भजे, हरिजन के हैं राम।
माँ के वर आशीष से, मैं तो राम गुलाम।।

तीरथ सुख की कल्पना, पूरे हो सब काम।
मात-पिता, गुरु देवता, चारों तीरथ धाम।।

गीत, $गज़ल अरु दोहरे, लोकगीत अरु छंद।
कविता रचना में सदा, है स्वॢगक आनन्द।।

अर्पित जीवन कर दिया, जग पूरा विश्वास।
खोजे भी दुर्लभ रहे, ऐसे रत्न सुभाष।।

खड्डी पर कपड़ा बुने, कपड़ा नहीं शरीर।
रामदास बीजक गढ़े, गाते रहे कबीर।।

शब्द साधना से सजें, देते अर्थ सटीक।
 चरण तोड़ मत फेंकिये, नहीं पान की पीक।।

-होशियार सिंह 'शंबर'

द्वारा श्री देवेन्द्र सिंह  'देव' एडवोकेट              
1376, गली नं. 2, शास्त्री नगर, बुलंदशहर

चढ़ा नहीं अभिमान - शिवकुमार 'दीपक'

सदाचार की चोटियाँ, चढ़ा नहीं अभिमान।
झुककर चलता जो पथिक, चढ़ जाता चट्टान।
मन ही मन मुस्का रहे, नीर भरे तालाब।
जीवन लेकर आ रहा, लहरों का सैलाब।।
कपी रात भर झोंपड़ी, गर्म रहे प्रासाद। 
ठिठुर ठिठुर दुखिया करे, जाड़े का अनुवाद।।
कड़वी बातें साँच की, बोले जो इन्सान।     
तन जाते उस शख्स पर, चाकू, तीर कमान।।
आँगन में तुलसी जली, धूप सकी ना झेल।
इक तुलसी ससुराल में, जली छिडक़कर तेल।
गई सभ्यता गर्त में, छूट गए संस्कार।  
सबसे घातक देश में, नैतिक भ्रष्टाचार।।
राणा की सुन वीरता, खुलती आँखें बन्द। 
राणा बन सकते नहीं, मत बनिए जयचन्द।।
कोठी वाले गेट पर, खड़ा मिला इन्सान।
लेकिन ऊँची कोठियाँ, बेच चुकी ईमान।।
बटवारा घर में हुआ, बँटा माल, घर, द्वार।
उनको धन दौलत मिली, मुझको माँ का प्यार।
की अगुवानी महल ने, हुआ हास परिहास।
लगे छलकने शिशिर में, मदिरा भरे गिलास।।

-शिवकुमार 'दीपक'

बहरदाई, सहपऊ, हाथरस
9927009967

सर्द रात अखबार पर - अशोक 'आनन'

ओढ़ रजाई धुंध की, रख सिरहाने हाथ।   
सर्द रात अखबार पर, लेटी है फुटपाथ।।
बाँच रही है धुंध का, सुबह लेट अ$खबार। 
रात ठंड से मर गए, दीन-हीन लाचार।।
एक दीप तुम प्यार का, रखना दिल के द्वार।
यही दीप का अर्थ है, यही पर्व का सार।।
झाँके घूँघट ओट से, हौले से कचनार।   
भँवरे करते प्यार से, चुम्बन की बौछार।।
खुशियों के $खत बाँटता, आया पावस द्वार।
मुझे विरह की दे गया, पाती अबकी बार।।
जादू-टोना कर गई, सावन की बौछार।
काजल भी नज़रा गया, साजन अबकी बार।।
मुझको पावस दे गया, आँसू की सौगात।
सजकर निकली आँख से, बूँदों की बारात।।
बस्ती-बस्ती $खौफ है, घर-घर आदमखोर।
जान बचाकर आदमी, अब जाए किस ओर।।
बंद मिलीं ये खिड़कियाँ, बंद मिले सब द्वार।
अब तो सारा शहर है, दहशत से बीमार।।
गए प्रीत के डालकर, झूले मन की शाख।
चुरा रहे क्यों आज तुम, साजन मुझसे आँख।।

-अशोक 'आनन'

