विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Friday, August 21, 2015

सुनो मेरी कहानी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

मैंने कुछ भी नहीं जोड़ा न ही कुछ कम किया , उस बेचारी डेमोक्रेसी नाम की महिला की बात सच सच लिख दी। क्या लिखता कौन दोषी है कौन निर्दोष , ये पढ़ने वालों पर छोड़ दिया , मुझे समझ नहीं आया इसको क्या शीर्षक दूं , इसलिये बिना किसी शीर्षक ही कहानी लिख दी। पढ़ते ही वो गंभीर हो गये , कहने लगे समस्या बहुत विकट है , तुम नहीं जानते बिना शीर्षक की कहानी का क्या हाल होता है। शीर्षक ही तो पढ़ने को मज़बूर करता है। बिना शीर्षक की कहानी तो कटी हुई पतंग की तरह है , छीना झपटी में ही फट जाती है , किसी के भी हाथ नहीं लगती। या जिसके हाथ लगे वही मनमानी कर लेता है उसके साथ। ऐसी पतंग से कोई सहानुभूति नहीं जताता , क्या तुम चाहते हो तुम्हारी कहानी की ऐसी दशा हो देश की जनता जैसी। नहीं चाहते तो जाओ कहीं से कोई लुभावना सा शीर्षक तलाश करो जो बाज़ार में बिक सकता हो , फिर उसको कई गुणा दाम पर बेचो। ठीक वैसे जैसे मोदी जी का स्लोगन , अच्छे दिन आने वाले हैं , ऐसा भाया जनता को कि उनको जितना मांगते थे उससे भी बढ़कर बहुमत मिल गया। ये सबक अरविन्द केजरीवाल को भी समझ आया और नतीजा देख लो , कहां उनको उम्मीद थी इतनी सफलता की। जब तक खुद अपनी कीमत बड़ा चढ़ा कर नहीं बताओगे , कोई इक धेला भी नहीं देगा। तुम जानते हो लोग अपनी आत्मकथा औरों से लिखवाते हैं , सभी को कहां लिखना आता है , ऐसे लेखक अपनी कीमत पहले वसूल लेते हैं दोगुनी , क्योंकि उनका नाम तो होता नहीं लिखने वाले के रूप में। अपने दुखों को बेचना तो बड़े बड़े लेखकों का काम रहा है , ऐसी मनघड़ंत कहानियां पुरुस्कार अर्जित किया करती हैं। इस तुम्हारी कहानी में न कहीं कोई नायक है न ही कोई खलनायक ही , कोई नाटकीयता भी नहीं , कोई सस्पेंस भी नहीं। कोई प्रेम प्रसंग नहीं , न ही अवैध संबंध की ही बात। सब किरदार जैसे आस पास देखे हुए से लगते हैं , लोग , पाठक-दर्शक तो जो नहीं होता वही तलाश करते हैं। देख लो इन दिनों फिल्मों में नायक वो वो करते हैं जो नहीं किया जाना चाहिए , फिर भी लोग वाह-वाह करते हैं। अब तो खलनायक ही लोगों को अधिक भाते हैं। हर कहानी में ये सभी मसाले होने ज़रूरी हैं , वरना कहानी नीरस हो जाती है। लोग फिल्म देखते हैं या कहानी पढ़ते हैं तो रोमांच के लिए , न कि किसी विषय पर चिंतन करने को। ये काम सभी औरों के लिए छोड़ चुके हैं , यार छोड़ , मस्त रह , मौज मना , ये सोच बना ली गई है।
बिना मिर्च मसाले का फीका खाना तो लोग मज़बूरी में डॉक्टर के कहने पर भी नहीं खाते आजकल , तुमने कभी होटल रेस्टोरेंट का खाना खाया है , बड़े बड़े पांचतारा होटल का खाना न भी खाया हो , फिल्मों में , टीवी सीरियल में तो देखा होगा। कितना सुंदर लगता है , सजा कर परोसा जाता है , किसकी मज़ाल है जो उसको अस्वादिष्ट बता दे। कोई बताये तो लोग कहते उसको मालूम ही नहीं कांटिनेंटल खाना किसे कहते हैं। तुम्हारी कहानी कोई स्कूल की किताब में शामिल थोड़ा है जो पढ़नी ही होगी , कोई मुख्यमंत्री भी नहीं रिश्तेदार कि उसके प्रभाव से प्रकाशक तगड़ी रॉयल्टी देकर भी छापना चाहे। कहानी का नाम ही ऐसा रखो कि लगे कि ऊंचे दर्जे की कहानी है , अक्सर लोग जो कहानी समझ नहीं पाते उसको ऐसी समझते हैं। इक और बात जान लो , जिन कहानियों का प्रचार किया जाता है सच्ची घटना या किसी के जीवन पर है , उनमें सबसे ज़्यादा झूठ होता है। झूठ को कल्पना से मिला कर उसको बेचने के काबिल बनाया जाता है , कहानी का स्वरूप समय के साथ बदलता रहता है , अपनी इस कहानी को आधुनिक रूप दे दो , अच्छे अच्छे डॉयलॉग शामिल करो , खुद न लिख सको तो डॉयलॉग राइटर से लिखवा लो , या चाहो तो फिल्मों से टीवी सीरियल से अथवा पुरानी किताबों से चोरी कर लो , कोई नहीं रोकने वाला। जहां कहानी दुःख दर्द से बोझिल होती लगती है , वहां साथ में थोड़ा हास्य रस का समावेश कर दो , जैसे अभिनेता चुटकुले सुना देते हैं हंसाने को। शृंगार रस की कोई बात ही नहीं कहानी में , जैसे भी हो कोई दृश्य ऐसा हो कि पाठक - दर्शक फ़ड़फ़ड़ा उठें। कहानी में सभी की रूचि का ध्यान रखना है , आगे क्या होगा ये प्रश्न मत छोड़ो , अंत ऐसा हो कि लोग वाह वाह कह उठें। ऐसा अंत सभी गलतियों को छुपा लेता है। अब बाकी रह जाता है किताब को या कहानी को आकर्षक ढंग से पेश करना , तो ये काम तुम संपादकों पर छोड़ दो , वे कहानी में से निकाल कर कुछ खूबसूरत शब्द ऐसे मोटे मोटे अक्षरों में छापेंगे कि देखने वाला पढ़ने को उत्सुक हो जाये। जैसी मैंने समझाया वैसी कहानी लिखो तभी उसको अख़बार , पत्रिका , प्रकाशक छापेंगे। लगता है मेरी कहानी अनकही अनसुनी ही रहेगी।

