विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Monday, September 9, 2019

आशा खत्री के दोहे

आशा खत्री के दोहे

तन के राज निवास में, मन का भोग विलास।
चलता रहता हर घड़ी, राजा हो या दास।।
2
जीवन भर भूले नहीं, हम उसका उपकार।
दुख की घडिय़ों में दिया, जिसने हमको प्यार।।
3
रहे बुद्धि विपरीत तो टलता नहीं विनाश।
गली-गली बिखरी मिले, संबंधों की लाश।।
4
बदल गयी गणराज में, निर्बल की तकदीर।
एक घाट पर पी रहे, शेर-मेमना नीर।।
5
जिसको धोखा दे गये, रिश्ते दवा वकील।
उसको किसी गरीब की, आह गयी है लील।।
6
पहले चुग्गा डालकर, परखे बेईमान।
सफल नहीं हो चाल तो, झट ले गलती मान।।
7
सीमित रहती अर्थ तक, अब ‘बाबू’ की सोच।
वेतन ले सरकार से, जनता से उत्कोच।।
8
औरों के अवगुण गिनूँ, करूँ समय बरबाद।
इससे अच्छा है करूँ, अच्छी बातें याद।।
9
मन्दिर, मस्जिद घूमकर, मिला न मन को चैन।
हरी दुखी की पीर तो, सुख से बीती रैन।।
10
सुनकर मन की बात जो, बन जाते अ$खबार।
कैसे उनको हम करें, दुख में साझीदार।।
11
वहाँ प्रेम की भावना, क्या चढ़ती परवान।
जाति-पाति का विष जहाँ, उगले रोज ज़ुबान।।
12
खून बहा  मासूम का, रोया था दालान।
मगर रही थी गाँव की, उस दिन बंद ज़ुबान।।
13
इस दुनिया की भीड़ में, जो भी सच के साथ।
नहीं थामता दूसरा, आकर उसका हाथ।।
14
आजीवन भरते नहीं, ऐसे गहरे घाव।
जब अपने ही चल दिए, छोड़ भँवर में नाव।।
15
कई मंच यों हो रहे, तमगे देखर ख्यात।
ज्यों लंगर में बाँटते, हों भूखों को भात।।
16
पगडण्डी पर प्रेम की, फूल मिलें या खार।
चलते रहने का कभी, टूटे नहीं करार।।
17
हमने जिनके प्यार में, तोड़ी जग से डोर।
अब तो उनके तीर हैं, सिर्फ हमारी ओर।।
18
गायब है दिल से खुशी, मुखड़ों से मुस्कान।
अब रिश्तों के बोझ से, लोग हुए हलकान।।
19
आजीवन भरते नहीं, ऐसे गहरे घाव।
जब अपने ही चल दिए, छोड़ भँवर में नाव।।
20
किया भरोसा आम ने, मिला नहीं कुछ खास।
सत्ता तेरे रास भी, आये किसको रास।।
21
निकले हैं बाज़ार से, बचकर भी कुछ लोग।
नहीं जरूरी हो सभी को बिकने का रोग।
22
थक जाती हूँ जब कभी, कर-कर के तकरार।
तब लेता है मौन रह, अंतस तुम्हें पुकार।।
23
दीवारों के कान ने, किया खटेबा आज।
गलियों तक पहुँचा दिये, घर के सारे राज।।
24
संघर्षों के बीच जो, नहीं मानते हार।
दस्तक देती है खुशी, आकर उनके द्वार।।
25
बच्चे बिलखें भूख से, बरसें माँ के नैन।
बाप बना है बेवड़ा, उसे इसी में चैन।।
26
चाँद उतारे आरती, सूरज करे सलाम।
करके अच्छे काम जो, काम रहे हैं नाम।।
27
उसे सीढ़ी की खोज में, भटक रहे सब लोग।
जो शिखरों की राह का, बन जाये संयोग।।
28
आधी खाकर सो गया, आधी करके दान।
इक रोटी का आदमी, पूरा मिला महान।।
29
सोच-सोच कर थक गई, समझ न आई बात।
अपनों ने कैसे किया, अपनों से ही घात।।
30
दौलत पद बल नाम का, करता नहीं गुमान।
सज्जन का व्यवहार ही, है उसकी पहचान।।
31
फूलों में विषधर पलें, दिल में पलते शूल।
आस्तीन में साँप भी, खूब रहे फल-फूल।।