61/1, जूना बाज़ार, मक्सी, शाजापुर
9977644232

सद्गुण का अपमान - शैलजा नरहरि

हाथ पाँव चलते रहें, चलता रहे शरीर।      
ये मदिर सी देह ही, तेरी है ज़ागीर।।

अम्मा है घर की हँसी, अम्मा से घर बार।
अम्मा बजता साज है, कसा हुआ हर तार।।

मौलसिरी हँसती रही, मुरझा गए कनेर।
चकला बेलन पूछते, कैसे हो गई देर।।

कागज पीले हो गए, ताजे फिर भी बोल। 
प्यार प्रीत की चि_ियाँ, जब चाहे तब खोल।।

बहुत बड़ा दिल चाहिए, करने को गुणगान।
अकसर ओछों ने किया, सद्गुण का अपमान।

खण्ड-खण्ड उत्तर हुए, प्रश्न रह गए मौन।
जब आहत हैं देवता, उत्तर देगा कौन।।

साँसे जब तक साथ थीं, सब ने बाँटी प्रीत। 
धू-धू जलता छोडक़र, लौट गए सब मीत।।

छोटे-बड़े न देवता, छोटी बड़ी न रीत।     
घर बैठे भगवान से, करके देखो प्रीत।।

क्या मैं सबको बाँट दूँ, क्या मैं रक्खूँ पास। 
इस दुनिया ने जानकर, तोड़ा हर विश्वास।।

माँग भरी, आँखें भरी, भरे चूडिय़ों हाथ। 
साजन की देहरी मिली, छूटा सबका साथ।।

-शैलजा नरहरि

आर्किड -एच, वैली ऑफ क्लावर्स
ठाकुर विलेज, कांदिवली (पूर्वी), मुंबई-400101

Sunday, June 5, 2016

जीवन का नव दौर - घमंडीलाल अग्रवाल

आज़ादी के अर्थ को, देनी होगी दाद।      
जो भी मन हो कीजिए, दंगे, खून, फसाद।।

नदी किनारे वह रहा, प्यासा सारी रात।  
समझ नहीं पाई नदी, उसके मन की बात।।

गजदन्तों से सीखिए, जीवन का नव दौर।
खाने के हैं दूसरे, दिखलाने के और।।

मंत्री जी का आगमन, हर्षाता मन-प्राण।
सडक़ों की तकदीर का, हो जाता कल्याण।।

कोई तो हँसकर मिले, कोई होकर तंग।
दुनिया में व्यवहार के, अपने-अपने ढंग।।

जायदाद पर बाप की, खुलकर लड़ते पूत।
बहनें सोचें किस तरह, रिश्ते हों मतबूत।।

यश अपयश कुछ भी मिले, अपनाई जब पीर।
मीरा ने भी यह कहा, बोले यही कबीर।।

बीयर की बोतल खुली, पास हुए प्रस्ताव।
बाज़ारों में बढ़ गए, नून, तेल के भाव।।

करते हैं कुछ लोग यों, जीवन का शृंगार।  
एक आँख में नीर है, एक आँख अंगार।।

यह रोटी को खोजता, वह सोने की खान।
अपने प्यारे देश में, दो-दो हिन्दुस्तान।।

-घमंडीलाल अग्रवाल

785/8, अशोक विहार, गुडग़ाँव-122006
9210456666

झूठों का गुणगान - (प्रो.) डॉ.शरद नारायण खरे

गहन  तिमिर का दौर है, घबराता आलोक। 
हर्ष खुशी पर है ग्रहण, पल पल बढ़ता शोक।।
हवा चल रही विष भरी, संशय का संसार।
रिश्ते नाते बन गये, आज एक व्यापार।।
ताकतवर की जीत है, झूठों का गुणगान।   
जो जितना कपटी हुआ, उसका उतना मान।।
गणित वोट का हल करो, तब पाओगे जीत।
सत्य, न्याय , ईमान का, कौन सुने अब गीत।।
लोकतंत्र में लोक की, उधड़ रही है खाल। 
तंत्र हो गया भोथरा, प्रहरी खाते माल।।
राहत पहुँचाने जुटें, जब सरकारी वीर।  
रूखा सूखा बाँटकर, खा जाते खुद खीर।।
फैशन के रंग में रंगी, देखो अब तो नार। 
अपना बदन उघाडक़र, करियर रही सँवार।।
मंदिर मस्जि़द एक हैं, अल्लाह ईश समान।
फिर कटुता किस बात की, क्यों लड़ता इंसान।
वह उतना ऊपर उठा, जो जितना मक्कार।
सीधा सच्चा पा रहा, अब तो नियमित हार।।
कर्मठता गुम हो गई, शेष दिखावा आज।
चमक दमक में खो गया, देखो आज समाज।।

