विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, January 16, 2023

कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर : एक ऐतिहासिक कुण्डलिया संकलन

कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर : एक ऐतिहासिक कुण्डलिया संकलन

कविता के लिये छन्द का अनुशासन आवश्यक माना गया है। छन्द ही कविता को गद्य से अलग पहचान देता है, परन्तु विगत वर्षों में किसी प्रकार के छन्द का पालन न करते हुए गद्यनुमा वक्तव्य को भी कविता कहा जाने लगा परिणामस्वरूप तमाम तथाकथित कवियों की बाढ़ सी आ गई। निराला जी ने कविता को छन्द से मुक्त करने की बात नहीं कही बल्कि छन्द को पारम्परिक बंधन से मुक्त करने की बात कही अर्थात कविता में छन्द तो रहे परन्तु वह मुक्त छन्द हो जिसका कवि अपने अनुसार निर्वहन करे साथ ही कविता में लय और प्रवाह भी रहे ताकि कविता कविता जैसी लगे। परन्तु परवर्ती रचनाकारों ने निराला के मुक्तछन्द को छन्दमुक्त मान लिया और गद्य को भी कविता कहने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि सुधी पाठकों का कविता से मोह भंग होने की स्थिति सी आ गई है।

छन्दयुक्त कविता पाठक को आकर्षित करती है और अपना एक प्रभाव छोड़ती है। दोहा, चौपाई, सोरठा, वरबै, सवैया, कवित्त, कुण्डलिया आदि छन्दों में लिखी न जाने कितनी कविताएँ आज भी पाठको को कण्ठस्थ हैं। लोक जीवन में तो आज भी कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयाँ और गिरिधर की कुण्डलियाँ बात बात पर लोगों के लिये लोकशिक्षक की तरह उनके दैनिक जीवन में प्रचलित हैं।
कुण्डलिया लोक का अपना बहुत प्रिय छन्द रहा है, कवि गिरिधर ने लोक जीवन की तमाम बातें इस छन्द में कहकर इसे लोकप्रिय बनाया। किसानों के लिये तो गिरिधर की कुण्डलियाँ लोकवेद के समान हो गई थीं, चाहे वह बैलों की पहचान कराने की बात हो या खेत में बीज बोने, निराने, पानी देने, काटने की बात हो या फिर दैनिक जीवन में काम आने वाली छोटी-छोटी बातें हो कुण्डलियों के माध्यम से हर प्रश्न का उत्तर मिलता रहा है। यही कारण रहा कि कुण्डलिया बहुत लोकप्रिय हो गई।
दुर्भाग्य यह रहा कि कुण्डलिया जैसे लोकप्रिय छन्दों को कुचक्र रचकर तिलांजलि सी दे दी गई। यह सच है कि कविता अपने समय को साथ लेकर चलती है जिस कविता में समय को पहचानने की सामर्थ्य नहीं होती है वह कविता अतिशीघ्र कालकवलित हो जाती है। कुण्डलिया में यदि समसामयिक विषयों को कविता का विषय बनाया जा सके तो आज भी कुण्डलिया अपनी पुरानी लोकप्रियता को प्राप्त कर सकती है। यह एक चुनौती भरा कार्य है क्योंकि कुण्डलिया में प्रसादात्मकता होती है इसमें बहुत सहज और सरल ढँग से बात कही जाती है।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला बहुत अच्छे नवगीत और हाइकु लिखते रहे हैं परन्तु इस मध्य उन्होंने कुण्डलिया छन्द को पूरी तरह साध लिया। ‘कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर’ पुस्तक का सम्पादन कर उन्होंने कुण्डलिया को पुनर्जीवित करने के दिशा में एक बड़ी पहल की है। मेरे संज्ञान में संभवतः कुण्डलिया कविताओं का यह पहला संकलन है जिसमें सात कवियों की २२-२२ कुण्डलियों को सम्पादित कर प्रकाशित किया गया है। संकलन के कवियों ने समसामयिक विषयों को कुण्डलियों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

महँगाई से सब त्रस्त हैं, आम आदमी के लिये सामान्य जीवन जीना मुश्किल होता जा रहा है। आम आदमी की इस ज्वलन्त पीड़ा को डा. कपिल कुमार की इस कुण्डलिया में महसूस किया जा सकता है-

महँगाई की मार से, बचा न कुछ भी आज
तेल, मसाले, सब्जियाँ, दालें और अनाज
दालें और अनाज, दूध, घी सभी सिसकते
दुगने-तिगुने भाव, फलों को केवल चखते
कहें ‘कपिल’ कविराय, अजब बीमारी आई
मिलता नहीं निदान, नाम जिसका महँगाई।
 

