विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, January 15, 2023

समय की पगडंडियों पर : उत्कृष्ट गीतों का संकलन

समय की पगडंडियों पर : उत्कृष्ट गीतों का संकलन

गीत का फलक विस्तृत है। साहित्य की सबसे  प्राचीन विधा होने के साथ- साथ आज भी गीत मानवीय हृदय के सबसे नजदीक है। गीत विधा की परंपरा को विस्तार देता एक गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" चलते हुए अनेक इंद्रधनुषी अनुभव समेट कर साहित्य अनुरागियों के लिए उत्कृष्ट गीतों का गुलदस्ता लेकर आया है।
प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी द्वारा रचित गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" पढ़ने का सुंदर सुयोग बना। इस संग्रह के   गीतों एवं नवगीतों में समाहित  माधुर्य, गाम्भीर्य, अभिनव कल्पना, सहज, सरल भाषाशैली, गेयता की अविरल धार, हृदयतल  को अपनी  मनोरम सुगन्ध से भर गई।  बाल साहित्य, कुण्डलिया छंद व अनेक काव्य विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ठकुरेला जी  ने बड़ी संजीदगी से अपनी गहन अनुभूतियों  को गीतों में उतारा है।

इन गीतों में कभी शृंगार की झलक दिखाई देती है तो कभी जीवन दर्शन। कभी देश प्रेम का रंग हिलोर लेता है तो कभी सामाजिक विसंगतियाँ। बड़ी खूबसूरती से गीतों में छंद परम्परा का निर्वाह किया गया है। प्रबल भाव, सधा शिल्प सौष्ठव। हर दृष्टिकोण से इस संग्रह के गीत भाव एवं कला पक्ष की कसौटी पर कसे हुए हैं।  "करघा व्यर्थ हुआ कबीर"   इस गीत में कवि ने बदलते परिवेश एवं आधुनिक जीवन शैली की और इशारा करके प्रतीतात्मक शैली का प्रयोग किया है। नवगीतों में अदभुत प्रयोग देखते ही बनता है।

करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर
रुई का
धुनना छोड़ दिया

बेरोजगार शिल्पकारों और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का  सजीवचित्रण करते हुए कवि अपनी वेदना व्यक्त करता है। गुजरे जमाने का स्मरण करते हुए  कवि  पाषाण बनती जा रही मानवीय संवेदना देख  व्याकुल है। कवि मन कहता है कि अब सामाजिक मूल्यों का कोई मोल नहीं क्योंकि लोग काँच को ही मोती समझ रहे हैं। एक अन्य गीत गीत "बिटिया" के माध्यम से कवि ने मन के अहसास  को शब्द देकर नारी शोषण पर करारा प्रहार किया है।

बिटिया।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता

कवि का कोमल मन समय का दर्पण देख गीत के माध्यम से बिटिया की पीड़ा को शब्द देकर कह रहा है कि अब वह कहीं भी सुरक्षित नहीं। तेजाब कांड के प्रति रोष जताते हुए कवि ने पथभ्रष्ट युवाओं  को काँटे दार वृक्ष की संज्ञा दी है। ठूठ होते संस्कारों से सावधान करता हुआ कवि हृदय बेटियों के साथ होती दुखद घटनाओं से आतंकित हैं।

आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।

"कड़ियाँ फिर से जोड़ें" आशा से भरा यह नवगीत इस बात का परिचायक है कि कवि आज भी लहरों में भटकी कश्तियों के किनारे पर आने की आशा रखता है। आज कवि आवाज दे रहा है कि जात-पात, धर्म, भाषा से ऊपर उठकर हम नए भारत का निर्माण करें। इसके अलावा हरसिंगार रखो, अर्थ वृक्ष, मन उपवन, मिट्टी के दीप, बदलते मौसम, सुनों व्याघ्र  आदि गीतों एवं नवगीतों का काव्य सौन्दर्य सराहनीय है।

आँखें फाड़े
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे।
इस नवगीत के मुखड़े से ही इसकी सारी खूबसूरती प्रकट हो जाती है। राजनीतिक तानशाही के प्रति विद्रोह के तीव्र स्वर जब विस्फुटित होते है तब मन मे दबा आक्रोश जगजाहिर हो जाता है। शासक कुम्भकरणी निद्रा के वशीभूत है। राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं। कवि के मन मे सुलगती चिंगारी अब गीत का रूप लेकर प्रज्वलित हुई है।
जब मन उद्वेलित होता है तब  प्रेम की सरस, मधुर बूँदे हृदय को शीतलता प्रदान करती हैं।
शृंगार रस के गीतों में कवि का प्रियतम के प्रति समर्पण भाव का परिचय मिलता है।  

मैं अपना मन मन्दिर कर लूँ
उस मंदिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन
नित गुणगान तुम्हारा गाऊँ।

गीतों में कहीं प्रेम की पराकाष्ठा है तो कभी विरह की कठिन घड़ियाँ।
कवि "दिन बहुरंगे",  गीत के द्वारा स्वार्थ की नींव पर टिके रिश्तों की  तस्वीर दिखलाता है, तो कभी पिता के विशाल चरित्र को शब्दों में ढालने का सफल प्रयास करता है। यह संग्रह में ८२ गीतों की माला है माला के हर मोती की आभा अनोखी है। जड़ों से जुड़ी भावनाओं से रचे गए गीत मन के तार छूने में सक्षम हैं।

"समय की पगडण्डियों पर" गीत संग्रह का प्रकाशन "राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर" के आर्थिक सहयोग से होना सुखद है।  यह पुस्तक पढ़ना अत्यंत सुखद रहा। श्री ठकुरेला जी पेशे से इंजीनियर हैं।   अनेक पुस्तकों का सम्पादन कर चुके हैं। उनके तीन एकल संग्रह प्रकाशित हैं। मुझे विश्वास है यह गीत संग्रह पाठक  वर्ग में अपना उच्च स्थान बनाएगा। आशा करती हूँ कि शीघ्र ही उनकी अन्य कृतियों से हमें रूबरू होने का अवसर मिलेगा।

गीत नवगीत संग्रह- समय की पगडंडियों पर,
रचनाकार- त्रिलोक सिंह ठकुरेला,
प्रकाशक- राजस्थानी ग्रन्थागार, प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट, जोधपुर (राजस्थान),
मूल्य- रु. 200
पृष्ठ- 112

                        समीक्षक- सुनीता काम्बोज

Thursday, January 12, 2023

काव्यगंधा’ एक सिंहावलोकन   

काव्यगंधा’ एक सिंहावलोकन  

जबसे इस वसुन्धरा पर मानव समाज अस्तित्व में आया है, तब से ही काव्य का सृजन प्रारम्भ हुआ। काव्य जीवन की सुगन्ध है और छन्द उसे गतिमान बनाता है। छन्द काव्य और जीवन में आह्लाद का संचार करता है। छन्दशास्त्र को पिंगलशास्त्र भी कहा जाता है। छन्द की परम्परा साहित्य के आदिकाल से ही प्रचलित रही है। आचार्यों ने छन्द के दो भेद किए हैं - मात्रिक छन्द और वर्णिक छन्द।  कुण्डलिया का छन्दशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी काव्य में कुण्डलिया छन्द का प्रचलन दीर्घकालीन है, जिसमें गिरधर कविराय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इसी  परम्परा में त्रिलोकसिंह ‘ठकुरेला’ की ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया-संग्रह को परिगणित किया जाता है। इस काव्य रचना में शाश्वत, हिन्दी, गंगा, होली, राखी, सावन आदि विविध विषयों पर कुण्डलिया लिखी गई हैं। कवि महोदय बड़े विचारक और संवेदनशील हैं। उनके जीवन की अनुभूति भी बड़ी गहन है।