-(प्रो.) डॉ.शरद नारायण खरे

शासकीय महिला महाविद्यालय, मण्डला, म.प्र.
9425484382

गए ये दीमक चाट - रमेश सिद्धार्थ

जात, पात, अरु धर्म पर, देखे विकट कलेश।
सुधेरेगा किस वक्त में, उ$फयह भारत देश।।
मंदिर मुद्दा आ रहा, नेताओं को रास।
साधू तो पाँसे बने, चौपड़ सम हैं न्यास।।
सत्ता की सीढ़ी बने, धर्म, जात अरु पात।
संख्याओं के खेल से, देते सब को मात।।
चहुँ दिस टूटे बुत दिखें, जले हुए अखबार।
घोटालों की पोटली, झूठों के अम्बार।।
मंत्री पद होने लगा, अब सचमुच बेजोड़।
सुख सत्ता के साथ में, जोड़ो लाख करोड़।।
रहे सदा से लूटते, जग को अंधा मान।
न्याय तराजू में तुले, अब मुश्किल में जान।।
कुछ ने गुपचुप लूट की, कुछ ने बंदरबाँट।
जड़ दुखियारे देश की, गए ये दीमक चाट।।
ऊँट अचम्भे में पड़े, जैसे देख पहाड़।
हर घोटालेबाज को, वैसी लगे तिहाड़।।
कल थी मन में आस्था, नैतिकता, विश्वास।
आज वहाँ आसीन हैं, स्वार्थ, भोग, विलास।।
खादी, कुर्ते हैं वही, बदल गए बस माप।
सत्य, अहिंसा, न्याय के, भाषण मात्र प्रलाप।।

-रमेश सिद्धार्थ

हाऊसिंग बोर्ड कॉलोनी, रेवाड़ी
9812299221

नेता हुए दलाल - राहुल गुप्ता

गाँधी जी के देश में, कैसा मचा बवाल।
गुंडे ठेकेदार हैं, नेता हुए दलाल।।
रस्ते कठिनाई भरे, मंजिल हो गयी दूर।
महँगाई के दौर में, सपने चकनाचूर।।
रोटी कपड़ा दाल की, बातें हुयी हजार।
नेताओं को भा रहा, वोटों का व्यापार।।
भूखे को कब मिल सके, रोटी चावल दाल।
नेता जी की पाँत में, मुर्गे हुए हलाल।।
सूख चली यमुना नदी, सूख चले हैं घाट।
कैसे यमुना फिर बहे, देख रहे सब बाट।।
यमुना मंगलदायनी, समझो इसकी पीर।
करो जतन जी जान से, शुद्ध कराओ नीर।।
दागी बागी भ्रष्ट बद, राजनीति की शान।
गुंडई नंगई लुच्चई, बनी नई पहचान।।
नेता भिखमंगे हुए, मतदाता बेज़ार।
वादों के असवाब से, अटा पड़ा बाज़ार।
मुझको ही मत दीजिये, मैं ही तारनहार।
कहते फिरें चुनाव में, नेता जी हर बार।
मन्दिर में गाते भजन, मन रत्ना की आस।
कलयुग में ऐसे मिले, कितने तुलसीदास।।

- राहुल गुप्ता

 अध्यक्ष, संकेत रंग टोली, लोहवन, मथुरा
9412538550

अधरों पर मुस्कान - अंसार 'कम्बरी'

मन से जो भी भेंट दे, उसको करो कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।
सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।   
एक स्वाति की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
प्यासे के जब आ गयी, अधरों पर मुस्कान।
पानी-पानी हो गया, सारा रेगिस्तान।।
रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात।
जितना ऊँचा आदमी, उतनी नीची बात।।
जब तक अच्छा भाग्य है, ढके हुये हैं पाप। 
भेद खुला हो जायेंगे, पल में नंगे आप।।
तुम्हें मुबारक हो महल, तुम्हें मुबारक ताज। 
हम फकीर हैं 'कम्बरी', करें दिलों पर राज।।
हमको ये सुविधा मिली, पार उतरने हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।
पंछी चिंतित हो रहे, कहाँ बनायें नीड़।   
जंगल में भी आ गयी, नगरों वाली भीड़।।
जाने कैसी हो गयी, है भौरों से भूल।  
कलियाँ विद्रोही हुयीं, बा$गी सारे फूल।।
हवा ज़रा सी क्या लगी, भूल गयी औकात।
पाँवों की मिट्टी करे, सर पर चढक़र बात।।