डॉ. सत्यवीर 'मानव' के दोहे

डॉ. सत्यवीर 'मानव' के दोहे

तेरी क्या औकात है, तेरी कौन बिसात।
घुटनों के नीचे रहे, सदा भेड़ की लात।।
2
सत्य हमेशा ही लगे, कडुआ जैसे नीम।
उससे बढक़र है नहीं, लेकिन मीत हकीम।।
3
बड़े-बड़े ज्ञानी गए, कितने दास कबीर।
जन-मन की बाकी रही, कहनी अब तक पीर।।
4
सत्य यही है जि़ंदगी, बदले हर पल रूप।
हरदम छाया ही नहीं, छाँव कभी हो धूप।।
5
बाधाओं से जो कभी, होता नहीं निराश।
अपने हाथों से लिखा, उसने ही इतिहास।।
6
मार-मार कर ठोकरें, देता वक्त तराश।
बदला हरदम है यहाँ, उसने ही इतिहास।।
7
जीवन के संग्राम में, हुई उसी की जीत।
अपने कदमों से लिखी, जिसने नूतन रीत।।
8
कड़वे बोल कबीर के, चुभते जैसे तीर।
लेकिन चूका कब कहाँ, कहने से सतवीर।।
9
समझ सत्य को बावरे, दुनिया एक सराय।
खातिर फिर इसकी करे, हाय-हाय क्यों हाय।।
10
नीचे धरती एक है, ऊपर अम्बर एक।
फिर क्यों हैं इंसान के, मजहब-जाति अनेक।।
11
बदले लय, सुर-ताल भी, बदला छंद विधान।
रस अब रिश्तों में नहीं, घर सब हुए मकान।।
12
सत्ता तो आई यहाँ, बोती सदा बबूल।
उससे करना आम की, आशा मीत फिजूल।।
13
यही जीत का सूत्र है, मीत यही है सार।
रखना हरदम पास में, हिम्मत के हथियार।।
14
होती हरदम एक-सी, पीर प्रीत की रीत।
दोनों अधरों पर धरें, आँसू भीगे गीत।।
15
बेटी को बेटी नहीं, समझे जो शैतान।
फाँसी क्यों उसको नहीं, देता चढ़ा विधान।।
16
वक्त-वक्त की बात है, वक्त-वक्त का खेल।
एक वक्त तो घी घना, एक वक्त ना तेल।।
17
क्या था, अब क्या हो गया, मत कर मीत मलाल।
खुद से होता कौन है, करता वक्त हलाल।।
18
नेता भरें तिजोरियाँ, जनता माँगे भीख।
सीख यही जनतंत्र की, सीख सके तो सीख।।
19
खस्ता हालत देश की, नेता मालामाल।
सत्ता फिर भी कह रही, जनता है खुशहाल।।
20
जब भी जीवन ने लिखे, बुरे दिनों के छंद।
तभी बंध-अनुबंध से, टूट गए संबंध।।
21
घाटी रह-रह रो रही, खड़ा हिमालय मौन।
आग लगी है बर्फ में, उसे बुझाये कौन?
22
सत्ता हमने क्या दई, हुए नशे में चूर।
हम से ही अस्तित्व है, हमसे ही हैं दूर।।
23
वेद सुने, गीता सुनी, गुरुओं के उपदेश।
अब संसद की गालियाँ, सुने विवश यह देश।।
24
प्यासी धरती पूछती, पूछें बंजर खेत।
ऐसी क्यों करनी करी, मानव उड़ता रेत।।
25
जनता ने ही है धरा, उनके सिर पर ताज।
जनसेवक फिर क्यों डरें, जनता से ही आज।।
26
राजनीति के रास में, सिमट गया संसार।
भरी पड़ी हैं सुर्खियाँ, पढ़ देखो अ$खबार।।
27
सच्चे साधक शब्द के, बेचें नहीं ज़मीर।
रहें पुजारी सत्य के, बनकर दास कबीर।।
28
लिखना सुरभित पुष्प से, तुम जीवन के छंद।
मुरझाने के बाद भी, बाकी बचे सुगंध।।
29
खाली भूखे पेट-सा, ढोता हुआ अभाव।
जीवन हुआ गरीब का, बुझता हुआ अलाव।।
30
दर्द जहां भर का सहा, एक लिखा तबगीत।
दर्द, दर्द, बस दर्द दे, गर है सच्चा मीत।।


-डॉ सत्यवीर मानव
642 सेक्टर-1, नारनौल
















यादराम शर्मा के दोहे



यादराम शर्मा के दोहे

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जय चक्रवर्ती के समसामयिक दोहे