-डॉ.लोक सेतिया

Thursday, April 2, 2015

बाबूजी का भारतमित्र पत्रिका का दोहा विशेषांक


पत्रिका "बाबूजी का भारतमित्र" का सितंबर 2012 अंक (दोहा विशेषांक) के रूप में प्रकाशित हुआ है| इसमें सौ से भी अधिक दोहकारों के दोहों के अलावा दोहे पर बहुत ही स्तरीय आलेख प्रकशित हुए हैं| डॉ. अनंतराम मिश्र का आलेख "दोहे की आत्मकथा" एक बेहतरीन आलेख है| वहीँ देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, निदा फ़ाज़ली, पदम्भूषण नीरज, चन्द्रसेन विराट, दिनेश शुक्ल, राधेश्याम शुक्ल, कुंदन सिंह सजल, हस्तीमल हस्ती जैसे वरिष्ठ दोहकारों के साथ-साथ नयी पीढ़ी के भी दर्जनों दोहकारों को इसमें स्थान मिला है|
कुल 128 पृष्ठ वाले इस विशेषांक की कीमत भी नाममात्र ही है और इसे ऑनलाइन भी पढ़ा जा सकता है| पत्रिका का आजीवन शुल्क मात्र 1100 रूपये है| 

पत्रिका नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके ऑनलाइन भी पढ़ी जा सकती है-http://www.scribd.com/doc/105926320/Babu-Ji-Ka-Bharatmitra-Doha-Viseshank