-अंसार 'कम्बरी'

ज़फर मंजि़ल,11/116,
ग्वाल टोली, कानपुर

गाँव शहर में जा बसा - यतीन्द्रनाथ 'राही'

आँगन सूना छोडक़र, सपने छोड़ अनाथ। 
गाँव शहर में जा बसा, कुछ सपनों के साथ।।
आँसू पीकर माँ पड़ी, सपन समेटे बाप।
पूत अकेला शहर में, सडक़ रहा है नाप।।
हाथ झटक चम्पा चली, बूढ़ा हुआ रसाल।
वृद्धाश्रम के द्वार पर, खड़े करोड़ी लाल।।
सर-सरिता-बादल पिये, फिर भी रहे उदास।
अब इस आदम की कहो, कहाँ बुझेगी प्यास।
खोज रहे हो तुम जिसे, ऐसे खड़े उदास।
वह हंसों का गाँव था, अब यह काग निवास।।
पत्थर को अर्पित किए, अक्षत-चंदन-फूल।
पर जीवित इन्सान को, बोये पग-पग शूल।।
बाप रोग से मर गया, पूत कजऱ् के भार।
बची रोटियाँ खा गए, बामन-धूत-लबार।।
नन्हे दीपक ने नहीं, पल भर मानी हार।
रहा रात भर काटता, तिल तिल कर अँधियार।
हमें न आया आम को, कहना कभी बबूल।
इसीलिए फुटपाथ पर, रहे छानते धूल।।
टूट चुके कब तक सहें, ये दंशों पर दंश।  
करना है निर्मूल अब, यह साँपों का वंश।।

-यतीन्द्रनाथ 'राही'

ए-54, रजत विहार, होशंगाबाद रोड़, भोपाल-26
9425016140

किसकी बिखरी भावना - अशोक 'अंजुम'

किसकी बिखरी भावना, किसका टूटा नीड़।
नहीं समझती आँधियाँ, नहीं जानती भीड़।।
मिले सिपाही चोर से, $गायक हुए सबूत। 
दामन के धब्बे मिटे, न्याय हुआ अभिभूत।।
वही आज लेकर मिले, शीशी भर तेजाब।  
कल तक कसमें प्यार की, खाते रहे जनाब।।
अरी व्यवस्था क्या कहें, तेरा नहीं जवाब। 
जिनको पानी चाहिए, उनको मिले शराब।।
इस जनवादी सोच का, चित्र अनोखा देख।
पाँच सितारा में लिखें, होरी पर आलेख।।
पूछ रही हैं मस्जि़दें, मन्दिर करें सवाल।  
भला हमारे नाम पर, क्यों है रोज बवाल।।
मानवता की देह पर, देख-देखकर घाव।  
हम कबीर जीते रहे, सारी उम्र तनाव।।
घायल सब आदर्श हैं, सच है मरणासन्न।   
भरा-भरा याचक लगे, दाता हुआ विपन्न।।
डॉलर मद में चूर है, रुपया हुआ निढ़ाल। 
दिल्ली के दरबार में, बिखरे पड़े सवाल।।
मुट्ठी-भर थी चाँदनी, गठरी-भर थी धूप।
अंजुम जी प्यारा लगा, जीवन का हर रूप।।

-अशोक 'अंजुम'

संपादक, अभिनव  प्रयास, अलीगढ़
9258779744

जीवन का भूगोल - म.ना.नरहरि

राशन, कपड़े, पुस्तकें, चुभते गहरे डंक।   
बार-बार वेतन गिना, बढ़ा न फिर भी अंक।।
सब$क दिया जब यार ने, खुद हो गई तमीज़।
अपनी कहकर ले गया, मेरी नई कमीज़।।
राजपथों पर खो गया, जीवन का भूगोल।
खा$का सब पूरा हुआ, खास बात है गोल।।
साँस हुई शतरंज सी, कभी शह कभी मात। 
रोज बदलती रंग है, मुसीबतों की रात।।
दफ़्तर में कलमें बिकें, भाव बहुत है तेज़।    
हर फाइल है रेंगती, मेज़-मेज़ दर मेज़।।
हस्ताक्षर बेचा नहीं, ऊँचा रहा मिज़ाज।   
गाँव लौटना तय हुआ, परसों कल या आज।।
आँखों से आँखें मिला, मुझे पुकारा मीर। 
आँख झुका मैंने कहा, कहिये मुझे कबीर।।
बरगद बाबा मौन हैं, पवन हुई नाराज़।  
परत-परत हो खुल गई, संबंधों की प्याज़।।
झर-झर झरती रात से, दुखी नगर का भोर।
रस्ते बागी हो गए, सडक़ें गोता $खोर।।
दम्पति में हलचल हुई, बिखरा सब घर-बार।
चीखें सब सुनती रहीं, कान जड़ी दीवार।।