शाश्वत से अभिप्राय है जीवन की निरंतरता और उसमें अनुभूति की हुई नीतिपरायणता तथा व्यवहारकुशलता। रचनाकार ने इस कुण्डलिया में उसी सत्य का प्रतिपादन किया है - सोना तपता आग में, और निखरता रूप। कभी न रुकते साहसी, छाया हो या धूप।। छाया हो या धूप, बहुत सी बाधा आयें। कभी ने बनें अधीर, नहीं मन में घबरायें। श्ठकुरेला श् कविराय ए दुखों से कभी न रोना।
निखरे सहकर कष्ट ए आदमी हो या सोना।।

मानव जीवन के चार पुरुषार्थांे में धन का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक देश और काल में धन के बिना जीवन निर्वाह करना सम्भव नहीं है। ‘पंचतंत्र’ की तरह ‘काव्यगंधा’ में भी धन की महत्ता को दर्शाया गया है - दुविधा मंे जीवन कटे, पास न हों यदि दाम। रुपया पैसे से जुटें, घर की चीज तमाम।। घर की चीज तमाम, दाम ही सब कुछ भैया।। मेला लगे उदास, न हांे यदि पास रुपैया। श्ठकुरेला कविराय ए दाम से मिलती सुविधा। बिना दाम के ए मीत ए जगत में सौ सौ दुविधा।  लोक में यह उक्ति चरितार्थ है - बाप बड़ा न भैया। सबसे बड़ा रुपया। इसीलिए गिरिधर कवि इस सत्य को बहुत पहले ही अपनी कुण्डलिया में प्रमाणित कर चुके हैं - जब तक पैसा गांठ में, यार संग ही संग डोले। पैसा रहा न पास यार मुख से नहीं बोले।

इस संसार में जो जैसा करता है वैसा फल पाता है। शास्त्रों के सत्य को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है - कर्मों की गति गहन है, कौन पा सका पार। फल मिलते हर एक को, करनी के अनुसार।। करनी के अनुसार सीख गीता की इतनी। आती सब के हाथ, कमाई जिसकी जितनी। श्ठकुरेलाश् कविराय ए सीख यह सब धर्मों की।  सदा करो शुभ कर्म ए गहन गति है कर्मों की।   कवि ने माया, धर्म, मान-अपमान, सुख-दुःख, सफलता-असफलता, दुष्टता, सांसारिक बाह्य सौन्दर्य, धनवान, आचरण, खल की मित्रता, नारी पीड़ा, साहस, मौन, अन्तरावलोकन, संसार की असारता, सौम्य स्वभाव आदि विषयों पर शाश्वत शीर्षक के अन्तर्गत कुण्डलिया की रचना है।

कवि के हृदय में देशप्रेम की लहरें उमड़ रही हैं, जो इस कुण्डलिया में अभिव्यंजित हुई हैं - माटी अपने देश की, पुलकित करती गात। मन में खिलते सहल ही, खुशियों के जलजात।। खुशियों के जलजात, सदा ही लगती प्यारी। हांे निहारकर धन्य, करें सब कुछ बहिलारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, चली आई परिपाटी। लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ, देश की सौंधी माटी।।  इसी सत्य को महर्षि वाल्मीकि ने भगवान रामचन्द्र के मुखारविन्द से कहलवाया है - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

हिन्दी भारत की एकता का मेरुदण्ड है। कवि ने हिन्दी शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी की महिमा का गुणगान किया है - हिन्दी को मिलता रहे, प्रभु ऐसा परिवेश। हिन्दीमय हो एक दिन, अपना प्यारा देश।। अपना प्यारा देश ए जगत की हो यह भाषा।
मिले मान.सम्मान ए हर तरफ अच्छा खासा।
श्ठकुरेला श् कविराय ए यही भाता है जी को ।
करे असीमित प्यार ए समूचा जग हिन्दी को ।

गंगा संसार की सबसे पवित्र नदी है और भारतीयों का महान तीर्थ है। इसीलिए गंगा को पतितपावनी गंगा मैया कहा जाता है। कवि महोदय ने गंगा की महिमा का बखान इस प्रकार किया है - केवल नदियां ही नहीं, और न जल की धार। गंगा माँ है, देवी है, है जीवन आधार। है जीवन आधार, सभी को सुख से भरती। जो भी आता पास, विविध विधि मंगल करती। ठकुरेला श् कविराय एतारता है गंगा..जल।
गंगा.अमृत .राशि ए नहीं यह नदिया केवल।

होली का पर्व फाग पर्व भी कहलाता है। यह वसन्त ऋतु का त्यौहार है और भक्त प्रहलाद की अग्नि परीक्षा का दिन है। इसे पूरे भारत में बड़े चाव से रंगों के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। कवि महोदय ने होली की बहार का चित्रण इस प्रकार किया है - होली आई, हर तरफ, बिखर गए नवरंग। रोम रोम रसमय हुआ, बजी अनोखी चंग।।

राखी का पर्व भाई-बहन के प्यार का प्रतीक है। बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को रक्षा कवच बांधती है और भाई भाव विभोर हो जाता है। कवि ने इसका मनोहारी चित्रण किया है - राखी के त्यौहार पर, बहे प्यार के रंग। भाई से बहना मिली, मन में लिये उमंग। मन में लिये उमंग ए सकल जगती हरसाई ।
राखी बांधी हाथ ए खुश हुए बहना भाई ।
श्ठकुरेला श् कविराय एरही सदियों से साखी ।
प्यार ए मान.सम्मान ए बढ़ाती आई राखी ।

सावन में मेघमालाएं वर्षा करती हैं और धरती हरियाली से ओतप्रोत हो जाती है। सावन के महीने में हरियाली तीज और श्रावणी पूर्णिमा बड़े उमंग से मनाई जाती है। कवि महोदय ने सावन के गौरव का चित्रण इस प्रकार किया है - छाई सावन की घटा, रिमझिम पड़े फुहार। गांव-गांव झूला पड़े, गूंजे मंगल चार।। गूंजे मंगलचार, खुशी तन-मन मंे छाई। गरजें खुश हो मेघ, बही मादक पुरवाई। ‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी की वर्षा आई। हरित खेत, वन, बाग, हर तरफ सुषमा छाई।।

विविध शीर्षक के अन्तर्गत कवि महोदय ने सामयिक समस्याओं पर कुण्डलिया की रचना की है, जिसमें किसान, देशप्रेम, महंगाई, बलवान और काव्य का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। किसान को अन्नदाता कहा जाता है। वह अनेक प्रकार के कष्ट सहकर अभावों में जीवन व्यतीत करता है। कवि महोदय की किसान के प्रति बड़ी सहानुभूति है - करता है श्रम रात दिन, कृषक उगाता अन्न। रुखा-सूखा जो मिले, रहता सदा प्रसन्न।। रहता सदा प्रसन्न ए धूप ए वर्षा भी सहकर ।
सींचे फसल किसान ए ठण्ड ए पानी में रहकर ।
श्ठकुरेला श् कविराय ए उदर इस जग का भरता ।
कृषक देव जीवंत ए सभी का पालन करता ।

कवि ने महंगाई को घुड़सवार की उपमा प्रदान की है - चाबुक लेकर हाथ में, हुई तुरंग सवार। कैसे झेले आदमी, महंगाई की मार।। मँहगाई की मार ए हर तरफ आग लगाये।
स्वप्न हुए सब ख़ाक ए किधर दुखियारा जाये ।
श्ठकुरेला श् कविराय ए त्रास देती है रुक रुक ।
मँहगाई उद्दंड ए लगाये सब में चाबुक ।

कविवर त्रिलोक सिंह ‘ठकुरेला’ द्वारा विरचित ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया-संग्रह कथ्य और शिल्प की एक अनूठी रचना है। इसमें भावों की लहर प्रवाहित हो रही है और कला का वैभव बिखर रहा है। कवि कुण्डलिया छन्द की रचना में सिद्धहस्त हैं और आधुनिक हिन्दी काव्य में कुण्डलिया छन्द के मुकुटमणि हैं।

 

डाॅ॰ बाबूराम (डी.लिट्.)