Tuesday, June 5, 2012

नागफनी के फूल की समीक्षा

रघुविन्द्र यादव के दोहा संग्रह नागफनी के फूल की श्रीमती देवी नागरानी द्वारा की गई समीक्षा वेब पत्रिका साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित हुई है|
श्री यादव की दोहा कृति की इससे पहले भी अनेक विद्वानों द्वारा समीक्षा की जा चुकी है, जो विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकशित हुई हैं| इस कृति में 424 धारदार दोहे शामिल किये गए हैं| पुस्तक का प्रकाशन आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल द्वारा किया गया है और इसकी कीमत मात्र एक सौ रूपये राखी गई है ताकि आम पाठक भी इसे खरीद सके|
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, अरुण नैथानी, सत्यवीर नहाडिया, डॉ.सुशिल शीलू, रश्मि और देवी नागरानी द्वारा इस कृति की समीक्षा की जा चुकी है|
नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं|
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DeviNangrani/nishthavaan_srijan_sadhanaa_Nagfani_ke_phool_Sameeksha.htm

रघुविन्द्र यादव के दोहा संग्रह नागफनी के फूल की श्रीमती देवी नागरानी द्वारा की गई समीक्षा वेब पत्रिका साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित हुई है|
श्री यादव की दोहा कृति की इससे पहले भी अनेक विद्वानों द्वारा समीक्षा की जा चुकी है, जो विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकशित हुई हैं| इस कृति में 424 धारदार दोहे शामिल किये गए हैं| पुस्तक का प्रकाशन आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल द्वारा किया गया है और इसकी कीमत मात्र एक सौ रूपये राखी गई है ताकि आम पाठक भी इसे खरीद सके|
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, अरुण नैथानी, सत्यवीर नहाडिया, डॉ.सुशिल शीलू, रश्मि और देवी नागरानी द्वारा इस कृति की समीक्षा की जा चुकी है|
नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं|
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DeviNangrani/nishthavaan_srijan_sadhanaa_Nagfani_ke_phool_Sameeksha.htm

Monday, April 9, 2012

दैनिक ट्रिब्यून का सम्पादकीय 8 अप्रैल

दैनिक ट्रिब्यून का 8 अप्रैल का सम्पादकीय जिसमें रघुविन्द्र यादव का एक दोहा कोट किया गया है और शीर्षक भी उन्हीं के दोहे की पंक्ति से लिया गया है।

दूध-दही मिलता नहीं, मिलती खूब शराब!

Posted On April - 7 - 2012
हरियाणा के करनाल जनपद स्थित गांव पाधा से एक सुकूनभरी खबर आई है कि विवाहोत्सव के दौरान शराब पीकर ऊधम मचाने वालों को जुर्माना लगेगा। पंचायत ने अभूतपूर्व फैसला लेकर शराब पीकर ऊधम मचाने वाले पर ग्यारह हजार जुर्माना लगाने का फैसला किया है। इतना ही नहीं, कानफोड़ू संगीत पर भी रोक लगाने का फैसला पंचायत ने किया है। अकसर देखने में आया है कि विवाहोत्सवों में शराब पीकर भड़कीले गीत-संगीत पर गुंडागर्दी करने का लाइसेंस पाना कुछ लोग अपना अधिकार समझ लेते हैं। सामान्य तौर पर विवाह को शुभकार्य मानकर लोग इसके नाम पर की जाने वाली गुंडागर्दी का विरोध नहीं करते लेकिन अब जबकि पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो पाधा गांव की पंचायत को अनूठा व आवश्यक कदम उठाने को बाध्य होना पड़ा। विश्वास से कहा जा सकता है कि इससे हरियाणा की अन्य पंचायतें भी प्रेरणा लेंगी। यदि ऐसा नहीं होता तो हरियाणा की प्रगति पर अपसंस्कृति का दाग यूं ही लगता रहेगा। पंचायत की इस बात की तारीफ करनी होगी कि उसने व्यक्तिगत आज़ादी के बजाय सार्वजनिक जीवन में व्यवधान डालने वालों पर प्रतिबंध लगाने की पहल की। यानी कोई पीना चाहे तो पिये लेकिन दूसरों की आज़ादी व निजता को प्रभावित न करे। वाकई शराब पीने और सार्वजनिक जीवन में व्यवधान डालने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ रही है। इससे जहां अपराधों में वृद्धि हुई, वहीं कई तरह की दुर्घटनाओं-झगड़ों में भी इजाफा हुआ है। हरियाणा में नशाखोरी की इस घातक प्रवृत्ति पर तंज़ करते हुए हरियाणा के राजकवि उदयभानू हंस सटीक टिप्पणी करते हैं :-