-म.ना.नरहरि

आकिॢड-एच, वैली ऑफ क्लावर्स
ठाकुर विलेज, कांदिवली (पूर्वी), मुंबई-400101     

Saturday, June 4, 2016

प्यासा पानी से मरे - शशिकांत गीते

अपना सब कुछ आज जो, कल जाएगा डूब|
प्यासा पानी से मरे, ये किस्सा भी खूब ||

अगुआ सारे व्यस्त हैं, झंझट लेगा कौन|
रजधानी  में बज रहा, खन-खन करता मौन||


पैसे से पैसा बना, सटका धन्ना सेठ|
भूखे, भूखे ही रहे, हाथों टूटी प्लेट||


पानी तो आया नहीं, डूब गए संबंध|
बातों से आने लगी, मारकाट की गंध||

कैसा रोना पीटना, कैसा हाहाकार|
नई सदी की नीव के, तुम हो पत्थर यार||

सूख गई है मंजरी, कटे किनारे पेड़|
प्यास किनारे पर पड़ी, उठती हृदय घुमेड||

सड़कें ही क्या जिन्दगी, अपनी खस्ता हाल|
पानी, बिजली भूख के, थककर चूर सवाल||

बड़ा कठिन है तैरना, धारा के विपरीत|
कूड़ा बहता धार में, तू धारा को जीत||

लोकतंत्र के नाम पर, कंप्यूटर रोबोट|
बटन दबे औ छापते, पत-पत अपने वोट||

-शशिकांत गीते
खण्डवा, मध्यप्रदेश

खुला हृदय का द्वार - चन्द्रसेन विराट

दस्तक दी जब प्रेम ने, खुला हृदय का द्वार।
पिछले दरवाजे अहम्, भागा खोल किवाड़।।

जो मेरा वह आपका, निर्णय हो अभिराम।
मिले हमारे प्रणय को, शुभ परिणय का नाम।।

तन करता इकरार पर, मन करता इनकार।
 देहाकर्षण उम्र का, वह कब सच्चा प्यार।।

देह रूप या रंग में, किसको कह दूँ अग्र।
सच तो यह है, तुम मुझे, सुन्दर लगी समग्र।।

अलग थलग होकर रहे, खुद को लिया समेट।
किंतु तुम्हारी नज़र ने, हमको लिया लपेट।।

तुमने बत्ती दी बुझा, जब हम हुए समीप।
लगा देव की नायिका, बुझा रही हो दीप।।

भरा रहा है प्रेम से, सतत आयु का कोष।
उससे मिली जिजीविषा, जीने का संतोष।।

उथली भावुकता भरा, सुख सपनों का ज्वार।
देहाकर्षण है महज, कच्ची वय का प्यार।।

सुन तो लेते हैं उन्हें, लोग न करते गौर।
जिनकी कथनी और है, लेकिन करनी और।।

गिनते हैं जब नोट सब, धन-अर्जन की होड़।
 ऐसे मे कवि कर रहा, मात्राओं का जोड़।।

-चन्द्रसेन विराट

121, बैकुंठ धाम कॉलोनी, इन्दौर
9329895540

मैं हारा कब जंग - डॉ.देवेन्द्र आर्य

ठहर अरी ओ जि़न्दगी, देख जगत के रंग।
दुख अब तक जीता नहीं, मैं हारा कब जंग।।

दुख आपद में नेह के, दृढ़ होते संबंध।
तेज हवा में फूल की, फैले अधिक सुगन्ध।।

अनजाने से हो गए, ये कैसे संबंध।
सूने घर में रम गई, मदिर-मदिर सी गंध।।

ऊपर-ऊपर सहज सब, भीतर-भीतर खार।
बाज़ारों में आ गए, नये-नये हथियार।।

होली में जल तो गई, मैं, हम, जन की पीर।