प्रो़फेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र

लेखक    ः    त्रिलोक सिंह ‘ठकुरेला’
पुस्तक    ः    काव्यगंधा (कुण्डलिया-संग्रह)
प्रकाशक    ः    नवभारत प्रकाशन, जोधपुर (राजस्थान)
संस्करण    ः    2013
मूल्य    ः    150 रुपये



Friday, October 7, 2022

आनंद की अनुभूति : आनंद मंजरी

आनंद की अनुभूति : आनंद मंजरी

हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में अनेक विधाओं का योगदान रहा है। इनमें से कुछ विधाएँ बहु प्रचलित, कुछ विधाएँ अल्प प्रचलित और कुछ तो आज लगभग लुप्त-सी हो गई है। ‘मुकरी’ अथवा ‘कह मुकरी’ इसी प्रकार की विधा है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि आज यह विधा लगभग लुप्त होने की कगार पर है। लेकिन कुछ कवियों/साहित्य प्रेमियों की बदौलत यह विधा अभी भी साँस ले रही है। सर्वविदित है कि मुकरी एक प्राचीन एवं लोकप्रिय लोक काव्य-रूप है। इस चार पद या चरण वाले सममात्रिक छंद के प्रत्येक पद में 16-16 मात्राएँ अर्थात् कुल 64 मात्राएँ होती है लेकिन क्रम विधान का पालन न करते हुए इसके अपवाद रूप में भी कुछ मुकरियाँ देखी जा सकती है। मुकरी को पहेली का एक प्रकार माना गया है। “भारतीय आचार्यों ने पहेली के सोलह प्रकार माने हैं। उनमें एक प्रकार ‘मुकरी’ से मिलता-जुलता है। पाश्चात्य विद्वान टिलियर्ड ने इसे ‘डिसगाइस्ड स्टेटमेंट’ नामक काव्य-कोटि के अंतर्गत रखा है।” (आनंद मंजरी, भूमिका से (बहादुर मिश्र), पृ. 10)

भ्रम में डाले, कुछ उलझाए।
खुशियाँ बाँटे, मन बहलाए।
क्या बतलाऊँ तुम्हें, सहेली।
क्या सखि छलनी? नहीं, पहेली।(पृ.31)

दो व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालाप की शैली वाली इस मुकरी का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन ही है, साथ ही यह श्रोता की बुद्धि के विकास एवं इसे सूचनात्मक ज्ञान देने में भी सहायता करती है। पुराने समय में लिखी गई मुकरी को देखने पर स्पष्ट होता है कि मुकरी प्रायः दो सखियों के बीच हुआ संलाप है जिसके अंतिम चरण में एक विस्फोट या विस्मय दिखाई देता है। जहाँ प्रथम वक्ता के संवाद (पहेली की तरह रखी गई बात) को सुनकर द्वितीय वक्ता (श्रोता) को अर्थ भ्रम हो जाता है और जब अंत में अर्थ खुलकर सामने आता है तो श्रोता को आश्चर्य का बोध होता है। इसमें श्रोता के उत्तर (जो अधिकांश मुकरियों में साजन होता है) को गलत ठहराते हुए वक्ता उसका सही उत्तर देता है। इस तरह इसकी अंतिम पंक्ति के प्रथम भाग में श्रोता द्वारा सुझाया उत्तर एवं द्वितीय भाग में वक्ता द्वारा दिया सही उत्तर, दोनों ही होते हैं। इस प्रश्नोत्तरी में चतुराई और शरारत दोनों ही दिखाई देते हैं। मुकरी में कहकर नटने अथवा मुकरने का भाव मुख्य होता है। परंपरागत शैली में लिखी गई मुकरियों में वक्ता एवं श्रोता स्त्रियाँ ही होती है लेकिन यह दो पुरुष अथवा स्त्री-पुरुष की संवाद-शैली में भी हो सकती है।

हिन्दी में अमीर खुसरो इस विधा विशेष के अविष्कारक माने जाते हैं। ख़ुसरो के लगभग 600 वर्षों पश्चात् भारतेंदु ने इस विधा को एक बार फिर नये रूप-रंग के साथ प्रस्तुत कर इसे प्रसिद्धि दिलाई। भारतेंदु की मुकरियों को ‘नये जमाने की मुकरियाँ’ कहा जाता है, जिसमें व्यंग्य की प्रधानता देखी जा सकती है। मुकरी लेखन की परंपरा में नागार्जुन का नाम भी लिया जाता है। आधुनिक युग के कुछ और भी रचनाकारों ने इस परंपरा के विकास में अपना योगदान दिया है, इसमें से एक नाम है – त्रिलोक सिंह ठकुरेला। ठकुरेला जी का मुकरी संग्रह ‘आनंद मंजरी’ इस बात का प्रमाण है कि इस पुरातन विधा का महत्त्व एवं प्रभाव आज भी साहित्य जगत में बना रहा है और इसके लिए ठकुरेला जी का योगदान भी स्मरणीय रहेगा। ‘आनंद मंजरी’ में ठकुरेला जी की एक सौ एक मुकरियाँ संकलित है।

वैसे देखे तो मानव, प्रकृति एवं अध्यात्म यह तीन साहित्य के आधारभूत विषय रहे हैं। पूरे साहित्य संसार का विषय-वितान इन्हीं तीन बिन्दुओं से कहीं-न-कहीं संबद्ध होता है और इन्हीं से ही अन्य विषय पल्लवित होते हैं। ठकुरेला जी की मुकरियाँ भी विविध विषयों से संबद्ध है, जो इस प्रकार है – विभिन्न ऋतुएँ, आकाश (चाँद, तारे आदि), वनस्पति (पेड़-पौधे आदि), जीव-जगत (पशु-पक्षी, जीव-जंतु), दिन-रात, धरती (जल, नदी, सागर), पैसा, नारी एवं नारी शृंगार-परिधान, त्यौहार, रसोई (खान-पान की वस्तुएँ), सामाजिक-व्यवसायिक जीवन, राजनीति, महँगाई, आधुनिक उपकरण और अन्य वस्तुएँ, ईश्वर आदि।

मुकरी के परंपरागत विषयों जैसे – चंदा, तारा, पानी, जाड़ा, सावन, जूता, लोटा, तोता, मैना, आम, बुखार, मच्छर जैसे विषयों को लेकर खुसरो और भारतेंदु ने कई मुकरियाँ लिखी है। इन्हीं परंपरागत विषयों का प्रयोग ठकुरेला जी की मुकरियों में भी बराबर हुआ है। प्रस्तुत संग्रह की पहली ही मुकरी चंदा को लेकर है, जो कि बहुत सुन्दर बन पड़ी है –

जब भी देखूँ, आतप हरता। / मेरे मन में सपने भरता।
जादूगर है, डाले फंदा। / क्या सखि साजन? ना सखि, चंदा। (पृ.15)

एक सखी के द्वारा वर्णित ‘बूझो तो जाने’ वाली बात को दूसरी सखी बूझते हुए उसे प्रियतम/ साजन ही समझने की भूल करती है और फिर सखी उसे शरारती अंदाज़ में सही उत्तर देती है। परंपरागत मुकरियों में विशेषतः अमीर खुसरो की मुकरियों में वर्णन इस तरह से हुआ है कि बूझने वाले को साजन के अतिरिक्त कोई और विकल्प नज़र नहीं आता। इसी तरह का काव्य सौन्दर्य ठकुरेला जी की मुकरियों में भी दिखाई देता है, जहाँ बूझने वाले को सिर्फ साजन उत्तर ही प्रतीत होता है। कुछ इसी तरह की मनभावन मुकरियाँ देखिए –