जय चक्रवर्ती के समसामयिक दोहे

वन वे ट्रैफिक जिंदगी, चलना ही संकल्प।
पीछे मुडऩे का यहाँ, कोई नहीं विकल्प।।
2
खंज़र उनके हाथ था, इनके हाथ त्रिशूल।
दोनों ही करते रहे, अपना क़र्ज़ वसूल।।
3
नुचे पंख लेकर कहाँ, चिडिया करे अपील।
साथ शिकारी के खड़े, सत्ता और वकील।।
4
चलने को हमने चुनी, खुद अपनी ही राह।
नहीं किसी की राह से, माँगी कभी पनाह।।
5
सदियों लम्बे दौर में, इतना हुआ विकास।
फुटपाथों पर दुधमुँहें, मुर्दों को आवास।।
6
लुटी भक्त की अस्मिता, मौन रहे भगवान।
जैसी थी वैसी रही, चेहरे की मुस्कान।।
7
रोटी का इस मुल्क ने, जब-जब किया सवाल।
राजनीति ने धर्म का, जुमला दिया उछाल।।
8
झूठ और पाखण्ड से, जूझूँगा दिन-रात।
मुझमें जि़न्दा है अभी, कहीं एक सुकरात।।
9
मैं हँसता हूँ ओढक़र, सिर पर दुख का ताप।
इनमें या उनमें कभी, मुझ न ढूँढ़ें आप।।
10
शब्द हमारे ले सकें, ताकि समय से होड़।
क़तरा-क़तरा जिस्म से, हमने दिया निचोड़।।
11
मिले लेखनी को प्रभो, बस इतनी सौगात।
मौन रहूँ मैं सर्वथा, बोले मेरी बात।।
12
सच बोलूँ तो हर कदम, दुश्मन यहाँ हज़ार।
झूठ कहूँ तो खुद मरूँ, रोज हज़ारों बार।।
13
राम हुए जिस रोज से, नारों में तबदील।
जानी-दुश्मन हो गए, जमुना और जमील।।
14
चमन भोगता रात-दिन, पतझड़ का अभिशाप।
सावन के अंधे करें, हरियाली का जाप।।
15
यही प्रेम का अर्थ है, यही प्रेम का राग।
इधर-उधर दोनों तरफ, आँसू, आहें आग।।
16
छौनों के सपने छिने, गोरैया के नीड़।
लालकिला बुनता रहा, वादे, भाषण, भीड़।।
17
जो कुछ कहना था कहा, मुँह पर सीना तान।
एक आइना उम्र भर, मुझमें रहा जवान।।
18
राजा नंगा है मगर, कौन करे ऐलान।
सबकी आँखें बंद हैं, सबकी सिली ज़बान।।
19
वसुंधरा पर छेड़ कर, सर्वनाश का राग।
खोज रहे हम चाँद पर, मिट्टी पानी आग।।
20
कविता भाषण लेख अब, सब हो गए अनाथ।
धर्म और मजहब खड़े, हत्यारों के साथ।।
21
दरिया था, तूफान था, थी कागज की नाव।
पार उतरने का मिला, यूँ हमको प्रस्ताव।।
22
दिया किसी को कुछ कभी, कभी लिया कुछ छीन।
कुदरत तेरे न्याय का, प्रति-पल अर्थ नवीन।।
23
चली जि़न्दगी मौत की, क़दम-क़दम तकरार।
और अंतत: जि़न्दगी, गई मौत से हार।।
24
मोमबत्तियाँ, क्षोभ, दुख, बातों की तलवार।
मासूमों से रेप पर, सिर्फ़ यही हर बार।।
25
जो भी आया दे गया, जलता एक अलाव।
मिले जि़न्दगी तू अगर, तो दिखलाएँ घाव।।
26
संविधान की देह पर, झपट रहे हैं चील।
मुर्दाघर में हो गया, लोकतंत्र तब्दील।।
27
महलों ने बुनियाद को, दिया क्रूस पर टाँग।
मिले हमें भी रोशनी, थी इत्ती-सी माँग।।
28
दुनियाभर के हल किये, यूँ तो कठिन सवाल।
काट नहीं पाये मगर, हम अपना ही जाल।।
29
समय लूटकर ले गया, सपनों की टकसाल।
जिये उम्र भर पेट के, हमने कठिन सवाल।।
30
कहाँ तलक चिडिय़ा जिये, ले साहस का नाम।
सैयादों के साथ है, सारा यहाँ निज़ाम।।
31
जब तक थे पूछा नहीं, कभी किसी ने हाल।
रुखसत होते ही जुटे, अजब गजब घडिय़ाल।।
32
दरबारों की गोद में, आप मनाएं जश्न।
हम तो पूछेंगे सदा, भूख-प्यास के प्रश्न।।

-जय चक्रवर्ती
एम.1/149, जवाहर विहार


Sunday, October 28, 2018

जय चक्रवर्ती की गज़लें

जय चक्रवर्ती की गज़लें

लिखना मेरा शौक नहीं है ये मेरी मजबूरी है
अपनी आग बचाए रखने को ये बहुत ज़रूरी है

खामोशी जिनके होठों पर उनका स्वर बनकर उन तक
खुद को यदि पहुँचा पाऊँ तो समझो यात्रा पूरी है

सोचो, बीस दिनों तक उसके बच्चे क्या खाते होंगे
एक महीने में दस दिन मिलती जिसको मजदूरी है 

संसद-वंसद आज़ादी-वाजादी तब तक बेमानी
कायम जब तक लोकतन्त्र की लोकतन्त्र से दूरी है

दिल का दर्द बताए कोई किसको ऐसे में कैसे
सूरज नादिरशाह हुआ है और हवा तैमूरी है

                             2

चोट कर अन्याय पर हरदम हथौड़ों की तरह
या कि नंगी पीठ पर दस-बीस कोड़ों की तरह

रुक भी जा दो-चार पल कुछ सोच भी कुछ देख भी
ज़िंदगी - भर दौड़ता ही रह न घोड़ों की तरह

मुश्किलों की ही तरह कर मुश्किलों का सामना
मुश्किलों से भाग मत हरगिज़ भगोड़ों की तरह

तय करो, लाखों-करोड़ों मे बनोगे एक, या –
एक दिन मर जाओगे लाखों-करोड़ों की तरह 

रख न पाये साथ यदि प्रतिरोध की चिनगारियाँ
रोज कुचले जाओगे कीड़ों –मकोड़ों की तरह 

जो प्रथाएँ – मान्यताएं रोज डसतीं हों तुम्हें
काटकर फेंको उन्हें अब ज़र्द फोड़ों की तरह

                       3

ये जो झुक कर कमान हैं साहब
देश के ही किसान हैं साहब 

एक मुँह, सौ बयान हैं साहब
आप कितने महान हैं साहब !

