विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, October 11, 2020

हरियाणा में रचित दोहा और हरियाणा के दोहाकार


हरियाणा में रचित दोहा साहित्य 

हरियाणा के दोहाकार और उनके दोहा संग्रह 

हरियाणा का प्रथम दोहा संग्रह

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित और लोकप्रिय रहा है| संस्कृत में इसे ‘दोग्धक’ कहा जाता था| जिसका अर्थ है- जो श्रोता या पाठक के मन का दोहन करे| इसे दोहक, दूहा, दोहरा, दोहड़ा, दोहयं, दोहउ, दुवह और दोहअ भी कहा जाता रहा है, लेकिन अब यह दोहा के नाम से ही लोकप्रिय है|

वह लयात्मक काव्य रचना जो 13-11, 13-11 के क्रम में दो पंक्तियों और चार चरणों में कुल 48 मात्राओं के योग से बनी हो, जिसके प्रथम और तृतीय चरणों का अंत लघु-गुरु से तथा दूसरे और चैथे चरणों का अंत गुरु-लघु से होता हो और जो पाठक या श्रोता के मन मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ सके, दोहा कहलाती है।

मात्राओं के अलावा दोहे का कथ्य और भाषा भी समकालीन और प्रभावशाली हो| किसी भी चरण का आरम्भ पचकल और जगण शब्द से न हो| यदि कोई रचना ये शर्तें पूरी करती है तभी उसे ‘मानक दोहा’ माना जाता है|

दोहा छ्न्द सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।
तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।1

    नया दोहा को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ नवगीतकार और दोहाकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी के अनुसार “नयी कहानी, नयी कविता, नयी समीक्षा की भांति गीत भी नवगीत के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब हुआ तो ग़ज़ल भी नयी ग़ज़ल हो गई और दोहा भी नये दोहे के रूप में जाना जाने लगा।”2

    विभिन्न विद्वानों ने समकालीन दोहा को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है| प्रोफेसर देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ दोहे की विशेषता कुछ यूँ बताते हैं- “दोहा छंद की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त और निर्दोष हो| कथ्य सपाट बयानी से मुक्त हो| भाषा चित्रमयी और संगीतात्मक हो बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में हो| दोहे का कथ्य समकालीन और आधुनिक बोध से सम्पन्न हो| उपदेशात्मक नीरसता और नारेबाजी की फूहड़ता से मुक्त हो|”3

    डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ दोहे की आत्मकथा में लिखते हैं- “भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण, और रस मेरी आत्मा है| कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है| प्रथम और तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं|”4

    श्री जय चक्रवर्ती समकालीन दोहे को परिभाषित करते हुए कहते हैं- “समकालीन दोहे का वैशिष्टय यह है कि इसमें हमारे समय की परिस्थितियों, जीवन संघर्षों, विसंगतियों, दुखों, अभावों और उनसे उपजी आम आदमी की पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ के सशक्त स्वर की उपस्थिति प्रदर्शित होने के साथ-साथ मुक्ति के मार्ग की संभावनाएं भी दिखाई दें|”5

    श्री हरेराम समीप परम्परागत और आधुनिक दोहे का भेद स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक रूप से बदला है| अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आम-जन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, पीड़ित है, शोषित है और संघर्षरत है| इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज़ में तीव्र और आक्रामक तेवर लिए हुए हैं| अत: जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है| इसमें आस्वाद का अन्तर प्रमुखता से उभरा है| इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है|”6

    डॉ.राधेश्याम शुक्ल के अनुसार, “आज के दोहे पुरानी पीढ़ी से कई संदर्भों, अर्थों आदि में विशिष्ट हैं| इनमे भक्तिकालीन उपदेश, पारम्परिक रूढ़ियाँ और नैतिक शिक्षाएँ नहीं हैं, न ही रीतिकाल की तरह श्रृंगार| अभिधा से तो ये बहुत परहेज करते हैं| ये दोहे तो अपने समय की तकरीर हैं| युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों और परिस्थितियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है|”7