-डा. कपिल कुमार, (पृष्ठ-२४)

भ्रष्टाचार से प्रत्येक व्यक्ति त्रस्त है परन्तु इसका कोई निदान निकट भविष्य में सूझ नहीं रहा है, यह एक भयानक कोढ़ है जो समाज में फैलता चला जा रहा है। ‘गाफिल स्वामी’ की यह कुण्डलिया समाज में परिव्याप्त भ्रष्टाचार त्रस्त एक आम आदमी की पीड़ा और विवशता को अभिव्यंजित कर रही है-

ऊपर वाला सो रहा, अपनी चादर ओढ़
फैल रहा संसार में, भ्रष्टाचारी कोढ़
भ्रष्टाचारी कोढ, दुःखी है जनता सारी
चाहे जग मर जाय, मौज में भ्रष्टाचारी
कह गाफिल कविराय, भ्रष्ट का जीवन आला
दीन दुःखी लाचार, सो रहा ऊपर वाला।

-गाफिल स्वामी, (पृष्ठ-३६)

पर्यावरण संतुलित रहे इसके लिये वनों का संरक्षण आवश्यक है परन्तु मनुष्य बिना सोचे समझे जंगलों को अंधाधुंध काटता जा रहा है और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचा रहा है। डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल की इस कुण्डलिया में जंगलों के विनाश की इसी त्रासदी को देखा जा सकता है-

जंगल हैं कंक्रीट के, शहर हमारे आज
हुआ जंगली जीव सा, सारा सभ्य समाज
सारा सभ्य समाज, मात्र सम्पति का भूखा
कुल तक सीमित नेह, रहा संवेदन सूखा
कह ‘बघेल’ कविराय, सभी के स्वार्थ प्रबल हैं
चरागाह की तरह, शहर धन के जंगल हैं।
-डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल, (पृष्ठ-४६)

शहरों को गाँवों में पहुँचने का सपना स्वतंत्रता से पहले देखा गया था परन्तु आज हम देख रहे हैं कि शहर तो गाँवों में नहीं पहुँच सके बल्कि गाँव शहरों में पहुँचने लगे हैं साथ ही गाँव का गाँवपन भी कहीं गुम होने लगा है। गाँवों में पनपती लोक संस्कृति, लोकभाषा, लोकगीत, लोकगाथाएँ, लोक कहावतें, लोकमुहावरे आदि सभी के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। गाँव का सहज भोलापन, रीतिरिवाज, लोकाचार, पारिवारिक अनुशासन आदि सब खोजने पर भी नहीं मिलते हैं, यह सब परिवर्तन शहरों की चकाचौंध के कारण हुआ है। अपने लोकसंस्कारों और लोकसंस्कृति से निरन्तर दूर होते जाना हमारे लिये एक आत्मघाती कदम है। डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर की यह कुण्डलिया लोक के छीजने की इसी वेदना को व्यक्त कर रही है-

भूख शहर की बढ़ गयी, सब कुछ लेता खाय
खेत, गाँव पगडण्डियाँ, भैंस, बैल औ गाय
भैंस, बैल औ गाय, खिलखिलाहट पनघट की
दादा की फटकार, हँसी भोले नटखट की
नेम, क्षेम, उल्लास, प्रीति छीनी घर घर की
चितवन घूँघट छीन, खा गयी भूख शहर की।
-डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, (पृष्ठ-५६)

आज के बच्चे ही कल का भविष्य होते हैं, जिस देश के बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं होती एवं बच्चों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं होती, उस देश का भविष्य कभी अच्छा नहीं हो सकता। हमारे यहाँ बच्चों की शिक्षा पर यूँ तो ध्यान दिया जा रहा है, तमाम योजनाएँ बनाई गयीं हैं फिर भी जिस तरह की शिक्षा बच्चों के लिये होनी चाहिये वह देखने को नहीं मिल रही है। कचरे के ढेर में से बचपन तलाशते बच्चे किसी भी शहर और कस्वों में प्रायः दिख जाते हैं, हमारी व्यवस्था पर यह एक बड़ा प्रश्न चिह्न है। शिवकुमार दीपक की इस कुण्डलिया में यही पीड़ा उभर कर सामने आयी है-