छिन गए घर हैं आजकल हमसे
आजकल तो मकान हैं साहब

हाथ खाली हैं पेट भी खाली
मुल्क के नौजवान हैं साहब

हुक्मराँ संविधान क्यों मानें
ये तो खुद संविधान हैं साहब

                    4

न डरता था न डरता हूँ किसी से
लड़ूँगा वक़्त की हर ज़्यादती से 

मिला है दर्द इतना रोशनी से
मुहब्बत हो गई है तीरगी से 

दिखाऊँगा उसे मैं ज़ख्म सारे
मिलूँ तो ज़िंदगी में ज़िंदगी से ?

हमारे पात बिछड़े फूल बिछड़े
हुए जब दूर हम अपनी ज़मी से .

 दिये हैं घाव यूँ तो पत्थरों ने
सफर का सुख मगर पूछो नदी से .

किलक कर हँस रहा है एक बच्चा
खुशी कोई बड़ी है इस खुशी से ?

-एम.1/149, जवाहर विहार , रायबरेली -229010
मोब. 9839665691
e-mail: jai.chakrawarti@gmail.com

Friday, March 2, 2018

रमेश शर्मा के फाल्गुनी दोहे

दिखे नहीं वो चाव अब, रहा नहीं उत्साह !
तकते थे मिलकर सभी, जब फागुन की राह !!

सच्चाई के सामने, गई बुराई हार !
यही सिखाता है हमें, होली का त्यौहार !!
होली है नजदीक ही, बीत रहा है फाग !
आया नहीं विदेश से, मेरा मगर सुहाग !!

पिया मिलन की आस में, रात बीतती जाग !
बैठ रहा मुंडेर पर, ले संदेशा  काग !!

छूटे ना अब रंग यह, छिले समूचे गाल !
महबूबा के हाथ का,ऐसा लगा गुलाल !!

सूखी होली खेलिए, मलिए सिर्फ गुलाल !
आगे वाला सामने, कर देगा खुद गाल !!

पिचकारी करने लगी, सतरंगी बौछार !
मीत मुबारक हो तुम्हें, होली का त्यौहार !!

देता है सन्देश यह, होली का त्यौहार !
रंजिश मन से दूर कर, करें सभी से प्यार !!

करें प्रतिज्ञा एक हम, होली पर इस बार !
बूँद नीर की एक भी, करें नहीं बेकार !!

छोड पुरानी रंजिशें, काहे करे मलाल !
इक दूजे के गाल पर, आओ मलें गुलाल !!

सूना-सूना है बडा, होली का त्योहार !
होंठों पे मुस्कान ले, आ भी जाओ यार !!

दिखी नहीं त्यौहार में, शक्लें कुछ इस बार !
थी जिनकी मुस्कान ही, पिचकारी की धार !!
-रमेश शर्मा  
मुंबई   
९८२०५२५९४०

Thursday, August 11, 2016

मास्टर रामअवतार शर्मा के दोहे

नाहर हिंसक है बड़ा, सबका करे शिकार|
पर नर को मत आँकिए, उससे कम खूंखार||

करते नहीं हैं पंच भी, आज न्याय की बात|
सजा मिले निर्दोष को, हो चौतरफा घात||

बहुत सुना संसार से, है उसके घर न्याय|
वापस आ इस तथ्य को, देगा कौन बताय||

जगे रात भर प्यार में, तके  चाँद की ओर|
मगर चाँद को क्या पता, सहता विरह चकोर||

एक तरफ के प्यार में, होता है यह हाल|
मरे पतंगा प्यार में, खुद को लौ में डाल||

बने बहाना मौत का, नहीं किसी का जोर|
आता काल सियार का, चले गाँव की ओर||

दोहे में गंगा बहे, बहती यमुना धार|
ज्यों-ज्यों यह आगे बढे, त्यों-त्यों हो विस्तार||

-मास्टर रामअवतार शर्मा
गुढ़ा (महेंद्रगढ़)


 