मदिरा के दुर्गुणों का नहीं कोई हिसाब,
आस्तीन का यह सांप करे खाना-खराब।
एक व्यक्ति नहीं इससे बिगड़ता केवल,
परिवार को कर देती है बरबाद शराब।
दूध-दही के खाने के लिए मशहूर हरियाणा में विकास व समृद्धि की बयार के साथ जो क्लब संस्कृति पनपी है उसने शराब के प्रसार में बेतहाशा वृद्धि की है। पीने वालों को तो बस पीने का बहाना चाहिए। खुशी का मौका आया नहीं कि बोतलें खुलनी शुरू हो जाती हैं। दूध-दही के प्रयोग के लिए चर्चित हरियाणा में आज शराब की नदियां बहने लगी हैं। सरकार की राजस्व जुटाने की लालसा और मुनाफे के मोटे धंधे ने इसके प्रचलन को बढ़ावा दिया है। दूध-दही मिले न मिले शराब कोने-कोने में मिल जाएगी। शराब माफिया ने इसकी दुकानें गांव-गांव तक पहुंचा दी हैं। ग्रामीण यदि विरोध करते भी हैं तो शराब माफिया अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके गांवों की आवाज़ दबाने में कामयाब हो जाता है। शराब नई पीढ़ी को घुन की तरह खाने लगी है। इस नशे को पूरा करने के लिए शराबी अपनी जमीन व अन्य संपत्ति बेचने में भी गुरेज नहीं करते। गांवों में शराब-संस्कृति के सिर चढ़कर बोलने से व्यथित कवि रघुविन्द्र यादव सटीक बात कहते हैं :-
केशव तेरे गांव की, हालत हुई खराब,
दूध-दही मिलता नहीं, मिलती खूब शराब।
पता नहीं इंसान ने अपने सुख-दु:ख की अभिव्यक्ति का माध्यम क्यों शराब को बना लिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि जो लोग शराब नहीं पीते क्या वे अपने सुख-दु:ख का इज़हार नहीं कर पाते? सुख-दु:ख का अहसास तो स्त्रियां भी करती हैं तो इसका निष्कर्ष यह निकाला जाये कि उन्हें भी इसी तरह अपनी अभिव्यक्ति देनी चाहिए? सही मायनों में हम शराब पीने का बहाना तलाशते हैं। सबसे भयावह पहलू यह है कि बच्चे भी बड़ों को देखकर इसका अनुसरण करने लगते हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि छात्रों में भी नशाखोरी की प्रवृत्ति का ग्राफ बढऩे लगा है। किसी राष्ट्र की युवा पीढ़ी का नशे से खोखला होना उसकी प्रगति पर सवालिया निशान लगाता है। डॉ. बलजीत एक कड़वे भावार्थ का बोध कराते हैं :-
मदिरा में डूबी सखे, अब तक इतनी जान,
डुबो न पाया आज तक, कोई सिंधु महान।
वास्तव में हरियाणा में पांव पसार रही अपसंस्कृति को दूर करने की पहल ग्राम पंचायतों को ही करनी होगी। राजनेताओं के फैसले तो वोट के समीकरणों पर आधारित रहते हैं। इस दिशा में खाप-पंचायतें न केवल हरियाणा बल्कि सारे देश को रचनात्मक संदेश दे सकती हैं। आज हरियाणा खेल से लेकर विकास के दस्तावेजों में नई इबारतें लिख रहा है। लेकिन कतिपय सामाजिक विद्रूपताएं उसकी ख्याति के चांद पर दाग लगा रही है। अब चाहे ऑनर किलिंग के मामले हों, भू्रणहत्या व लिंगानुपात की गहराती खाई हो अथवा पांव पसारती शराब-संस्कृति हो, ग्राम पंचायतों को रचनात्मक आंदोलन करने की जरूरत है। गांवों से उठी बदलाव की बयार पूरे प्रदेश की आवाज़ बन सकती है, बशर्ते ईमानदार आगाज़ हो सके। कमोबेश, यही स्थिति नशाखोरी की बढ़ती प्रवृत्ति की है। स्वयंसेवी संगठन इसमें निर्णायक भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। सदियों पहले कबीर भी शराब के अवगुणों के बारे में बता चुके हैं :-
अवगुण कहूं शराब का, आपा अहमक होय,
मानुष से पशुआ भया, दाम गांठ से खोय।
हकीकत यह है कि सरकारों के दोगले व्यवहार के कारण शराबखोरी की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है। भारी राजस्व की लालसा में देसी-विदेशी शराब के कारोबार के लिए दरवाजा खोलने वाली सरकारों ने भारत को मदिरापान का खुला बाजार बना दिया है। माना कि शराब से सरकार को मोटी आय होती है, लेकिन कितनी बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ती है? फिर इससे होने वाली बीमारियों पर सरकारी अस्पतालों पर सरकार को कितना पैसा खर्च करना पड़ता है? हमारे तथाकथित नायक, मसलन फिल्मों के कलाकार व क्रिकेटर निर्लज्जता से शराब का विज्ञापन करके इसे महिमामंडित करते हैं। काश! ये सचिन से सबक लेते जिसने 20 करोड़ के विज्ञापन इसीलिए ठुकरा दिये थे। जनता को राजनेताओं को कवि शायक के शब्दों में समझाना चाहिए :-
तेरे नगर में मदिरा की नदियां झरझर बहती हैं,
मेरे गांव में आकर देख, सूखा जोहड़ पायेगा।