    समकालीन दोहा देश-विदेश के साथ-साथ हरियाणा में भी बड़े पैमाने पर लिखा जा रहा है| असल में हरियाणा की दोहा यात्रा भी लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी आधुनिक दोहा या नया दोहा की| प्रोफ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने जब सप्तपदी श्रृंखला का सम्पादन किया तो उसमें हरियाणा के श्री पाल भसीन, श्री कुमार रविन्द्र और डॉ. राधेश्याम शुक्ल जैसे कई कवियों के दोहे भी संकलित हुए| बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हरियाणा के दोहकारों के एकल संग्रह भी प्रकशित होने शुरू हो गए थे| सबसे पहले पाल भसीन का ‘अमलतास की छाँव’ 1994 में प्रकाशित हुआ, इसके बाद सारस्वत मोहन मनीषी का ‘मनीषी सतसई’ 1996, रक्षा शर्मा ‘कमल’ का ‘दोहा सतसई’ 1998 और ‘रक्षा-दोहा-कोश’ 1999 में प्रकशित हुआ| रामनिवास मानव का बोलो मेरे राम 1999 में, हरेराम समीप का ‘जैसे’ और अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम, नेताओं के नाम’ 2000 में प्रकाशित हो चुके थे|

    इक्कीसवीं सदी के आते-आते दोहा काफी लोकप्रिय हो चुका था और पिछले दो दशक में बड़ी संख्या में दोहे रचे गए हैं| अब तक हरियाणा में लगभग चार दर्जन दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें पाल भसीन के ‘अमलतास की छाँव’ और ‘जोग लिखी’, सारस्वत मोहन ‘मनीषी’ के ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’, रक्षा शर्मा ‘कमल’ के ‘दोहा सतसई’ और ‘रक्षा दोहा-कोश’, रामनिवास मानव के ‘बोलो मेरे राम’ और ‘सहमी-सहमी आग’, हरेराम समीप के ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’, अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम-नेताओं के नाम’, योगेन्द्र मौदगिल का ‘देश का क्या होगा’, नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ का ‘विवेक-दोहावली’, महेंद्र शर्मा ‘सूर्य’ का ‘संस्कृति सूर्य-सतसई’, उदयभानु हंस का ‘दोहा-सप्तशती’, मेजर शक्तिराज शर्मा का ‘शक्ति सतसई’, सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ के ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’, हरिसिंह शास्त्री का ‘हरि-सतसई’, रामनिवास बंसल का ‘शिक्षक दोहावली’, ए.बी. भारती का ‘प्रारम्भ दोहावली’, गुलशन मदान का ‘लाख टके की बात’, घमंडीलाल अग्रवाल का ‘चुप्पी की पाजेब’, राधेश्याम शुक्ल का ‘दरपन वक़्त के’, रोहित यादव के ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ रघुविन्द्र यादव के ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’, प्रद्युम्न भल्ला का ‘उमड़ा सागर प्रेम का’, कृष्णलता यादव का ‘मन में खिला वसंत’, पी.डी. निर्मल का ‘निर्मल सतसई’, आशा खत्री का ‘लहरों का आलाप’, महेंद्र जैन का ‘आएगा मधुमास’, सत्यवीर नाहडिया का ‘रचा नया इतिहास’, मास्टर रामअवतार का ‘अवतार दोहावली’, नन्दलाल नियारा का ‘नियारा परिदर्शन’, राजपाल सिंह गुलिया का ‘उठने लगे सवाल’, ज्ञान प्रकाश पीयूष का ‘पीयूष सतसई’, डॉ.बलदेव वंशी का ‘दुख का नाम कबीर’, शारदा मित्तल का ‘मनुआ भयो फ़कीर’, अमर साहनी का ‘दूसरा कबीर’, सुशीला शिवराण का ‘देह जुलाहा हो गई’, उषा सेठी का ‘मरिहि मृगी हर बार’ प्रवीण पारीक 'अंशु' का सन्नाटे का शोर आदि शामिल हैं|

    हरियाणा में ऐसे बहुत से दोहाकार हैं जिनके संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं, लेकिन उनके दोहे पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित होते रहे हैं| इनमें कुमार रविन्द्र, दरवेश भारती, गिरिराजशरण अग्रवाल, सत्यवीर मानव, रमाकांत शर्मा, सत्यवान सौरभ, बेगराज कलवांसिया, विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’, नीरज शर्मा, रमेश सिद्धार्थ, अनुपिन्द्र सिंह ‘अनूप’, आशुतोष गर्ग, शील कौशिक, अंजू दुआ जैमिनी, आचार्य प्रकाशचन्द्र फुलेरिया, स्वदेश चरौरा, कपूर चतुरपाठी, प्रदीप पराग, रमन शर्मा आदि शामिल हैं|