उजली चादर पर लिखे, आखर नेह कबीर।।

पंख दिए, मन हौसला, ऊँची भरो उड़ान।
संघर्षों का यह सफर, लिए खड़ा मुस्कान।।

प्रेम, प्यार, पनघट, मिलन, पींग सजी मनुहार।
चकित बटोही सोचता, अब सब हैं बाज़ार।।

सुधि से मैं करने लगा, मन-गुन की कुछ बात।
बूँद-बूँद दुख यूँ रिसा, ज्यों बेबस बरसात।।

दे न सका री जि़न्दगी, तुझे प्यार-सम्मान।
निपट कलेशों में कटे, अथ-इति के सोपान।।

नामुमकिन कुछ भी नही, बाँध चले जो काल।
 वामन ने नापे यहाँ, नभ, धरती, पाताल।।

-डॉ.देवेन्द्र आर्य

वाणी सदन, बी-98, सूर्या नगर, गाजि़याबाद
9810277622

छान रहीं फुटपाथ - डॉ अजय जनमेजय

रेखाएँ ये भाग्य की, लायीं कैसी साथ।
नन्हीं जान हथेलियाँ, छान रहीं फुटपाथ।।

बिना तुम्हारे नींद कब, बिना नींद कब चैन।
इक सपना भीगा किया, फँसकर गीले नैन।।

हमीं सुनाने लग गए, बदल-बदल कर तथ्य।
जुटा न पाए हौसला, कह सकते थे सत्य।।
 
तुम बिन जब तनहा रहा, तब-तब मेरे द्वार।
आँधी आयी पीर की, लेकर गर्द-गुबार।।

चुप्पी का पुल बीच में, हम दोनों दो छोर।
ऊपर से खामोश थे, अन्दर अन्दर शोर।।

तन देकर उसने हमें, देदी पूँजी साँस।
द्वेष, मोह की कील खुद, हमने रक्खी फाँस।।
 
ओरों को तकलीफ दे, रहा कौन आबाद।
पहले सूरज खुद तपा, तपी धरा फिर बाद।।

जब-जब देखूँ आइना, दिखे न अपना रूप।
ये मैं कैसी डाह में, जलकर हुआ कुरूप।।

आओगे तुम तय हुआ, कर के देर सबेर।
सौन चिरैया फिर दिखी, मन की आज मुंडेर।।

साँस-साँस सोचा यही, आओगे इस बार।
खामोशी बुनती रही, जाले मन के द्वार।।

-डॉ अजय जनमेजय 

417 रामबाग कालोनी,
सिविल लाइन्स, बिजनौर

पसर गया अंधेर - डॉ. तुकाराम वर्मा

लेन-देन के फेर में, पसर गया अंधेर।
न्याय लगे अन्याय-सा, जब होती है देर।।

नीर न जिनके नयन में, उनसे कैसी आस।
सूख गये जो भी कुए, उनसे बुझे न प्यास।। 

लाखों-लाख बटोर के, संचय कई करोड़। 
 वो कर सकता जो करे, सत्ता से गठजोड़।। 

देख रहा प्रत्येक दृग, उन सबका अभिषेक। 
 यूँ कितने वे नेक हैं, समझे काव्य विवेक।। 

जिन कर-कमलों ने दिया, जूतों का संसार। 
झेल रहे हैं आज भी, वे शोषण की मार।।

राजनीति की शक्ति का, शानदार सम्मान। 
आये तुरत बचाव में, बड़े- बड़े विद्वान।। 

यह जीवन का सूत्र है, नहीं मानिये गल्प। 
सच का होता है नहीं, कोई और विकल्प।। 

उर पीड़ा से भीगती, जहाँ दृगों की कोर। 
 कवि के अपने आप ही, पैर उठें उस ओर।।

धर्म दण्ड जिस हाथ में, सत्ता का अधिकार। 
उसके अत्याचार का, कौन करे प्रतिकार? 