रस लेती हूँ उसके रस में। / हो जाती हूँ उसके वश में।
मैं खुद उस पर जाऊँ वारी।/ क्या सखि साजन?, ना, फुलवारी। (पृ.19)

रात हुई तो घर में आया।/ सुबह हुई तब कहीं न पाया।
कभी न वह हो पाया मेरा।/ क्या सखि साजन?, नहीं अँधेरा।(पृ.21)

अपने प्रियतम के ख्यालों में डूबे रहना और हर पल उसी की ही बातें करना। प्रेम में यह बहुत स्वाभाविक है, इस तरह का वर्णन प्रस्तुत संग्रह की मुकरियों में देखा जा सकता है –

मैं झूमूँ तो वह भी झूमे।/ जब चाहे गालों को चूमे।
खुश होकर नाचूँ दे ठुमका।/ क्या सखि साजन? ना सखि, झुमका। (पृ.24)

यौवन के सारे रस लेता। / चूम-चूम के पागल करता।
प्रेम पिपासा, करता दौरा। / क्या सखि साजन? ना सखि, भौंरा। (पृ.26)

मैं उसकी बाँहों में सोती।/ मीठे-मीठे स्वप्न सँजोती।
सखी, अधूरा बिन उसके घर।/ क्या सखि साजन? ना सखि, बिस्तर। (पृ.26)

उपर्युक्त सभी मुकरियों के उत्तर में साजन के बदले दूसरा सही उत्तर मिलने पर श्रोता हतप्रभ तो होता है, उसके मनोरंजन के साथ-साथ उसका बुद्धि परीक्षण भी होता है। उपर्युक्त सभी मुकरियाँ बहुत ही प्रभावी बन पड़ी है। विरह के बिना प्रेम अपूर्ण है, विरह के भाव को प्रस्तुत करती मुकरी और उसमें उसके उत्तर विरहन के स्थान पर उसके सही उत्तर का आनंद लीजिए –

जब-जब उसको विरह सताए।/ पी, पी कहकर वह चिल्लाए।
सखि, न लगाना उसको पातक। / क्या सखि विरहन? ना सखि, चातक। (पृ.30)

प्रेम में कभी न कभी विरहावस्था से तो गुजरना ही पड़ता है। एक विवाहित स्त्री के लिए अपनी सौतन से बड़ा न कोई शत्रु है और न ही इससे बड़ा जीवन में कोई दुःख। सौतन के आने से होने वाले नुकसान को रेखांकित करती निम्न मुकरी का सौन्दर्य अनूठा है और उसका सही उत्तर तो और भी अद्भुत प्रतीत हुआ है –

जब-जब आती दुःख से भरती।/ पति के रूपये पैसे हरती।
उसकी आवक रास न आई।/ क्या सखि सौतन? ना, महँगाई। (पृ.28)

ठकुरेला जी ने कुछ मुकरियों में नवीन उपकरणों को विषय बनाकर भी अच्छी मुकरियाँ लिखी है, जैसे – कंप्यूटर, हीटर, मोबाइल। विभिन्न व्यवसायों को लेकर भी कुछ मुकरियाँ संग्रह में देखी जा सकती है, यथा – भिखारी, दर्जी, चपरासी, मदारी आदि। बेटी, नारी, जोगी आदि को लेकर भी सुन्दर मुकरियाँ संग्रह के सौन्दर्य को शोभित कर रही है। मच्छर को लेकर एक सुंदर मुकरी देखिए –

बिना बुलाए, घर आ जाता।/ अपनी धुन में गीत सुनाता।
नहीं जानता ढाई अक्षर।/ क्या सखि साजन? ना सखि, मच्छर। (पृ.25)

कथ्य की दृष्टि से संग्रह में विविधता दिखाई देती है और शिल्प की दृष्टि से भी सभी मुकरियाँ 16-16 मात्राएँ कुल 64 मात्राओं एवं चरण के अंत में आठवीं मात्रा पर यति के क्रम विधान का अनुपालन करती हुई शुद्ध मुकरियाँ सिद्ध होती है। बेशक, संग्रह की तमाम मुकरियाँ पाठक को आनंद की अनुभूति कराने में सक्षम कही जा सकती है। संग्रह से गुजरने के पश्चात् शीर्षक ‘आनंद मंजरी’ सार्थक प्रतीत होता है। यह संग्रह शोधार्थियों और साहित्य प्रेमियों के लिए तो लाभकारी सिद्ध होगा ही, साथ ही मुकरी जैसी लुप्त होती विधा को जीवित रखने में यह संग्रह संजीवनी साबित होगा। त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी को इस सुन्दर संग्रह के लिए बधाइयाँ एवं साधुवाद। भविष्य में भी इनके इस तरह के संग्रह पढ़ने का सुअवसर हमें प्राप्त होगा ।

कृति- आनन्द मंजरी ( मुकरी संग्रह)
कवि- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मूल्य- 60 रुपये
प्रकाशन वर्ष- 2019 , पृष्ठ- 48
प्रकाशक - राजस्थानी ग्रंथागार,
सोजती गेट, जोधपुर (राजस्थान)
-डॉ. पूर्वा शर्मा 
201एरीज -3 42 यूनाइटेड कॉलोनी 
नवरचना स्कूल के पास समा , वड़ोदरा (गुजरात ) - 390008

Friday, March 18, 2022

जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान : नयी सदी के दोहे

जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान

दोहाप्रेमियों के लिए खुशखबरी। हर बार की तरह, प्रतीक-बिम्ब-प्रतिमानों का सुदृढ़ गठबंधन कर, विभिन्न अलंकारों से सज-धज कर आ गया नया दोहा संकलन - जाने-माने सम्पादक द्वय रघुविन्द्र यादव तथा डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के सम्पादकत्व में – नयी सदी के दोहे। दोहे, जो धारदार हैं, समकालीन हैं, अपने रचनाकारों की पहचान हैं और सम्पादक द्वय की इस जिद का प्रमाण हैं कि संकलन में केवल और केवल मानक दोहे शामिल किये जायेंगे। यह बताते हुए प्रसन्नता अनुभव कर रही हूँ कि एक भी दोहा ऐसा नहीं मिला, जो मानकता की कसौटी पर खरा न उतरा हो। दोहाकारों को दृदय की गहराइयों से सलाम।

वैविध्यपूर्ण जीवन का एकांगीपन दर्शाया तो क्या दर्शाया? यानी – खायेंगे तो गेहूँ, वरन् रहेंगे ऐहूँ। यद्अपि संकलन में सादगीपूर्ण रचाव के उदाहरण भी हैं, परन्तु छुअन की गहराई से भरे-पूरे, जैसे –

धागा, बाती, तेल औ’, माचिस, लकड़ी, मोम।
एक उजाले के लिए, कई ज़िन्दगी होम।। (सत्यशील राम त्रिपाठी)

खिचड़ी बन जब तक रहे, रिश्ते थे अनमोल।
जब से चावल-दाल हैं, रहा न कोई मोल।।(रवि खण्डेलवाल)

रूप बदलते गाँव में, लोक-रंग बेहाल।
मोबाइल में खुल गये, कई सिनेमा हाल।। (रमेश गौतम)

वक़्त देख बदला अगर, माली का बर्ताव।
नामुमकिन है रोकना, फूलों का बिखराव।। (राजेश जैन राही)

मोती-माला की सभी, करते हैं तारीफ़।
कोई तो अनुभव करे, धागे की तकलीफ़।। (डॉ. हरिप्रकाश श्रीवास्तव)

छत पर चढ़ जो मारते, सीढ़ी को ही लात।
जीवन में बनती नहीं, उनकी बिगड़ी बात। (डॉ. सुरेश अवस्थी)

उपरोक्त के अतिरिक्त बहुत कुछ और भी। निवेदन इतना-सा कि इन दोहों के खारे-कड़वेपन के लिए दोहाकारों को दोष न देना। सच तो यह है, उनकी लेखनी की नोक पर वही टिक पाया, जो उन्होंने खुली आँखों से देखा, चेतन मन से भोगा और संवेदनशील हृदय से महसूस किया। कम शब्दों में – जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान।