दैनिक ट्रिब्यून 01-04-12 का सम्पाकीय

एक अप्रैल 2012 के दैनिक ट्रिब्यून का सम्पाकीय जिसमें 'नागफनी के फूल' का एक दोहा उद्दृत किया गया है|

बिटिया को महंगा लगे माथे का सिंदूर

Posted On March - 31 - 2012

गैर-ब्रांडेड आभूषणों पर एक फीसदी उत्पाद शुल्क और सोने के आयात शुल्क को दोगुना किये जाने के खिलाफ सर्राफा कारोबारी दो सप्ताह से आंदोलनरत हैं। देशव्यापी बंद-धरने-प्रदर्शन और कैंडल मार्च जैसे उपक्रमों से व्यापारी सरकार पर दबाब बनाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई। सर्राफ कारोबारी इस मुद्दे पर आंदोलनरत तो हैं लेकिन हकीकत यह है कि इसका खमियाजा आम आदमी ही भुगतेगा। हो सकता है कि उच्चवर्ग, कारोबारियों तथा कालेधन के पुजारियों के लिए सोना निवेश का अचूक साधन हो, लेकिन उस गरीब की तो मजबूरी है जिसे अपनी बिटिया के हाथ पीले करने हैं। इस हड़ताल से बाजार ठप्प पड़े हैं, ऐसे में उस बाप पर क्या बीत रही होगी, जिसकी बेटी की सगाई या शादी हाल-फिलहाल होने वाली है? ऐसा नहीं है कि महानगरों में ही सर्राफा बाजार बंद हों, अब तो छोटे शहरों व कस्बों में भी सर्राफा कारोबारी इस आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं। देश के संवेदनशील शासकों ने यह कभी नहीं सोचा कि उत्पाद शुल्क में वृद्धि व आपातशुल्क दुगना करने से गरीब व आम तबका बेटी कैसे बयाहेगा। हिंदू संस्कृति में सोना संस्कार है और अमीर-गरीब बेटी को अपनी हैसियत से सोना अवश्य देते हैं। कोई प्रतीकात्मक रूप में तो कोई दिखावे के साथ। लेकिन अब लगता है कि केंद्र सरकार की नीतियों के चलते आम आदमी को बेटी का विवाह करना महंगा साबित होगा। जैसा कवि अशोक अंजुम लिखता भी है :-
सौदागर इस देश के, रहते मद में चूर,
बिटिया को महंगा लगे, माथे का सिंदूर।
यह पूरे देश में पहला मौका होगा कि सारे सर्राफा-कारोबार एक साथ, इतने लंबे समय के लिए बंद हुए हों। ऐसे में आभूषणों एवं अन्य उत्पादों के लिए उपभोक्ता शहर-शहर खाक छानते फिर रहे हैं। उनकी परेशानी का महसूस करना कठिन है। सेंट्रल एक्साइज की पेचीदगियां और कस्टम शुल्क बढ़ाने की तिकड़मों से तो आम आदमी अनजान है लेकिन इतना तो तय है कि इन ड्यूटियों के लगने से ग्राहकों को अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा। सरकार तो गणित लगाकर बैठी है कि उत्पाद शुल्क बढ़ाने से उसे 100 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं है कि हाशिये पर खड़े आदमी की मुश्किलें कितनी बढ़ जाएंगी। गैर-ब्रांडेड आभूषणों पर एक फीसदी उत्पाद शुल्क के अलावा सोने की छड़, सिक्के और प्लेटिनम पर आयात शुल्क दो से बढ़ाकर चार फीसदी करने से आशंका जताई जा रही है कि खुदरा कीमतों में छह फीसदी तक का इजाफा हो सकता है, जिसकी कीमत न सरकार चुकाएगी और न ही सर्राफा बाज़ार, चुकाएगा तो आम आदमी, पिसना जिसकी नियति है। ऐसे में आम आदमी के दर्द को कवि विपिन सुनेजा ‘शायक’ ने कुछ शब्द दिये हैं :-