    नए-पुराने कुछ और लोग भी दोहा छंद की साधना में लगे हुए हैं, जिनमें मदनलाल वर्मा, पुरुषोत्तम पुष्प, कमला देवी, सुरेश मक्कड़, लोक सेतिया, देवकीनंदन सैनी, अजय अज्ञात, सत्यप्रकाश ‘स्वतंत्र’, संजय तन्हा, बाबूलाल तोंदवाल, शिवदत्त शर्मा, श्रीभगवान बव्वा, सुरेखा यादव, राममेहर ‘कमेरा’ सतीश कुमार और अंजलि सिफर आदि शामिल हैं|

    उपरोक्त संग्रहों के अलावा हरियाणा से प्रकाशित होने वाली विभिन्न पत्रिकाओं यथा- हरिगंधा, बाबूजी का भारतमित्र, शोध दिशा आदि ने दोहा विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं|

    हरियाणा से ही कुछ साझा दोहा संकलनों का भी प्रकाशन हुआ है| जिनमें आधी आबादी के दोहे, आधुनिक दोहा, दोहे मेरी पसंद के और दोहों में नारी (सभी के संपादक रघुविन्द्र यादव), समकालीन दोहा कोश (हरेराम समीप) प्रमुख हैं|

    हिंदी दोहा के अलावा हरियाणा में हरियाणवी बोली में भी दोहे रचे जा रहे हैं और अब तक आधा दर्जन से अधिक दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें लक्ष्मण सिंह का हरयाणवी दोहा-सतसई, रामकुमार आत्रेय का सच्चाई कड़वी घणी, श्याम सखा श्याम का औरत बेद पांचमा, हरिकृष्ण द्विवेदी के बोल बखत के, मसाल और पनघट, सारस्वत मोहन मनीषी के मरजीवन सतसई और सरजीवन सतसई, सत्यवीर नाहडिया के गाऊं गोबिंद गीत और बखत-बखत की बात शामिल हैं| संभव है कुछ और दोहाकार भी हरियाणवी दोहे लिख रहे हों, लेकिन अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं|

    हरियाणा में समकालीन दोहा का बिरवा रोपने और उसे पल्लवित-पोषित करने में निसंदेह पाल भसीन, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, सारस्वत मोहन मनीषी, हरेराम समीप, उदयभानु हंस आदि का योगदान रहा है| किन्तु दोहे को लोकप्रियता के शिखर पर ले जाने का श्रेय रघुविन्द्र यादव और हरेराम समीप को जाता है| जहाँ श्री समीप के खुद के चार दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, वहीं उन्होंने ‘समकालीन दोहा कोश’ का सम्पादन कर ऐतिहासिक कार्य किया है| वहीं रघुविन्द्र यादव के तीन दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, उन्होंने छह दोहा संकलनों का सम्पादन किया है| साथ ही पत्रिका के दो दोहा विशेषांक प्रकाशित किये हैं| उनके कुछ दोहों के विडियो पूरे सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं| सुपरटोन डिजिटल द्वारा रिकॉर्ड किया गया उनके दोहों का एक विडियो तो अब तक दो करोड़ से अधिक बार देखा जा चुका है| जो संत कबीर के दोहों के बाद सर्वाधिक देखा जाने वाला विडियो बन चुका है|

    श्री पाल भसीन हरियाणा के पहली पीढ़ी के समकालीन दोहाकार हैं| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से आपके दोहे उत्कृष्ट हैं| उनके संग्रह ‘अमलतास की छाँव’ से बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

धूल-धूल हर स्वप्न है, शूल-शूल हर राह|
धुआँ-धुआँ हर श्वास है, चुका-चुका उत्साह||

कलियाँ चुनता रह गया, गुँथी नहीं जयमाल|
झुका पराजय बोझ से, यह गर्वोन्नत भाल||

कर हस्ताक्षर धूप के, खिला गुलाबी रूप|
चले किरण दल पाटने, अन्धकार के कूप||

    डॉ. राधेश्याम शुक्ल सप्तपदी में शामिल प्रमुख दोहकारों में से एक हैं| उनके संग्रह ‘दरपन वक़्त के’ में पारिवारिक रिश्तों, परदेसी की पीड़ा, ग्राम्यबोध, स्त्री विमर्श जैसे अनछुए किन्तु महत्त्वपूर्ण विषयों पर दोहे शामिल हैं| जैसे-