बाल दिवस पर शहर में, सपने मिले उदास
कचरा वाले ढेर पर, जीवन रहे तलाश
जीवन रहे तलाश, नहीं शिक्षा मिल पाती
बढ़ा उदर भूगोल, पेट की आग भगाती
कह ‘दीपक’ कविराय, पढ़ाई नहीं मयस्सर
भोजन रहे तलाश, बाल कुछ बाल-दिवस पर
-शिव कुमार दीपक, (पृष्ठ-६८)

मानव जीवन के लिये वृक्षों का बहुत बड़ा योगदान है, यदि पृथ्वी पर वृक्ष न होते तो मानव जीवन संभव ही नहीं हो पाता, इसलिये वृक्षों को ईष्वरीय वरदान भी माना गया है। सुभाष मित्तल सत्यम ने वृक्षों के द्वारा की जाने वाली प्राणियों की सेवा को प्रस्तुत कुण्डलिया में व्यक्त किया है-

परम पिता की कृपा का, वृक्ष रूप साकार
सभी प्राणियों के लिये, जीवन का आधार
जीवन का आधार, नमी कर घन बरसाते
वर्षा-जल गति रोक, भूमि जल सतह बढ़ाते
भूमि अपरदन रोक, वृद्धि मृद-उर्वरता की
‘सत्यम’ सचमुच वृक्ष, कृपा है परम पिता की।
-सुभाष मित्तल सत्यम, (पृष्ठ-७७ )

त्रिलोक सिंह ठकुरेला अपनी कविताओं में सकारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं, उनके नवगीत हों या हाइकु, सभी में वे अपने कथ्य को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करते हैं। कविता का उद्देष्य भी यही है कि पाठक को प्रगति की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दे। सफलता और असफलता तो एक दूसरे की पूरक हैं, असफलता ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है, इसलिये असफलता से कभी निराश नहीं होना चाहिए, मंजिल उन्हें ही मिल पाती है जो जीत हार की चिन्ता न करते हुए, बाधाओं का बहादुरी से सामना करते हैं और निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने अपनी इस कुण्डलिया में कर्म पथ पर चलते रहने की यही प्रेरणा दी है-

असफलता को देखकर, रोक न देना काम
मंजिल उनको ही मिली, जो चलते अविराम
जो चलते अविराम, न बाधाओं से डरते
असफलता को देख, जोश दूना मन भरते
‘ठकुरेला’ कविराय, समय टेड़ा भी टलता
मत बैठो मन मार, अगर आये असफलता।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, (पृष्ठ-९६)

कुण्डलिया के इस अप्रतिम संकलन में सात कवियों की 154 कुण्डलियाँ हैं जो कि विविध विषयों को प्रस्तुत करती हैं। छन्द की दृष्टि से सभी कुण्डलियाँ ठीक हैं। सभी कवि अपने अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। इस संकलन के सम्पादक त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने कुण्डलिया संकलन का सम्पादन करके एक ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका यह कार्य छान्दस कविताओं को पुनः उनका स्थान दिलाने की दिशा में संघर्ष कर रहे रचनाकारों के महायज्ञ में एक बड़ी आहुति के समान है। इस संकलन से प्रेरणा लेकर कुछ अन्य कुण्डलिया संकलन तथा कुण्डलिया संग्रह प्रकाश में आयेंगे एवं जो कवि कुण्डलिया तथा अन्य समसामयिक छान्दस कविताओं को लिखकर अपनी डायरी तक ही सीमित रख रहे हैं वे भी अपनी उन कविताओं को प्रकाशित कराने का साहस कर सकेंगे। कुण्डलिया छन्द में यदि वर्तमान सन्दर्भों को प्रस्तुत किया जा सके तो निष्चय ही कुण्डलिया को अपनी खोई हुई लोकप्रियता प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता।

पुस्तक का मुद्रण, आवरण, रचना चयन सब कुछ उत्तम है। राजस्थानी ग्रंथागार से प्रकाशित ९६ पृष्ठ की पक्की जिल्द वाली इस पुस्तक की कीमत १५० रुपए है जो उचित ही है। इस पुस्तक का छन्द प्रेमी पाठक स्वागत करेंगे।

कुण्डलिया संकलन - कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर
सम्पादक - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
प्रकाशक - राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
पृष्ठ - 96
मूल्य -150 रुपये