पृष्ठभूमि समाज, राजनीति, प्रशासन की हो या सामान्य जीवन की, विरोधाभास-विसंगतियाँ-विडम्बनाएँ कब नहीं थीं? रचनाकार भी इनके विषय में तब तक लिखते रहेंगे, जब तक वे सुसंगतियों का रूप धारण नहीं कर लेतीं। अब मिलते हैं अपने परिवेश की छलनागत तथा छिछलेपन से ग्रस्त परिस्थितियों से–

सम्भव है इस देश में, ऐसा ही व्यवहार।
फ़सल उजाड़ी साँड ने, पकड़े गये सियार।। (डॉ. सतीशचन्द्र शर्मा)

मरने पर उस व्यक्ति के, बस्ती करे विलाप।
पेड़ गिरा तब हो सकी, ऊँचाई की माप।। ( हरेराम समीप)

विसंगतिपूर्ण स्थितियाँ कवि को बेचैनी के लिहाफ में लपेट देती हैं, उसकी छटपटाहट उससे लिखवाती है -

भावों में चिनगारियाँ, शब्द-शब्द में क्रोध।
सुनते हैं वह कर रहा, ‘अमर-प्रेम’ पर शोध।।(हरीलाल ‘मिलन’)

सागर के विस्तार को, सदा चुभा यह शूल।
अदने-से तालाब में, खिले कमल का फूल।।(सीमा पाण्डे मिश्रा)

रोज बिछाते गोटियाँ, रोज़ खेलते दाँव।
जिन्हें सिखाया दौड़ना, काट रहे वे पाँव।। (डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’)

पत्थर-सी ठोकर कभी, कभी जोंक-सा प्यार।
रह-रह कर देता मुझे, यह निष्ठुर संसार।। (शैलेन्द्र शर्मा)

जिसे मसीहा मान कर, नमन किया हर बार।
वही हमें देता रहा, आँसू का उपहार।। (रामबाबू रस्तोगी)

फलक सियासी पर हुये, मेघ वही आबाद।
नहीं बरसते जो कभी, करते केवल नाद।। (राजपाल सिंह गुलिया)

प्रायोजन अब बन गया, इस युग की पहचान।
प्रायोजित विद्वान हैं, प्रायोजित सम्मान।। (रमेश प्रसून)

खड़े बिजूके खेत में, बनकर पहरेदार।
भोले-भाले डर रहे, चतुर चरें सौ बार।। (त्रिलोक सिंह ठकुरेला)

जवाँ सभ्यता हो रही, तोड़ समय का खोल।
आग बुझाते लोग अब, डाल-डाल पेट्रोल।। (नज़्म सुभाष)

मधुर बोल की डाल पर, खिलें झूठ के फूल।
हरियाली ओढ़े खड़ी, नागफनी के शूल।। (नीलमेन्दु सागर)

केवल विज्ञापन हुये, संवेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुये हैं कोश।। (डॉ. भावना तिवारी)

विकास के नाम पर हमने ऐसा कुछ खो दिया, जिसका हमारे पास रहना ज़रूरी था। इस कचोट को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है –

चिड़िया, दाना, घोंसला, चूज़े, कलरव, शाम।
सुधियों में अब रह गये, पीपल, बरगद, आम।। (प्रभु त्रिवेदी)

हरियाणवी कहावत है– बड़बोलेके डूण्डल़े (मोटे तिनके) बी बिक ज्याँ, ना बोलणिए की रास (अन्न का ढेर) बी पड़ी रह ज्या। ऐसा ही कुछ कहता है यह दोहा –

साँठ-गाँठ कर बच गया, था जिसका सब दोष।
अपराधी घोषित हुआ, बैठा जो खामोश।। (डॉ. जे. पी. बघेल)

वृद्धजनों की वर्तमान स्थिति पर क्या खूब लिखा है, देखिये –

सरकारों से जूझकर, पाये सब अधिकार।
पर घर ने रखवा लिये, बूढ़े से हथियार।।(शशिकांत गीते)

बूढ़े बरगद की जड़ें, भूख-प्यास से त्रस्त।
शाखा-गूलर-पत्तियाँ, सब अपने में मस्त।। (अवनीश त्रिपाठी)

पुरातनता से टूटते मोह के मुँह बोलते चित्रण की बानगी –

तुलसी, कोठी, चिट्ठियाँ, गौरैया, सन्दूक।
कल तक थे जितने मुखर, उतने ही अब मूक।। (राहुल शिवाय)

प्रतीकात्मकता के काबिले गौर उदाहरण –

आपस में लड़ने लगे, प्रत्यय, सन्धि, समास।
देख-देख कर व्याकरण, रहता बहुत उदास।। (स्व. रामानुज त्रिपाठी)

काग बने दरबार के, जब से ख़ासमख़ास।
बगुलों को चौधर मिली, हंसों को वनवास।। (रघुविन्द्र यादव)
 
सन्तान हित माँ की भूमिका का एक उत्कृष्ट शब्द चित्र देखिये –

सबने अपना सुख जिया, सबको हुई थकान।
माँ गौरैया की तरह, भरती रही उड़ान।। (रमेश गौतम)
 
देश की आबोहवा को, सांस्कृतिक प्रदूषण, किस क़द्र बिगाड़ रहा है, इसकी एक झलकी –

जब से अपने देश में, पछुआ बही बयार।
शील हुआ घायल मृदुल, नैतिकता बीमार।। (डॉ. मृदुल शर्मा)

संकलन के पृष्ठों को व्यंग्य की छलछल से भिगोये बिना दोहाकारों को तसल्ली कहाँ –

शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।। (डॉ. मिथिलेश दीक्षित)

सहम गयी यह देखकर, चिड़ियों की चौपाल।
गिद्ध नाश्ते के लिए, अण्डे रहे उबाल।। (डॉ. महेश मनमीत)

जीना है तो सीख लो, कोयल रहना मूक।
नई व्यवस्था ने लिखा, देशद्रोह है कूक।। (डॉ. नीरज कुमार सिन्हा)

एकलव्य यों कर रहे, गुरुकुल में अभ्यास।
तोड़ अँगूठा द्रोण का, बदल रहे इतिहास।। (मनीष कुमार झा)

रात स्वप्न में दोस्तो, देखे अजब प्रसंग।
संसद में मुजरा हुआ, चम्बल में सत्संग।। (अशोक ‘अंजुम’)

मोटा तगड़ा हो गया, मन्दिर का दरबान।
जैसा था वैसा रहा, अन्दर का भगवान।। (दीनानाथ सुमित्र)

बाबू को जिसने दिया, धन के बदले फूल।
उसकी फ़ाइल पर जमी, मोटी-मोटी धूल।। (बजरंग श्री सहाय)

जीवन की भागदौड़ में आदमी इतना बेखबर हो गया कि रिश्तों का ताना-बाना कमज़ोर पड़ता चला गया; त्रासदी यह कि उससे उसका सर्वोत्तम छिन गया –

कब धागा कच्चा हुआ, दिया न कुछ भी ध्यान।
गठरी की गाँठें खुली, बिखरे मोती धान।। (डॉ. मधु प्रधान)

कहीं-कहीं सन्देशपरकता के छींटे भी गिरे हैँ–

वर्षों से सब सह रहा, होकर हल्कू मौन।
ऐसे में उसके लिये, लड़े बताओ कौन।। (डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव)

और अब देखते हैं लोकतन्त्र और उसकी प्रशासन व्यवस्था का हाल –

केसरिया, नीले, हरे, काले, पीले व्याल।
लोकतन्त्र की देह पर, रंग-बिरंगे व्याल।। (जय चक्रवर्ती)