बाज़ार बढ़ गये हैं, रौनक भी बढ़ गई है,
रोता हुआ मिला है अकसर कबीर अब भी।
यह समझ से परे है कि देश कौन चला रहा है, हमारे प्रतिनिधि या विश्व बैंक व पश्चिमी देशों द्वारा संचालित अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं। भारत में दुनिया का सबसे अधिक सोना होने की खबरें पिछले दिनों प्रकाशित हुई थीं। इसकी वजह यह है कि सोना हमारे संस्कार में है। भारतीय जनमानस को शेयर मार्केट में विश्वास न रहा तो सोने में निवेश करना शुरू हुआ। ये शेयर बाज़ार संचालित करने वाले शातिर लोगों को रास नहीं आया। यदि सोना महंगा होगा तो लोग शेयर बाज़ार में निवेश करेंगे। लेकिन लगता नहीं ऐसा होगा। जनता को अभी तक वह रहस्य नहीं पता कि बराक ओबामा को छींक आने से शेयर बाजार क्यों धराशायी हो जाता है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार काले धन को देश में लाने की ईमानदार कोशिशें क्यों नहीं करती? इस पैसे को भी तो शेयर बाजार में निवेश करके विश्व व्यापार घाटे को पूरा किया जा सकता है। देश को लूटकर विदेश में निवेश करने वालों को लूट की छूट देने वाली सरकारों को उलाहना देते हुए रघुविंद्र यादव कहते हैं :-
दौलत लूटी देश की, कर दी जमा विदेश,
गैरों से नेता कहे, आओ करो निवेश।
वास्तव में केंद्र सरकार विदेशी व्यापार घाटे को कम करने तथा शेयर बाजार को चमकाने के लिए पीली धातु के आयात पर शुल्क लगा रही है। सरकार मानती है कि विदेशी व्यापार में होने वाले घाटे का अहम कारण बड़ी मात्रा में सोने का आयात किया जाना है जिसके लिए बहुत अधिक विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। सरकार सोचती है कि सोना महंगा होगा तो निवेश शेयर बाजार में होगा। इससे घरेलू बाजार में पैसे की तंगी कम होगी। यही वजह है कि जनवरी में सोने पर आयात शुल्क तीस रुपये प्रतिग्राम से बढ़ाकर दो फीसदी, तदुपरांत बजट में दो से चार फीसदी कर दिया गया। लेकिन इस संवेदनहीन सरकार को कौन समझाए कि सोना बाजार का ही अवयव नहीं है, वह भारतीय संस्कारों में रचा-बसा है। वह अपरिहार्य आवश्यकता भी है। शायद कुर्सी पर बैठे धृतराष्ट्रों को कवि की इन पंक्तियों से कुछ अहसास हो :-
खून पसीना जोड़कर, ले दहेज के साथ,
बिटिया के करने चला, दुखिया पीले हाथ।