Thursday, August 4, 2016

राजपाल सिंह गुलिया के दोहे

पढ़कर पुस्तक कौन सी, हुए लोग शैतान |
जारी करते खौफ़ के, नित्य नए फरमान||

पल-पल बदलें बात जो, खो देते विश्वास|
लोग मिटे हैं बात पर, साक्षी है इतिहास||

उस जन की जननी भला, कब तक मांगे खैर|
रहकर जो नदराज में, करे मगर से बैर||

जाने दिल में कब उगे, ये जुल्मी अरमान|
जिनको पूरा कर रहा, बेच-बेच मुस्कान||

कल तक तूती बोलती, घर हो चाहे राज|
देख आज वो खुद हुए, तूती की आवाज||

दोनों हाथों वे सभी, दौलत रहे बटोर|
राजमहल में आ जमे, कल के सारे चोर||

खरी बात कह जब किया, उसने सौ का तोड़|
भीड़ फटी तब दूध-सी, गई अकेला छोड़||

जब-जब रिश्वत को मिला, अपना सही मुकाम|
खारिज़ झटपट हो गए, जितने थे इल्जाम||

मिटा सभी कुछ खेत में, खाली है खलिहान|
बता गरीबी से यहाँ, कैसे लड़े किसान||

घटाटोप को देखकर, सोचे खड़ा किसान|
देखूं सूखा खेत या, दरका हुआ मकान||

जोड़ तोड़ के जो रचे, रोज नए ही छंद|
कौन करे उसका यहाँ, हुक्का पानी बंद||

पूछ रहा था दीन वह, जोड़े दोनों हाथ|
यहाँ पिसेगा कब तलक, घुन गेंहूँ के साथ||

बता विधायक हो गया, कैसे मालामाल|
मुझसे मेरा वोट यह, अक्सर करे सवाल||

बेचा कभी जमीर को, ले मुँह माँगा मोल|
आज वही चौपाल में, बोलें ऊँचे बोल||

अपनी गलती पर रहा, मन में यूं संताप|
जैसे जननी चोर की, छुप कर करे विलाप||

अब की बार चुनाव में, देखा खेल अजीब|
बापू जिससे दूर था, बेटा मिला करीब||

पोरस की बातें सुनी, गया सिकंदर जान|
शक्ति से नहीं टूटता, जन का स्वाभिमान||

सबसे सिर पर आ चढ़ा, आज नशे का भूत|
बाप अहाते में पड़ा, पब में थिरके पूत||

कन्या करती कोख में, आज यही फ़रियाद|
माँ तू भी तो थी सुता, इतना करले याद||

राज गली में जो चला, करके ऊँचा भाल|
उसकी निष्ठां पर किये, सबने खड़े सवाल||

आयत पढ़े कुरान की, रटता वैदिक मंत्र|
फिर भी रचता आदमी, कपट भरे षड्यंत्र||

रामू रहमत में हुआ, जब भी वाद-विवाद|
मंदिर मस्जिद ने रचे, दंगे और फसाद||

हुई धर्म की आड़ में, जहाँ सियासत तेज|
उस बस्ती से ही मिली, खबर सनसनीखेज||

मानवता का कब तलक, कायम रहे वजूद|
फिरे धरम जब भीड़में, तन पर मल बारूद||

मांगें सबकी खैर जो, उन पर गिरती गाज|
रहा धनी जो बात का, वो ही निर्धन आज||

हिम्मत जुटा वजीर ने, खरी कही जब बात|
राजा की शमशीर ने, बतला दी औकात||

झूठ सदा किसका चला, बता मुझे सरकार|
हांडी चढ़ती काठ की, कहाँ दूसरी बार||

खरी-खरी सुत ने कही, बाप गया ये ताड़|
नीचे कदली पेड़ के, उग आया है झाड़||

जिनके पुरखे राज के, थे हुक्काबरदार|
आज वही चौपाल पर, कर बैठे अधिकार||

अखर गया कुतवाल को, उसका एक सवाल|
केस बनाकर लूट का, किया बरामद माल||

बोला खेत किसान से, कहते आवे लाज|
गाड़ी उस सरकार की, फिर आई थी आज||

इस बंगले को देखकर, मत हो तू हैरान|
इसकी खातिर खेत ने, खो दी है पहचान||

दर्शक बन करता रहा, बड़ी-बड़ी वो बात|
उतरा जब मैदानमें, पता चली औकात||

नाविक ने ही राज ये, खोल दिया खा ताव|
पहले डूबा हौसला, फिर डूबी थी नाव||

जब-जब लोगो ने किया, मदिरा पी मतदान|
तब-तब साहूकार के, आई हाथ कमान||