जो सत्ता की शक्ति से, करते हैं व्यापार।
उन सबका आधार तो, होता भ्रष्टाचार।।

-डॉ. तुकाराम वर्मा

ई-1/2 अलीगंज सेक्टर-बी, लखनऊ

नहीं मिला ईमान - रमेश जोशी

नहीं नौकरी चाकरी, महँगाई की मार।
कुछ तो खुद का बोझ है, कुछ भारी सरकार।।

रेतीला है रास्ता, पैरों में जंजीर।
ऊपर से सिर पर तनी, सूरज की शमशीर।।

घर से निकले खोजने, सपनों की ताबीर।
हम तो पहुँचे बाद में, पर पहले त$कदीर।।

कमर झुक गई बोझ से, मान-मान आभार।
फिर भी आभारी करे, रोज-रोज सरकार।।

जनता औ' नेता करें, दोनों ही उपवास।
इसकी हैं मज़बूरियाँ, उसे ताज की आस।।

आग पेट में, भूमि पर, बिछे हुए अंगार।
बारादरियों में बजे, लेकिन राग मल्हार।।

गली-गली चर्चा हुई, बहुत हो गया नाम
अब सडक़ों पर आ गया, सत्ता का हम्माम।।

जीते वही चुनाव जो, खर्च कर सके दाम।
लोकतंत्र सारथि रहित, घोड़े बिना लगाम।।

दीपक लेकर ढूँढते, बड़े-बड़े इंसान।
पर राजा के महल में, नहीं मिला ईमान।।

कैसी-कैसी मिल रही, मौसम की सौगात।
आँखों से अम्बर झरे, अम्बर उल्का-पात।।

-रमेश जोशी

प्रधान सम्पादक, विश्वा,
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की पत्रिका, अमेरिका

फिर ले आई घास - हरेराम समीप

क्यों रे दुखिया, क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़।
मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज़।।

उस दुखिया माँ पर अरे, कुछ तो कर ले गौर।
तुझे खिलाती जो रही, फूँक-फूँककर कौर।।

पानी ही पानी रहा, जिनके चारों ओर।
प्यास-प्यास चिल्ला रहे, वही लोग पुरजोर।।

आओ हम उजियार दें, ये धरती ये व्योम।
तुम बन जाओ वर्तिका, मैं मन जाऊँ मोम।।

कोई तो सुन ले यहाँ, मेरे दिल का राज़।
सूख गया मेरा गला, दे-दे कर आवाज़।।

पुलिस पकडक़र ले गई, सिर्फ उसी को साथ।
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ।।

इतना ही मालूम है, इस जीवन का सार।
बंद कभी होते नहीं, उम्मीदों के द्वार।।

बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज।
बाद रफू के हो गई, वो दो रंगी चीज।।

फिर निराश मन में जगी, जवजीवन की आस।
चिडिय़ा रोशनदान पर, फिर ले आई घास।।

केवल दुख सहते रहो, यही नहीं है कार्य।
अपने सुख को शब्द भी, देना है अनिवार्य।।

-हरेराम समीप

395, सेक्टर-8, फरीदाबाद
9871691313

कविता हुई उदास - देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'

जुगनू कहता दीप से, बजा-बजाकर तूर्य।
अपने-अपने क्षेत्र के, हम दोनों हैं सूर्य।।

तुम आये थे स्वप्र में, कहने अपनी बात।
हमने खोले होंठ जब, तभी ढल गई रात।।

शब्दों की जादूगरी, श्लेष, यमक, अनुप्रास।
इतने भूषण लादकर, कविता हुई उदास।।
 
भाषा में जब से मिला, बिम्बों का नेपथ्य।
काव्यमंच पर नाचते, नंगे होकर तथ्य।।
 
खींच रहा क्यों रेत पर, तू पानी की रेख।
सच्चे दिल से भी कभी, हमें बुलाकर देख।।
 
क्या तूने भी था किया, सच्चे दिल से प्यार।
या हमदर्दी की रही, सिर्फ तुझे दरकार।।
 
हंस इन दिनों बन गए, बगुलों के उपमान।
पटबिजनों के संग हुआ, सूरज का गुणगान।।
 
कहाँ-कहाँ मन उम्रभर, भटका आठों याम।
कहाँ मालवी रात वो, कहाँ अवध की शाम।।
 
शहनाई बजती रही, कहीं रातभर दूर।
और हमें करती रही, रोने को मजबूर।।
 
झूठे रिश्तों को लिया, क्यों हमने सच मान?
कब हम सच्चे मित्र की, कर पाये पहचान।।

-देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'

10/61, राजेन्द्र नगर, साहिबाबाद
0120-4334873