बेटी मैना दूर की, चहके करे निहाल|
वक़्त हुआ तो उड़ चली, तज पीहर की डाल||

प्रत्यय है, उपसर्ग है, औरत संधि, समास|
है जीवन का व्याकरण, सरल वाक्य विन्यास||

छोटी करके थक गए, ज्ञानी संत फ़कीर|
बनी हुई है आज भी, औरत बड़ी लकीर||

     श्री हरेराम समीप जन सरोकार के कवि हैं| उनके दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का खुलासा करते हैं। उनके दोहा संग्रह ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’ से कुछ दोहे-

एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|  
यहाँ मदारी हाँक ले, बंदर कई करोड़||

पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ|
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ||

अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख|
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख||

फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस|
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास||

    डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी भी समकालीन दोहा के साथ-साथ हरियाणवी दोहा के सशक्त हस्ताक्षर हैं| आपने न केवल हिंदी बल्कि हरियाणवी में भी साधिकार दोहे लिखे हैं। ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’ से बानगी के दोहे-

राजनीति के आजकल, ऐसे हैं हालात|
गणिका जैसा आचरण, संतों जैसी बात||

सिंहासन का सत्य से, नाता दूर-सुदूर|
विधवाओं की माँग में, कब मिलता सिन्दूर||

    प्रख्यात बाल साहित्यकार श्री घमंडीलाल अग्रवाल ने भी दोहा साहित्य को समृद्ध किया है| ‘चुप्पी की पाजेब’ से कुछ दोहे-

कई मुखौटे एक मुख, दुर्लभ है पहचान|
इंसानों के वेश में, घूम रहे शैतान||

कहा पेट ने पीठ से, खुलकर बारम्बार|
तेरे मेरे बीच में, रोटी की दीवार||

निशिगंधा यह देख कर, हुई शर्म से लाल|
भीड़ उन्हीं के साथ थी, जिनके हाथ मसाल||

    हरियाणा से राज्यकवि रहे स्व. उदयभानू हंस यूँ तो रुबाई सम्राट के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन वे अच्छे दोहाकार भी थे| ‘दोहा-सप्तशती’ से दो दोहे-

बीत चुके पचपन बरस, हुआ देश आज़ाद|
कौन राष्ट्रभाषा बने, सुलझा नहीं विवाद||

मैं दुनिया में हो गया, एक फालतू चीज|
जैसे खूँटी पर टँगी, कोई फटी क़मीज||

    श्री रघुविन्द्र यादव के दोहे अनुभूति की कसौटी पर बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ सम्प्रेषण करने वाले कहे जा सकते हैं| सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है| ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’ से कुछ दोहे-

कहाँ रहेंगी मछलियाँ, सबसे बड़ा सवाल|
कब्ज़े में सब कर लिए, घडियालों ने ताल||

गंगू पूछे भोज से, यह कैसा इन्साफ?
कुर्की मेरे खेत की, क़र्ज़ सेठ का माफ़||

अपने भाई हैं नहीं, अब उनको स्वीकार|
चूहे चुनना चाहते, बिल्ली को सरदार||

गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल।
आँगन में उगने लगे नागफनी के फूल।।

साधारण से लोग भी, रचते हैं इतिहास।
सीना चीर पहाड़ का, उग आती ज्यों घास।।

     स्व. सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ ने विविध विषयों पर दोहे रचे हैं, जो ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’ मे प्रकाशित हुये हैं-

हीरे का तो मोल है, ज्ञान सदा अनमोल|
अन्तर मन के भाव को, मत पत्थर से तोल||

उजियारे में बैठकर, करता काले काम|
‘भारत’ से अंधा भला, जपे राम का नाम||

    लोक साहित्यकार रोहित यादव ने दोहे भी लिखे हैं| ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ से दो दोहे-