बिके मेघ कुछ कैद हैं, कुछ हैं कहीं फ़रार।
चार दिनों में गिर गई, सावन की सरकार।। (अरुण कुमार निगम)

अंधे-बहरों की सभा, काने का है राज।
जिसने लज्जा त्याग दी, उसके सर पर ताज।। (चित्रा श्रीवास)

विश्व बैंक से कर्ज़ ले, देश हुआ धनवान।
अजगर भी पाने लगा, सरकारी अनुदान।। (राजेन्द्र वर्मा)

वन पाखी वनफूल की, व्यर्थ हुई हर आस।
आकर राजोद्यान तक, लौट गया मधुमास।। (रामनाथ बेख़बर)

पानी आँखों का मरा, ढीठ हो गये लोग।
पानी, पानी था कभी, आज हुआ उद्योग।। (चक्रधर शुक्ल)

इस दोहे को पढ़कर मेरे नवगीत की पंक्ति अनायास ज़ुबां पर आन विराजी –

पानी बेच रहा बोतलबंद
किसना प्याऊवाला।

समय किसी का सगा नहीं, वह क्या से क्या कर दे, कहा नहीं जा सकता, उदाहरण पेश हैं–

रातरानियों को मिला, आँगन का अधिकार।
तुलसी विस्थापित हुई, खोज रही है प्यार।। (गरिमा सक्सेना)

बदल गये हैं माज़रे, बदल गये अंदाज।
शेर दिहाड़ी कर रहे, गीदड़ के घर आज।। (कमलेश व्यास)

रोते-रोते पुण्य ने, धरे पाप के पाँव।
कहाँ बसूँ, किस ठौर मैं, तू ही तू हर गाँव।। (पार्थ तिवारी)

समर्थ का कौन क्या बिगाड़ सकता है, इस ओर संकेत देखिये –

क्या कर लेगी रूप का, कड़ी धूप संगीन।
चश्मा, छाता, ओढ़नी, सब जिसके रंगीन।। (केशव शरण)

किसी का दर्द किस रूप में मुखरित होता है, एक बानगी –

बैठी हैं घेरे हुये, यादें मन का घाव।
जैसे हो चौपाल में, जलता हुआ अलाव।। (डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’)

सकार भाव को पोसता यह दोहा भी किसी से कम नहीं –

रंगी प्रीत से खिड़कियाँ, द्वार धरी मुस्कान।
तब जाकर यह घर बना, इतना आलीशान।। (कुँअर उदयसिंह)

मन है तो मानुष है, मानुष है तो कामनाएँ भी हैं –

मन का पौधा हो हरा, हर ले जीवन-पीर।
सच्चाई की खाद हो, और प्रेम का नीर।। (डॉ. नलिन)

बिटिया की विदाई-घड़ी का भावुक करने वाला जीवंत दृश्य है –

सोन चिरैया उड़ चली, पकड़ पिया का हाथ।
व्याकुल स्वजन-सहेलियाँ, आँगन हुआ अनाथ।। (रामहर्ष यादव)

जीवन के विविध रंगों के बीच जीवन-दर्शन न हो तो कुछ खालीपन रह जाता, अच्छी बात यह कि संकलन में इसे स्थान मिला है –

पक्षी जैसे साथियो, मान, समय, विश्वास।
एक बार यदि उड़ गये, कभी न लौटे पास।। (शिव कुमार दीपक)
 
प्राकृतिक आपदाएँ जीवन को बेबसी की सौगात देती रहतीं हैं, बानगी स्वरूप –

कभी बाढ़, सूखा कभी, आग कभी भूडोल।
भूखी धनिया बाँचती, रोटी का भूगोल।। (ब्रजनाथ श्रीवास्तव)

अंधेरा चाहे लाख षड्यंत्र रचे, उजाला आकर रहता है, इस भाव का एक उदाहरण देखिये -

जीत उजाले की हुई, हार गया फिर स्याह।
बिटिया ने घर में रचा, फिर गुड़िया का ब्याह।। (शुभम श्रीवास्तव)

संकलन में शामिल प्रत्येक (कुल 53) दोहाकार के एक-एक प्रतिनिधि दोहे की बानगी बता रही है कि बात शिल्प की हो, भाव की या गेयता की, कोई किसी से कम नहीं। ऐसे पठनीय-संग्रहणीय, त्रुटिरहित छपाई वाले संकलन के लिए दोहाकार-सम्पादक द्वय पुन: पुन: बधाई के पात्र हैं। दोहा-शोधार्थियों, विद्यार्थियों के लिए यह लाइट-हाउस का काम करेगा, ऐसी उम्मीद है।

समीक्षक- कृष्णलता यादव
677, सेक्टर 10ए
गुरुग्राम 122001
9811642789

पुस्तक – नयी सदी के दोहे
सम्पादक द्वय – रघुविन्द्र यादव, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
प्रकाशक – श्वेतवर्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ – 136, मूल्य – 160रु

Sunday, October 11, 2020

हरियाणा में रचित दोहा और हरियाणा के दोहाकार


हरियाणा में रचित दोहा साहित्य 

हरियाणा के दोहाकार और उनके दोहा संग्रह 

हरियाणा का प्रथम दोहा संग्रह

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित और लोकप्रिय रहा है| संस्कृत में इसे ‘दोग्धक’ कहा जाता था| जिसका अर्थ है- जो श्रोता या पाठक के मन का दोहन करे| इसे दोहक, दूहा, दोहरा, दोहड़ा, दोहयं, दोहउ, दुवह और दोहअ भी कहा जाता रहा है, लेकिन अब यह दोहा के नाम से ही लोकप्रिय है|

वह लयात्मक काव्य रचना जो 13-11, 13-11 के क्रम में दो पंक्तियों और चार चरणों में कुल 48 मात्राओं के योग से बनी हो, जिसके प्रथम और तृतीय चरणों का अंत लघु-गुरु से तथा दूसरे और चैथे चरणों का अंत गुरु-लघु से होता हो और जो पाठक या श्रोता के मन मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ सके, दोहा कहलाती है।

मात्राओं के अलावा दोहे का कथ्य और भाषा भी समकालीन और प्रभावशाली हो| किसी भी चरण का आरम्भ पचकल और जगण शब्द से न हो| यदि कोई रचना ये शर्तें पूरी करती है तभी उसे ‘मानक दोहा’ माना जाता है|

दोहा छ्न्द सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।
तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।1

    नया दोहा को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ नवगीतकार और दोहाकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी के अनुसार “नयी कहानी, नयी कविता, नयी समीक्षा की भांति गीत भी नवगीत के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब हुआ तो ग़ज़ल भी नयी ग़ज़ल हो गई और दोहा भी नये दोहे के रूप में जाना जाने लगा।”2

    विभिन्न विद्वानों ने समकालीन दोहा को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है| प्रोफेसर देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ दोहे की विशेषता कुछ यूँ बताते हैं- “दोहा छंद की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त और निर्दोष हो| कथ्य सपाट बयानी से मुक्त हो| भाषा चित्रमयी और संगीतात्मक हो बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में हो| दोहे का कथ्य समकालीन और आधुनिक बोध से सम्पन्न हो| उपदेशात्मक नीरसता और नारेबाजी की फूहड़ता से मुक्त हो|”3

    डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ दोहे की आत्मकथा में लिखते हैं- “भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण, और रस मेरी आत्मा है| कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है| प्रथम और तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं|”4

    श्री जय चक्रवर्ती समकालीन दोहे को परिभाषित करते हुए कहते हैं- “समकालीन दोहे का वैशिष्टय यह है कि इसमें हमारे समय की परिस्थितियों, जीवन संघर्षों, विसंगतियों, दुखों, अभावों और उनसे उपजी आम आदमी की पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ के सशक्त स्वर की उपस्थिति प्रदर्शित होने के साथ-साथ मुक्ति के मार्ग की संभावनाएं भी दिखाई दें|”5