समीक्षक - डा. जगदीश व्योम

Sunday, January 15, 2023

समय की पगडंडियों पर : उत्कृष्ट गीतों का संकलन

समय की पगडंडियों पर : उत्कृष्ट गीतों का संकलन

गीत का फलक विस्तृत है। साहित्य की सबसे  प्राचीन विधा होने के साथ- साथ आज भी गीत मानवीय हृदय के सबसे नजदीक है। गीत विधा की परंपरा को विस्तार देता एक गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" चलते हुए अनेक इंद्रधनुषी अनुभव समेट कर साहित्य अनुरागियों के लिए उत्कृष्ट गीतों का गुलदस्ता लेकर आया है।
प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी द्वारा रचित गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" पढ़ने का सुंदर सुयोग बना। इस संग्रह के   गीतों एवं नवगीतों में समाहित  माधुर्य, गाम्भीर्य, अभिनव कल्पना, सहज, सरल भाषाशैली, गेयता की अविरल धार, हृदयतल  को अपनी  मनोरम सुगन्ध से भर गई।  बाल साहित्य, कुण्डलिया छंद व अनेक काव्य विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ठकुरेला जी  ने बड़ी संजीदगी से अपनी गहन अनुभूतियों  को गीतों में उतारा है।

इन गीतों में कभी शृंगार की झलक दिखाई देती है तो कभी जीवन दर्शन। कभी देश प्रेम का रंग हिलोर लेता है तो कभी सामाजिक विसंगतियाँ। बड़ी खूबसूरती से गीतों में छंद परम्परा का निर्वाह किया गया है। प्रबल भाव, सधा शिल्प सौष्ठव। हर दृष्टिकोण से इस संग्रह के गीत भाव एवं कला पक्ष की कसौटी पर कसे हुए हैं।  "करघा व्यर्थ हुआ कबीर"   इस गीत में कवि ने बदलते परिवेश एवं आधुनिक जीवन शैली की और इशारा करके प्रतीतात्मक शैली का प्रयोग किया है। नवगीतों में अदभुत प्रयोग देखते ही बनता है।

करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर
रुई का
धुनना छोड़ दिया

बेरोजगार शिल्पकारों और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का  सजीवचित्रण करते हुए कवि अपनी वेदना व्यक्त करता है। गुजरे जमाने का स्मरण करते हुए  कवि  पाषाण बनती जा रही मानवीय संवेदना देख  व्याकुल है। कवि मन कहता है कि अब सामाजिक मूल्यों का कोई मोल नहीं क्योंकि लोग काँच को ही मोती समझ रहे हैं। एक अन्य गीत गीत "बिटिया" के माध्यम से कवि ने मन के अहसास  को शब्द देकर नारी शोषण पर करारा प्रहार किया है।

बिटिया।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता

कवि का कोमल मन समय का दर्पण देख गीत के माध्यम से बिटिया की पीड़ा को शब्द देकर कह रहा है कि अब वह कहीं भी सुरक्षित नहीं। तेजाब कांड के प्रति रोष जताते हुए कवि ने पथभ्रष्ट युवाओं  को काँटे दार वृक्ष की संज्ञा दी है। ठूठ होते संस्कारों से सावधान करता हुआ कवि हृदय बेटियों के साथ होती दुखद घटनाओं से आतंकित हैं।

आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।

"कड़ियाँ फिर से जोड़ें" आशा से भरा यह नवगीत इस बात का परिचायक है कि कवि आज भी लहरों में भटकी कश्तियों के किनारे पर आने की आशा रखता है। आज कवि आवाज दे रहा है कि जात-पात, धर्म, भाषा से ऊपर उठकर हम नए भारत का निर्माण करें। इसके अलावा हरसिंगार रखो, अर्थ वृक्ष, मन उपवन, मिट्टी के दीप, बदलते मौसम, सुनों व्याघ्र  आदि गीतों एवं नवगीतों का काव्य सौन्दर्य सराहनीय है।

आँखें फाड़े
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे।
इस नवगीत के मुखड़े से ही इसकी सारी खूबसूरती प्रकट हो जाती है। राजनीतिक तानशाही के प्रति विद्रोह के तीव्र स्वर जब विस्फुटित होते है तब मन मे दबा आक्रोश जगजाहिर हो जाता है। शासक कुम्भकरणी निद्रा के वशीभूत है। राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं। कवि के मन मे सुलगती चिंगारी अब गीत का रूप लेकर प्रज्वलित हुई है।
जब मन उद्वेलित होता है तब  प्रेम की सरस, मधुर बूँदे हृदय को शीतलता प्रदान करती हैं।
शृंगार रस के गीतों में कवि का प्रियतम के प्रति समर्पण भाव का परिचय मिलता है।  