अभी बहुत कुछ शेष है, जीवन से मत भाग|
बुझा नहीं है आस का, जलता हुआ चिराग||

ऐसा भी तू क्या थका, मान रहा जो हार|
हिम्मत अपनी बाँध ले, लक्ष्य खड़ा है द्वार||

    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कृष्णलता यादव का भी एक बहुरंगी दोहा संग्रह ‘मन में खिला वसंत’ प्रकाशित हुआ है| बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

आँधी है बदलाव की, होते उलटे काम|
बाबुल को वनवास दे, कलयुग वाला राम||

आग लगी जब महल में, कुटिया लाई नीर|
महल तमाशा देखता, पड़ी कुटी पर भीर||

भारी से भारी हुई, नेताजी की जेब|
ऊँचे दामों बिक रहे, धोखा, झूठ, फरेब||

    श्रीमती आशा खत्री ‘लता’ भी हरियाणा की प्रमुख महिला दोहकारों में से एक हैं। ‘लहरों का आलाप’ उनका प्रकाशित संग्रह है। कुछ दोहे इसी संग्रह से-

जीवन भर तनहाइया, लिये तुम्हारी याद।
पीडा का करती रही, आंसू में अनुवाद॥

उसको ही आता यहाँ, करना सागर पार।
लहरों से जिसकी कभी, थमी नहीं तकरार॥

    हरियाणा के नये दोहकारों के संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो शीघ्र ही प्रकाश में आयेंगे। लघुकथा के बाद दोहा को भी हरियाणा के रचनाकारो का भरपूर प्यार मिल रहा है।

-रघुविंद्र यादव
11.10.2020

संदर्भ सूची-

1. साकेत सर्ग- 9
2. ‘वक़्त करेगा फैसला’ दोहा संग्रह – रघुविंद्र यादव पृष्ठ- 9
3. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 3
4. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
5. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
6. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 6
7. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 18

Monday, October 28, 2019

सुशील सरना के दोहे

सुशील सरना के दोहे

माला फेरें राम की, करते गंदे काम।
ऐसे ढोंगी धर्म को, कर देते बदनाम।।
2
तुम तो साजन रात के, तुम क्या जानो पीर।
भोर हुई तुम चल दिए, नैन बहाएँ नीर।।
3
मर्यादा तो हो गई, शब्दकोष का भाग।
पावन रिश्तों पर लगे, बेशर्मी के दाग।।
4
अद्भुत पहले प्यार का, होता है आनंद।
रोम-रोम में रागिनी, श्वास-श्वास मकरंद।।
5
कहाँ गई पगडंडियाँ, कहाँ गए वो गाँव।
सूखे पीपल से नहीं, मिलती ठंडी छाँव।।
6
आभासी इस श्वास का, बड़ा अजब संसार।
मुट्ठीभर अवशेष हैं, झूठे तन का सार।।
7
हाथ जोड़ विनती करें, हलधर बारम्बार।
धरती की जलधर सुनो, अब तो करुण पुकार।।
8
जिसके मन की बन गई, जहाँ कहीं सरकार।
खुन्नस में वे कर रहे, भारी अत्याचार।।
9
काल न देगा श्वास को, क्षण भर की भी छूट।
खबर न होगी, प्राण ये, ले जाएगा लूट।।
10
अपनों से होता नहीं, अपनेपन का बोध।
अपने ही लेने लगे, अपनों से प्रतिशोध।।

गाफिल स्वामी के दोहे

गाफिल स्वामी के दोहे

अधिकारों की चाह में, लोग रहे सब भाग।
मगर कभी कर्तव्य की, जली न दिल में आग।।
2
झूठ द्वेष छल पाप का, पथ दुखदाई मित्र।
मिले सत्य की राह में, सुख की छाँव पवित्र।।
3
तन पर तो सत्संग का, चढ़ा हुआ है रंग।
मगर नहीं मन रह सका, कभी सत्य के संग।।
4
काया बूढ़ी हो गई, रुग्ण हुआ हर अंग।
फिर भी जीने की ललक, मन माया के संग।।
5
पैसा है तो जि़न्दगी, लगती बड़ी हसीन।
बिन पैसे संसार का, हर रिश्ता रसहीन।।
6
बिन धन के जीवन-जगत,  लगता है बेकार।
पैसे से जाता बदल, रहन-सहन व्यवहार।।
7
बिन मतलब जपता नहीं, कोई प्रभु का नाम।
दीन-दुखी धनवान सब, माँगे उससे दाम।।
8
कभी मिले यदि वक्त तो, देखो मेरा गाँव।
जहाँ पे्रम सद्भाव की, घर-घर शीतल छाँव।।
9
जाना इक दिन छोडक़र, धन-दौलत संसार।
फिर भी मूरख कर रहे, लूट ठगी व्यभिचार।।
10
काशी मथुरा द्वारिका, तीरथ किये हजार।
मगर न फिर भी खुल सका, मन मंदिर का द्वार।।
11
सुख-सुविधा से आज भी, गाँव बहुत हैं दूर।
मगर प्रकृति प्रभु प्रेम की, अनुकम्पा भरपूर।।