भरे पेट को रोज ही, लगते छप्पन भोग|
लड़कर कितने भूख से, सौ जाते हैं लोग||

सुबह गए वो जेल में, मिली शाम को बेल|
आँख ढाँप क़ानून भी, करे निराला खेल||

मूरख का संसार में, कुछ ऐसा है हाल|
जले बाग़ में राख का, लगता उसे अकाल||

लोकलाज ने खा लिए, जननी के जज्बात|
कचरे के डिब्बे पड़ा, सोचे इक नवजात||

ऋण ले घी पीने लगे , जब से जग में लोग|
लगा तभी अतिसार का, महाजनी को रोग||

सदा जीतते वीर वो, करते पहले वार|
कायरता की कोख से, पैदा होती हार||

जिस दिल में रहता सदा, प्रतिशोध का भाव|
रह्दम रखता वो हरा, बस अपना ही घाव||

सुबह-सुबह अखबार भी, मिलता लहूलुहान|
खुलकर जन के पाप का, करता रोज बखान||

महामहिम के सामने, कब चलता है जोर|
घुटना भी मुड़ता यहाँ, सदा पेट की ओर||

कहीं चढ़ी है बाढ़ तो, कहीं रिक्त सब ताल|
कुदरत का ये रूप भी, है कितना विकराल||

हम तो उनकी चाह में, बनकर रहे चकोर|
आशिक अब तेज़ाब ले, फिरें मचाते शोर||

चलती टी.वी. पर बहस, होता वाद-विवाद|
अनजाने ही खौफ़ को, लोग दे रहे खाद||

सागर से मिलकर नदी, खो बैठी पहचान|
मीठा जल अब खार का, करे रोज गुणगान||

धन-माया को मानते, जो खुशियों का बीज|
उनकी नज़रों मान है, आनी-जानी चीज||

उनके दिल की पीर का, लगे नहीं अनुमान|
जिनके मुख पर हर घडी, रहती है मुस्कान||

पकी फसल को तक रहा, मौसम बेईमान|
लगी चमकने दामिनी, गुमसुम हुआ किसान||

जब से झूठ फरेब पर, लगे बरसने फूल|
तब से सच चौपाल का, गया रास्ता भूल||

एक तरफ क़ानून है, एक तरफ है खाप|
प्रेम जताना हो गया, अब जैसे अभिशाप||


दौलत के बदले लगा, बिकने जब इंसाफ|
सच्चाई का हो गया, तभी सूपड़ा साफ||

चोर गया परदेस में, लूट वतन का माल|
टीवी पर विद्वान अब, बजा रहे हैं गाल||

कह दे मन की बात को, जिसे रहा है सोच|
थोड़े ही लगते भले, नमक और संकोच||

जिस दिन ख़ुलकर धर्म पर, उसने दी तक़रीर|
उस दिन से अखबार में, झलक रही तस्वीर||

कोष लूटकर देश का, रख आए परदेस|
धनकुबेर अब देखिए, कितने हुए भदेस||

प्रेमभाव पर फैलती, आज मतलबी सोच|
लोग गोद में बैठ कर, लेते दाढ़ी नोच||

बिन पैसे संसार में, हुआ कहाँ कुछ काम|
मोल लिया है बैर भी, देकर उनको दाम||

खरी खरी बातें कहें, जो बिन लाग लपेट|
उनके ही घर में मिले, सारे खाली पेट||

-राजपाल सिंह गुलिया
राजकीय प्राथमिक पाठशाला, भटेड़ा
जिला- झज्जर (हरियाणा)- 124108


Wednesday, August 3, 2016

आशा खत्री 'लता' के दोहे


जल-जल कर जल उड़ गया, जितना था निर्दोष।
बिना तपन होता नहीं, कभी निवारण दोष।।

ख़ामोशी से कर लिया, सच ने झूठ कबूल।
पहले से ही थे खड़े, पथ में बहुत बबूल।।

घर का झगड़ा आ गया, जब गलियों के बीच।
इधर-उधर बिखरा मिला, अपशब्दों का कीच।।

समय बड़ा बलवान है, हम ठहरे कमजोर।
साथ दौड़ने के लिए, लगा रहे हैं जोर।।

चल धरती के हाल पर, लिक्खें एक किताब।
कुदरत क्या-क्या झेलती, इसका करें हिसाब।।

साजन तो प्यारा लगे, नहीं सुहाती सास।
और वृद्धजन झेलते, अपने घर बनवास।।

झूठी जिनकी हेकड़ी, नकली जिनकी शान।
इस कलयुग में चल रही, उनकी खूब दुकान।।

सब कुछ जिनके पास है, रुतबा भी है खास।
फिर भी क्यों बुझती नहीं, उनके मन की प्यास।।