    श्री हरेराम समीप परम्परागत और आधुनिक दोहे का भेद स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक रूप से बदला है| अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आम-जन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, पीड़ित है, शोषित है और संघर्षरत है| इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज़ में तीव्र और आक्रामक तेवर लिए हुए हैं| अत: जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है| इसमें आस्वाद का अन्तर प्रमुखता से उभरा है| इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है|”6

    डॉ.राधेश्याम शुक्ल के अनुसार, “आज के दोहे पुरानी पीढ़ी से कई संदर्भों, अर्थों आदि में विशिष्ट हैं| इनमे भक्तिकालीन उपदेश, पारम्परिक रूढ़ियाँ और नैतिक शिक्षाएँ नहीं हैं, न ही रीतिकाल की तरह श्रृंगार| अभिधा से तो ये बहुत परहेज करते हैं| ये दोहे तो अपने समय की तकरीर हैं| युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों और परिस्थितियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है|”7

    समकालीन दोहा देश-विदेश के साथ-साथ हरियाणा में भी बड़े पैमाने पर लिखा जा रहा है| असल में हरियाणा की दोहा यात्रा भी लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी आधुनिक दोहा या नया दोहा की| प्रोफ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने जब सप्तपदी श्रृंखला का सम्पादन किया तो उसमें हरियाणा के श्री पाल भसीन, श्री कुमार रविन्द्र और डॉ. राधेश्याम शुक्ल जैसे कई कवियों के दोहे भी संकलित हुए| बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हरियाणा के दोहकारों के एकल संग्रह भी प्रकशित होने शुरू हो गए थे| सबसे पहले पाल भसीन का ‘अमलतास की छाँव’ 1994 में प्रकाशित हुआ, इसके बाद सारस्वत मोहन मनीषी का ‘मनीषी सतसई’ 1996, रक्षा शर्मा ‘कमल’ का ‘दोहा सतसई’ 1998 और ‘रक्षा-दोहा-कोश’ 1999 में प्रकशित हुआ| रामनिवास मानव का बोलो मेरे राम 1999 में, हरेराम समीप का ‘जैसे’ और अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम, नेताओं के नाम’ 2000 में प्रकाशित हो चुके थे|

    इक्कीसवीं सदी के आते-आते दोहा काफी लोकप्रिय हो चुका था और पिछले दो दशक में बड़ी संख्या में दोहे रचे गए हैं| अब तक हरियाणा में लगभग चार दर्जन दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें पाल भसीन के ‘अमलतास की छाँव’ और ‘जोग लिखी’, सारस्वत मोहन ‘मनीषी’ के ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’, रक्षा शर्मा ‘कमल’ के ‘दोहा सतसई’ और ‘रक्षा दोहा-कोश’, रामनिवास मानव के ‘बोलो मेरे राम’ और ‘सहमी-सहमी आग’, हरेराम समीप के ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’, अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम-नेताओं के नाम’, योगेन्द्र मौदगिल का ‘देश का क्या होगा’, नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ का ‘विवेक-दोहावली’, महेंद्र शर्मा ‘सूर्य’ का ‘संस्कृति सूर्य-सतसई’, उदयभानु हंस का ‘दोहा-सप्तशती’, मेजर शक्तिराज शर्मा का ‘शक्ति सतसई’, सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ के ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’, हरिसिंह शास्त्री का ‘हरि-सतसई’, रामनिवास बंसल का ‘शिक्षक दोहावली’, ए.बी. भारती का ‘प्रारम्भ दोहावली’, गुलशन मदान का ‘लाख टके की बात’, घमंडीलाल अग्रवाल का ‘चुप्पी की पाजेब’, राधेश्याम शुक्ल का ‘दरपन वक़्त के’, रोहित यादव के ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ रघुविन्द्र यादव के ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’, प्रद्युम्न भल्ला का ‘उमड़ा सागर प्रेम का’, कृष्णलता यादव का ‘मन में खिला वसंत’, पी.डी. निर्मल का ‘निर्मल सतसई’, आशा खत्री का ‘लहरों का आलाप’, महेंद्र जैन का ‘आएगा मधुमास’, सत्यवीर नाहडिया का ‘रचा नया इतिहास’, मास्टर रामअवतार का ‘अवतार दोहावली’, नन्दलाल नियारा का ‘नियारा परिदर्शन’, राजपाल सिंह गुलिया का ‘उठने लगे सवाल’, ज्ञान प्रकाश पीयूष का ‘पीयूष सतसई’, डॉ.बलदेव वंशी का ‘दुख का नाम कबीर’, शारदा मित्तल का ‘मनुआ भयो फ़कीर’, अमर साहनी का ‘दूसरा कबीर’, सुशीला शिवराण का ‘देह जुलाहा हो गई’, उषा सेठी का ‘मरिहि मृगी हर बार’ प्रवीण पारीक 'अंशु' का सन्नाटे का शोर आदि शामिल हैं|

    हरियाणा में ऐसे बहुत से दोहाकार हैं जिनके संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं, लेकिन उनके दोहे पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित होते रहे हैं| इनमें कुमार रविन्द्र, दरवेश भारती, गिरिराजशरण अग्रवाल, सत्यवीर मानव, रमाकांत शर्मा, सत्यवान सौरभ, बेगराज कलवांसिया, विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’, नीरज शर्मा, रमेश सिद्धार्थ, अनुपिन्द्र सिंह ‘अनूप’, आशुतोष गर्ग, शील कौशिक, अंजू दुआ जैमिनी, आचार्य प्रकाशचन्द्र फुलेरिया, स्वदेश चरौरा, कपूर चतुरपाठी, प्रदीप पराग, रमन शर्मा आदि शामिल हैं|

    नए-पुराने कुछ और लोग भी दोहा छंद की साधना में लगे हुए हैं, जिनमें मदनलाल वर्मा, पुरुषोत्तम पुष्प, कमला देवी, सुरेश मक्कड़, लोक सेतिया, देवकीनंदन सैनी, अजय अज्ञात, सत्यप्रकाश ‘स्वतंत्र’, संजय तन्हा, बाबूलाल तोंदवाल, शिवदत्त शर्मा, श्रीभगवान बव्वा, सुरेखा यादव, राममेहर ‘कमेरा’ सतीश कुमार और अंजलि सिफर आदि शामिल हैं|

    उपरोक्त संग्रहों के अलावा हरियाणा से प्रकाशित होने वाली विभिन्न पत्रिकाओं यथा- हरिगंधा, बाबूजी का भारतमित्र, शोध दिशा आदि ने दोहा विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं|

    हरियाणा से ही कुछ साझा दोहा संकलनों का भी प्रकाशन हुआ है| जिनमें आधी आबादी के दोहे, आधुनिक दोहा, दोहे मेरी पसंद के और दोहों में नारी (सभी के संपादक रघुविन्द्र यादव), समकालीन दोहा कोश (हरेराम समीप) प्रमुख हैं|

    हिंदी दोहा के अलावा हरियाणा में हरियाणवी बोली में भी दोहे रचे जा रहे हैं और अब तक आधा दर्जन से अधिक दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें लक्ष्मण सिंह का हरयाणवी दोहा-सतसई, रामकुमार आत्रेय का सच्चाई कड़वी घणी, श्याम सखा श्याम का औरत बेद पांचमा, हरिकृष्ण द्विवेदी के बोल बखत के, मसाल और पनघट, सारस्वत मोहन मनीषी के मरजीवन सतसई और सरजीवन सतसई, सत्यवीर नाहडिया के गाऊं गोबिंद गीत और बखत-बखत की बात शामिल हैं| संभव है कुछ और दोहाकार भी हरियाणवी दोहे लिख रहे हों, लेकिन अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं|