मैं अपना मन मन्दिर कर लूँ
उस मंदिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन
नित गुणगान तुम्हारा गाऊँ।

गीतों में कहीं प्रेम की पराकाष्ठा है तो कभी विरह की कठिन घड़ियाँ।
कवि "दिन बहुरंगे",  गीत के द्वारा स्वार्थ की नींव पर टिके रिश्तों की  तस्वीर दिखलाता है, तो कभी पिता के विशाल चरित्र को शब्दों में ढालने का सफल प्रयास करता है। यह संग्रह में ८२ गीतों की माला है माला के हर मोती की आभा अनोखी है। जड़ों से जुड़ी भावनाओं से रचे गए गीत मन के तार छूने में सक्षम हैं।

"समय की पगडण्डियों पर" गीत संग्रह का प्रकाशन "राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर" के आर्थिक सहयोग से होना सुखद है।  यह पुस्तक पढ़ना अत्यंत सुखद रहा। श्री ठकुरेला जी पेशे से इंजीनियर हैं।   अनेक पुस्तकों का सम्पादन कर चुके हैं। उनके तीन एकल संग्रह प्रकाशित हैं। मुझे विश्वास है यह गीत संग्रह पाठक  वर्ग में अपना उच्च स्थान बनाएगा। आशा करती हूँ कि शीघ्र ही उनकी अन्य कृतियों से हमें रूबरू होने का अवसर मिलेगा।

गीत नवगीत संग्रह- समय की पगडंडियों पर,
रचनाकार- त्रिलोक सिंह ठकुरेला,
प्रकाशक- राजस्थानी ग्रन्थागार, प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट, जोधपुर (राजस्थान),
मूल्य- रु. 200
पृष्ठ- 112

                        समीक्षक- सुनीता काम्बोज

Thursday, January 12, 2023

काव्यगंधा’ एक सिंहावलोकन   

काव्यगंधा’ एक सिंहावलोकन  

जबसे इस वसुन्धरा पर मानव समाज अस्तित्व में आया है, तब से ही काव्य का सृजन प्रारम्भ हुआ। काव्य जीवन की सुगन्ध है और छन्द उसे गतिमान बनाता है। छन्द काव्य और जीवन में आह्लाद का संचार करता है। छन्दशास्त्र को पिंगलशास्त्र भी कहा जाता है। छन्द की परम्परा साहित्य के आदिकाल से ही प्रचलित रही है। आचार्यों ने छन्द के दो भेद किए हैं - मात्रिक छन्द और वर्णिक छन्द।  कुण्डलिया का छन्दशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी काव्य में कुण्डलिया छन्द का प्रचलन दीर्घकालीन है, जिसमें गिरधर कविराय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इसी  परम्परा में त्रिलोकसिंह ‘ठकुरेला’ की ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया-संग्रह को परिगणित किया जाता है। इस काव्य रचना में शाश्वत, हिन्दी, गंगा, होली, राखी, सावन आदि विविध विषयों पर कुण्डलिया लिखी गई हैं। कवि महोदय बड़े विचारक और संवेदनशील हैं। उनके जीवन की अनुभूति भी बड़ी गहन है।

शाश्वत से अभिप्राय है जीवन की निरंतरता और उसमें अनुभूति की हुई नीतिपरायणता तथा व्यवहारकुशलता। रचनाकार ने इस कुण्डलिया में उसी सत्य का प्रतिपादन किया है - सोना तपता आग में, और निखरता रूप। कभी न रुकते साहसी, छाया हो या धूप।। छाया हो या धूप, बहुत सी बाधा आयें। कभी ने बनें अधीर, नहीं मन में घबरायें। श्ठकुरेला श् कविराय ए दुखों से कभी न रोना।
निखरे सहकर कष्ट ए आदमी हो या सोना।।

मानव जीवन के चार पुरुषार्थांे में धन का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक देश और काल में धन के बिना जीवन निर्वाह करना सम्भव नहीं है। ‘पंचतंत्र’ की तरह ‘काव्यगंधा’ में भी धन की महत्ता को दर्शाया गया है - दुविधा मंे जीवन कटे, पास न हों यदि दाम। रुपया पैसे से जुटें, घर की चीज तमाम।। घर की चीज तमाम, दाम ही सब कुछ भैया।। मेला लगे उदास, न हांे यदि पास रुपैया। श्ठकुरेला कविराय ए दाम से मिलती सुविधा। बिना दाम के ए मीत ए जगत में सौ सौ दुविधा।  लोक में यह उक्ति चरितार्थ है - बाप बड़ा न भैया। सबसे बड़ा रुपया। इसीलिए गिरिधर कवि इस सत्य को बहुत पहले ही अपनी कुण्डलिया में प्रमाणित कर चुके हैं - जब तक पैसा गांठ में, यार संग ही संग डोले। पैसा रहा न पास यार मुख से नहीं बोले।