हमने तो अपना कहा, उसने समझा गैर।
फिर कैसे बढ़ते भला, उसके घर को पैर।।

रखता खबरें गैर की, अपना नहीं सुराग।
रूप सँवारा खूब पर, धुला न मन का दाग।।

लूटें हैं जिसने सदा, डौली और कहार।
सबसे आगे वो खड़ा, ले फूलों का हार।।


अबकी बार चुनाव में, खड़े लटूरी लाल।
वादे करते थोक में, बाँटे खुलकर माल।।

वही समझता पीर को, जो दुख से दो चार।
बाकी तो चलता रहे, यूँ ही ये संसार।।

भौतिकता की आँधियाँ, पाप रहा फल-फूल।
धर्म तिरोहित हो रहा, टूटे सभी उसूल।।

टूट गए जब हौसले, पंख हो गए दीन।
मिल जाये जब हौसला, उड़ जाते पर-हीन।।

ले मोबाइल हाथ में, करें निरर्थक बात।
सपने धन्ना सेठ से, कौड़ी की औकात।।

धनवानों के पाप भी, निर्धन करे क़ुबूल।
बिना अर्थ इस देश में, जीना हुआ फिजूल।।

ताने और उलाहने, यही शेष है प्यार।
खटे बुढ़ापा रात दिन, कहलाता बेकार।।

जिस आँचल की छाँव में, बैठे उम्र तमाम।
समय पड़ा तो दे दिया, उसको तपता घाम।।

दुख भी आ ठहरे नहीं, ख़ुशी न पहुँची पार।
जैसा था वैसा जिया, हमने ये संसार।।

हरो परायी पीर तो, मिलती सबकी प्रीत।
बहुत गा लिए प्रणय के, छेड़ो करुणा गीत।।

तुमसे मिलकर यूँ लगा, जैसे गाया गीत।
भावों की लय मिल गयी, प्राणों को संगीत।।

तपती लू में ले रहे, ककड़ी, खीरा मौज।
घूम रही फुटपाथ पर, तरबूजों की फ़ौज।।

बिना वात के मौन हैं, साधक जैसे पेड़।
विहगों का कलरव करे, नीरवता से छेड़।।

बातें सच्ची थी मगर, कहता सुनता कौन।
कान बधिर से हो गए, अधर रह गये मौन।।

हुई नहीं ये जिंदगी, इतनी भी आसान।
पलक झपकते कर सके, भले बुरे का ज्ञान।।

कुछ तो आँखें देखती, कुछ है मन की सूझ।
चलती मेरी लेखनी, लेकर प्यास अबूझ।।

दो दिन यौवन चाँदनी, सबको मिली हुजूर।
कदम बहकते आपके, इसका कहाँ कसूर।।

आभासी इस लोक के, अदभुत हैं दस्तूर।
उनसे रिश्ते बन गये, जो हैं कोसों दूर।।

नदी ताल दूषित हुए, बिके हाट में नीर।
मैला-मैला मन लिए, उजले पहने चीर।।

जो सच से डरता नहीं, उसकी कठिन तलाश।
गिरी पड़ी हर मोड़ पर, सम्बंधों की लाश।।
 
कौन करेगा आप सी, माता हम पर छाँव।बिना तुम्हारे भाग में, सिर्फ धूप के गाँव।।

उर गाढ़ा होता गया, तरल हो गए नैन।
पीड़ा विष देता रहा, आहत मन को चैन।।

चलते फिरते ले चला, राह तकें बीमार।
समझ न आया काल का, हमको तो व्यवहार।।

ताकत यहाँ विचार की, कर दे मालामाल।
बिना सोच का आदमी, कुदरत से कंगाल।।

इक दिन हम भी चल दिये, इस दुनिया को छोड़।
अपनों ने भी झट लिया, माटी से मुँह मोड़।।

कल तक जो तन कर खड़े, आज हो गए ढेर।
इस दुनिया में कब लगे, समय बदलते देर।।

हम तो सीधे थे बहुत, वे थे घुण्डी मार।
ऐसे में चलती कहाँ, साझे की सरकार।।

उलझे-उलझे बाल हैं, टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
दीवानों का देश में, कौन पूछता हाल।।