    हरियाणा में समकालीन दोहा का बिरवा रोपने और उसे पल्लवित-पोषित करने में निसंदेह पाल भसीन, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, सारस्वत मोहन मनीषी, हरेराम समीप, उदयभानु हंस आदि का योगदान रहा है| किन्तु दोहे को लोकप्रियता के शिखर पर ले जाने का श्रेय रघुविन्द्र यादव और हरेराम समीप को जाता है| जहाँ श्री समीप के खुद के चार दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, वहीं उन्होंने ‘समकालीन दोहा कोश’ का सम्पादन कर ऐतिहासिक कार्य किया है| वहीं रघुविन्द्र यादव के तीन दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, उन्होंने छह दोहा संकलनों का सम्पादन किया है| साथ ही पत्रिका के दो दोहा विशेषांक प्रकाशित किये हैं| उनके कुछ दोहों के विडियो पूरे सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं| सुपरटोन डिजिटल द्वारा रिकॉर्ड किया गया उनके दोहों का एक विडियो तो अब तक दो करोड़ से अधिक बार देखा जा चुका है| जो संत कबीर के दोहों के बाद सर्वाधिक देखा जाने वाला विडियो बन चुका है|

    श्री पाल भसीन हरियाणा के पहली पीढ़ी के समकालीन दोहाकार हैं| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से आपके दोहे उत्कृष्ट हैं| उनके संग्रह ‘अमलतास की छाँव’ से बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

धूल-धूल हर स्वप्न है, शूल-शूल हर राह|
धुआँ-धुआँ हर श्वास है, चुका-चुका उत्साह||

कलियाँ चुनता रह गया, गुँथी नहीं जयमाल|
झुका पराजय बोझ से, यह गर्वोन्नत भाल||

कर हस्ताक्षर धूप के, खिला गुलाबी रूप|
चले किरण दल पाटने, अन्धकार के कूप||

    डॉ. राधेश्याम शुक्ल सप्तपदी में शामिल प्रमुख दोहकारों में से एक हैं| उनके संग्रह ‘दरपन वक़्त के’ में पारिवारिक रिश्तों, परदेसी की पीड़ा, ग्राम्यबोध, स्त्री विमर्श जैसे अनछुए किन्तु महत्त्वपूर्ण विषयों पर दोहे शामिल हैं| जैसे-

बेटी मैना दूर की, चहके करे निहाल|
वक़्त हुआ तो उड़ चली, तज पीहर की डाल||

प्रत्यय है, उपसर्ग है, औरत संधि, समास|
है जीवन का व्याकरण, सरल वाक्य विन्यास||

छोटी करके थक गए, ज्ञानी संत फ़कीर|
बनी हुई है आज भी, औरत बड़ी लकीर||

     श्री हरेराम समीप जन सरोकार के कवि हैं| उनके दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का खुलासा करते हैं। उनके दोहा संग्रह ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’ से कुछ दोहे-

एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|  
यहाँ मदारी हाँक ले, बंदर कई करोड़||

पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ|
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ||

अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख|
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख||

फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस|
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास||

    डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी भी समकालीन दोहा के साथ-साथ हरियाणवी दोहा के सशक्त हस्ताक्षर हैं| आपने न केवल हिंदी बल्कि हरियाणवी में भी साधिकार दोहे लिखे हैं। ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’ से बानगी के दोहे-

राजनीति के आजकल, ऐसे हैं हालात|
गणिका जैसा आचरण, संतों जैसी बात||

सिंहासन का सत्य से, नाता दूर-सुदूर|
विधवाओं की माँग में, कब मिलता सिन्दूर||

    प्रख्यात बाल साहित्यकार श्री घमंडीलाल अग्रवाल ने भी दोहा साहित्य को समृद्ध किया है| ‘चुप्पी की पाजेब’ से कुछ दोहे-

कई मुखौटे एक मुख, दुर्लभ है पहचान|
इंसानों के वेश में, घूम रहे शैतान||

कहा पेट ने पीठ से, खुलकर बारम्बार|
तेरे मेरे बीच में, रोटी की दीवार||

निशिगंधा यह देख कर, हुई शर्म से लाल|
भीड़ उन्हीं के साथ थी, जिनके हाथ मसाल||

    हरियाणा से राज्यकवि रहे स्व. उदयभानू हंस यूँ तो रुबाई सम्राट के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन वे अच्छे दोहाकार भी थे| ‘दोहा-सप्तशती’ से दो दोहे-

बीत चुके पचपन बरस, हुआ देश आज़ाद|
कौन राष्ट्रभाषा बने, सुलझा नहीं विवाद||

मैं दुनिया में हो गया, एक फालतू चीज|
जैसे खूँटी पर टँगी, कोई फटी क़मीज||

    श्री रघुविन्द्र यादव के दोहे अनुभूति की कसौटी पर बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ सम्प्रेषण करने वाले कहे जा सकते हैं| सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है| ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’ से कुछ दोहे-

कहाँ रहेंगी मछलियाँ, सबसे बड़ा सवाल|
कब्ज़े में सब कर लिए, घडियालों ने ताल||

गंगू पूछे भोज से, यह कैसा इन्साफ?
कुर्की मेरे खेत की, क़र्ज़ सेठ का माफ़||

अपने भाई हैं नहीं, अब उनको स्वीकार|
चूहे चुनना चाहते, बिल्ली को सरदार||

गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल।
आँगन में उगने लगे नागफनी के फूल।।

साधारण से लोग भी, रचते हैं इतिहास।
सीना चीर पहाड़ का, उग आती ज्यों घास।।

     स्व. सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ ने विविध विषयों पर दोहे रचे हैं, जो ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’ मे प्रकाशित हुये हैं-

हीरे का तो मोल है, ज्ञान सदा अनमोल|
अन्तर मन के भाव को, मत पत्थर से तोल||

उजियारे में बैठकर, करता काले काम|
‘भारत’ से अंधा भला, जपे राम का नाम||

    लोक साहित्यकार रोहित यादव ने दोहे भी लिखे हैं| ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ से दो दोहे-

अभी बहुत कुछ शेष है, जीवन से मत भाग|
बुझा नहीं है आस का, जलता हुआ चिराग||

ऐसा भी तू क्या थका, मान रहा जो हार|
हिम्मत अपनी बाँध ले, लक्ष्य खड़ा है द्वार||

    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कृष्णलता यादव का भी एक बहुरंगी दोहा संग्रह ‘मन में खिला वसंत’ प्रकाशित हुआ है| बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

आँधी है बदलाव की, होते उलटे काम|
बाबुल को वनवास दे, कलयुग वाला राम||

आग लगी जब महल में, कुटिया लाई नीर|
महल तमाशा देखता, पड़ी कुटी पर भीर||

भारी से भारी हुई, नेताजी की जेब|
ऊँचे दामों बिक रहे, धोखा, झूठ, फरेब||

    श्रीमती आशा खत्री ‘लता’ भी हरियाणा की प्रमुख महिला दोहकारों में से एक हैं। ‘लहरों का आलाप’ उनका प्रकाशित संग्रह है। कुछ दोहे इसी संग्रह से-

जीवन भर तनहाइया, लिये तुम्हारी याद।
पीडा का करती रही, आंसू में अनुवाद॥

उसको ही आता यहाँ, करना सागर पार।
लहरों से जिसकी कभी, थमी नहीं तकरार॥

    हरियाणा के नये दोहकारों के संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो शीघ्र ही प्रकाश में आयेंगे। लघुकथा के बाद दोहा को भी हरियाणा के रचनाकारो का भरपूर प्यार मिल रहा है।

-रघुविंद्र यादव
11.10.2020

संदर्भ सूची-

1. साकेत सर्ग- 9
2. ‘वक़्त करेगा फैसला’ दोहा संग्रह – रघुविंद्र यादव पृष्ठ- 9
3. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 3
4. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
5. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
6. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 6
7. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 18