तारकेश्वरी सुधि के दोहे

तारकेश्वरी सुधि के दोहे

चाहा तो बेहद मगर, हुए न मन के काम।
रोजी-रोटी में हुई, अपनी उम्र तमाम।
2
ले लेंगे रिश्ते सभी, मन माफिक आकार।
लेकिन पहले कीजिए, जिव्हा पर अधिकार।।
3
लगी फैलने व्याधियाँ, जीना हुआ मुहाल।
सुविधाएँ बनने लगीं, अब जी का जंजाल।।
4
नारी कल भी देह थी और आज भी देह।
होगा शायद आपको, मुझे नहीं संदेह।।
5
द्वार खड़ी बेचैनियाँ, अनसुलझी है बात।
मन के आँगन में मचा, भावों का उत्पात।।
6
ये रिश्ते ये उलझनें, रोज नये दायित्व।
संबंधों के जाल में, उलझ गया व्यक्तित्व।।
7
रक्षा बंधन प्रेम का, सुधि विश्वस्त सबूत।
डोरी कच्चे सूत की, लेकिन नेह अकूत।।
8
आँधी ऐसी वक्त की, चली एक दिन हाय।
सपने शाखों से गिरे, भाव हुए असहाय।।
9
भावों को पहचान कर, सजी वक्त अनुरूप।
होठों की मुस्कान भी, रखती है बहुरूप।।
10
चाहे घर में कैद हों, या दफ्तर बाज़ार।
पीछी करती वासना, नारी का हर बार।।
11
पेड़ काटता माफिया, दुख फैले चहुँ ओर।
कीड़े सर्प गिलहरियाँ, बेघर चिडिय़ा मोर।।

श्रीभगवान बव्वा के दोहे

श्रीभगवान बव्वा के दोहे

हमको भी अब लग गया, सच कहने का रोग।
यार सभी नाराज हैं, कटे-कटे से लोग।।
2
इक दूजे की हम सदा, समझा करते पीर।
आँगन-आँगन खींच दी, किसने आज लकीर।।
3
सद-पथ का तुम मान लो, इतना-सा है सार।
मीठे फल ही चाह में, काँटे मिलें हजार।।
4
घर के बाहर तो लिखा, सबका है सत्कार।
नहीं दिलों में पर मिला, ढूँढ़े से भी प्यार।।
5
चौपालें सूनी पड़ी, सब में भरी मरोड़।
अब तो मेरा गाँव भी, करे शहर से होड़।।
6
बेटे को अच्छा लगे, जाना अब ससुराल।
दूरभाष पर पूछतो, अपनी माँ का हाल।।
7
सदा रोकना चाहते, पत्थर मेरी राह।
मेरे जिद्दी पैर हैं, भरते कभी न आह।।
8
तन उजला तो क्या हुआ, दिल है बड़ा मलीन।
करते ओछे काम हैं, कैसे कहूँ कुलीन।।
9
बोझ सभी का ढो रही, फिर भी है चुपचाप।
धरती माँ की देखिए, सहनशीलता आप।।
10
बच्चे मरते भूख से, तरस न खाता एक।
करते हैं पर दूध से, पत्थर का अभिषेक।।
11
कठिन डगर संसार की, हो जाये आसान।
रिश्तों का यदि सीख लें, करना हम सम्मान।।
12
आडम्बर फैला बहुत, बढ़े दिनोंदिन पीर।
अपने युग को चाहिएँ, अब तो कई कबीर।।
13
महज फलसफा एक है और एक ही पाठ।
जिस आँगन में माँ बसे, रहे वहाँ सब ठाठ।।