बात पते की वो कहें, जिसका गाढ़ा ज्ञान।
उसके शब्दों पे रहे, समझदार के कान।।

दूर-दूर तक ख्याति है, चारों ओर प्रताप।
पर दो मीठे बोल को, तरस रहे माँ बाप।।

ऊँची भरी उड़ान तो, गगन हो गया मीत।
पर नभचर कब भूलता, धरती माँ की प्रीत।।

नये पुराने में लगी, उत्तमता की होड़।
एक दूसरे का यहाँ, खोजें दोनों तोड़।।

जिनके चाबुक से चले, राजा और वजीर।
अब उन पर ही सध रहे, लोक तन्त्र के तीर।।

क्यों अपनों के नेह को, मन कहता है पाश।जो सुख घर के आँगना, वो न खुले आकाश।।

नेता जी की सोच में, पलता हर पल खोट।
जनता सुख दुख की कहे, उसे चाहिए वोट।।

हावी झूठ फरेब हैं, सच्चाई गुमनाम।
राजनीति में हो गया, अच्छा भी बदनाम।

नहीं पहुँचते सत्य तक, बहें हवा के संग।
मन दूषित मति मूढ़ सी, नजर हो गयी तंग।।

पाँवों की शक्ति गयी, गया नजर का नूर।
जीने की इच्छा गयी, होकर तुमसे दूर।।

मौत इशारा कर गयी, हुई जिंदगी दूर।
खड़े काल के सामने, हम बेबस मजबूर।।

छलके आँसू आँख से, उठती दर्द हिलोर।
गम की रैना है बड़ी, बहुत दूर है भोर।।

अपना काम निकाल कर, हो जाते काफूर।
फिर भी क्यों होता नहीं, मन ये उनसे दूर।।

आकर तेरी छाँव में, भूल गए हम धूप।
लेकिन नहीं क़ुबूल था, हमे कभी ये रूप।।

देखा किसी किताब में, सूखा हुआ गुलाब।
आँसू बनकर बह चली, झट से तेरी याद।।

जिस थाली में खा रहे, करें उसी में छेद।
मुश्किल है मिलना यहाँ, पापी मन का भेद।।

ताकत जिसमें न्याय की, अब वो ले अवतार।
लोकतन्त्र में आ रहे, निशि दिन नये विकार।।

मीठी वाणी बोलकर, धूर्त जमाये धाक।
सच जब उदघाटित हुआ, हुआ कलेजा चाक।।

जिसकी हो तादाद अब, मचे उसी का शोर।
कव्वों की बारात में, खुलकर नाचा मोर।।

टूटी सी संदूक में, माँ रखती संभाल।
उन बेटों की याद जो, नहीं पूछते हाल।।

सर नीचा करके खड़ा, कब से बूढा बाप।
कितने दिन किसके रहूँ, निर्णय कर लो आप।।

बूढी आँखे मिच गयी, तकते-तकते द्वार।
मरते ही बेटे घुसे, ले फूलों के हार।।

जिनके बिन घर में रहा, पर्वों पर अन्धकार।
उन बेटों ने कर दिया, मरगत को त्यौहार।।

हम थे भूखे नेह के, करते क्या तकरार।
बूढ़े बरगद सा किया, हमने सबसे प्यार।।

बित्ते भर का आदमी, करता ऊँची बात।
लम्बी चौड़ी फैंकता, बिन देखे औकात।।


चला रही अब सास सा, बहुएं हुक्म हुजूर।
बात-बात पर धमकियां, देती हैं मगरूर।।

मिटी किसी की आरजू, धुले किसी के पाप।
सच्चे मन से जब हुआ, जग में पश्चाताप।।

रंगों के मतलब कई, समझें सिर्फ सुजान।
मूरख को हुड़दंग ही, लगता है पहचान।।

बैठा रहता नाक पर, फड़का देता अंग।
सुजन कभी रखते नहीं, नीच क्रोध को संग।।

नेता अपने ब्यान की, कीमत करे वसूल।
देख नफे नुकसान को, दे बातों को तूल।।

लोकतन्त्र के नाम पर, हावी होती भीड़।
चाहे जिसका नाम ले, चाहे फूंके नीड़।।

वोटों के आगे हुई, सब सरकारें ढेर।
कुत्ते मिलकर मारते, अब भारत में शेर।।

लोमड़ हुए लठैत अब, करते राज कपीश।
घाघ लोमड़ी बाँटती, शेरों को बख्शीश।।

गौरैया आती नहीं, सच मानों इस देश।
आहत मन ये पूछता, ये कैसा सन्देश।।

बात भाव की वो करें, मैं समझूँ ना भाव।
जब मन जुड़ता भाव से, बढ़ता उनका भाव।।

जब भी माँगा मिल गया, मुझे तुम्हारा साथ।
और भला क्या मांगते, रब से मेरे हाथ।।

नफरत अपने मन लिए, फिरते बने पिशाच।
ऐसे नर हर दौर में, करते नंगा नाच।।

खड़े तुम्हारी बाट में, हम भी बने चकोर।
दिल की ऐसी प्यास पर, चलता किसका जोर।।

सत्य कहूँ जग रूठता, झूठ कहूँ भगवान।
दोनों जिसमें खुश रहें, नहीं मिला वो ज्ञान।।

किस्मत नित लिखती रही, दुःखों की तहरीर।
हम विवश पढ़ते रहे, भर आँखों में नीर।।

झूठ बोल चाहूँ नहीं, जग में ऊँचा मान।
बनूँ चितेरी सत्य की, यही कलम की आन।।

न्याय विवश रोता रहा, अपनी बाँह उलीच।
माप तोल होता रहा, दो पलड़ों के बीच।।

चिड़ी चोंच में ले गया, देखो शातिर बाज।
लेकिन कहीं विरोध की, उठी नहीं आवाज।।

उतरी भैंस चुनाव में, बजा रही है बीन।
साँप, नेवले, लोमड़ी, रात करें रंगीन।।

घास फूँस की झोपडी, से वादा हर बार।
महल सरीखा आपका, करना है उद्धार।।

दीन-दुखी की वेदना, जिनका हो श्रृंगार।
कैसा हो परिधान ये, उनको कहाँ विचार।।

मन्दिर बना करोड़ का, लाखों के भगवान।
भक्तों में सिरमौर वो, जिनका भारी दान।।

किसे विलक्षण हम कहें, यश के सभी गुलाम।
सबके मन को खींचते, चमड़ी, दमड़ी, नाम।।

खरा आम की आस पर, कब उतरा है खास।
कोठी के बाहर खड़ा, दीन हीन विश्वास।।

हम थे पागल प्यार में, उनको चढ़ा जुनून।
खून उन्होंने ही किया, हम थे जिनका खून।।

अपने पैरों जो चले, उनके मिले निशान।
जो कन्धों पर गैर के, वो पहुँचे शमशान।।

आशा खत्री 'लता'
2527, सेक्टर -1, रोहतक