इस संसार में जो जैसा करता है वैसा फल पाता है। शास्त्रों के सत्य को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है - कर्मों की गति गहन है, कौन पा सका पार। फल मिलते हर एक को, करनी के अनुसार।। करनी के अनुसार सीख गीता की इतनी। आती सब के हाथ, कमाई जिसकी जितनी। श्ठकुरेलाश् कविराय ए सीख यह सब धर्मों की।  सदा करो शुभ कर्म ए गहन गति है कर्मों की।   कवि ने माया, धर्म, मान-अपमान, सुख-दुःख, सफलता-असफलता, दुष्टता, सांसारिक बाह्य सौन्दर्य, धनवान, आचरण, खल की मित्रता, नारी पीड़ा, साहस, मौन, अन्तरावलोकन, संसार की असारता, सौम्य स्वभाव आदि विषयों पर शाश्वत शीर्षक के अन्तर्गत कुण्डलिया की रचना है।

कवि के हृदय में देशप्रेम की लहरें उमड़ रही हैं, जो इस कुण्डलिया में अभिव्यंजित हुई हैं - माटी अपने देश की, पुलकित करती गात। मन में खिलते सहल ही, खुशियों के जलजात।। खुशियों के जलजात, सदा ही लगती प्यारी। हांे निहारकर धन्य, करें सब कुछ बहिलारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, चली आई परिपाटी। लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ, देश की सौंधी माटी।।  इसी सत्य को महर्षि वाल्मीकि ने भगवान रामचन्द्र के मुखारविन्द से कहलवाया है - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

हिन्दी भारत की एकता का मेरुदण्ड है। कवि ने हिन्दी शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी की महिमा का गुणगान किया है - हिन्दी को मिलता रहे, प्रभु ऐसा परिवेश। हिन्दीमय हो एक दिन, अपना प्यारा देश।। अपना प्यारा देश ए जगत की हो यह भाषा।
मिले मान.सम्मान ए हर तरफ अच्छा खासा।
श्ठकुरेला श् कविराय ए यही भाता है जी को ।
करे असीमित प्यार ए समूचा जग हिन्दी को ।

गंगा संसार की सबसे पवित्र नदी है और भारतीयों का महान तीर्थ है। इसीलिए गंगा को पतितपावनी गंगा मैया कहा जाता है। कवि महोदय ने गंगा की महिमा का बखान इस प्रकार किया है - केवल नदियां ही नहीं, और न जल की धार। गंगा माँ है, देवी है, है जीवन आधार। है जीवन आधार, सभी को सुख से भरती। जो भी आता पास, विविध विधि मंगल करती। ठकुरेला श् कविराय एतारता है गंगा..जल।
गंगा.अमृत .राशि ए नहीं यह नदिया केवल।

होली का पर्व फाग पर्व भी कहलाता है। यह वसन्त ऋतु का त्यौहार है और भक्त प्रहलाद की अग्नि परीक्षा का दिन है। इसे पूरे भारत में बड़े चाव से रंगों के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। कवि महोदय ने होली की बहार का चित्रण इस प्रकार किया है - होली आई, हर तरफ, बिखर गए नवरंग। रोम रोम रसमय हुआ, बजी अनोखी चंग।।

राखी का पर्व भाई-बहन के प्यार का प्रतीक है। बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को रक्षा कवच बांधती है और भाई भाव विभोर हो जाता है। कवि ने इसका मनोहारी चित्रण किया है - राखी के त्यौहार पर, बहे प्यार के रंग। भाई से बहना मिली, मन में लिये उमंग। मन में लिये उमंग ए सकल जगती हरसाई ।
राखी बांधी हाथ ए खुश हुए बहना भाई ।
श्ठकुरेला श् कविराय एरही सदियों से साखी ।
प्यार ए मान.सम्मान ए बढ़ाती आई राखी ।

सावन में मेघमालाएं वर्षा करती हैं और धरती हरियाली से ओतप्रोत हो जाती है। सावन के महीने में हरियाली तीज और श्रावणी पूर्णिमा बड़े उमंग से मनाई जाती है। कवि महोदय ने सावन के गौरव का चित्रण इस प्रकार किया है - छाई सावन की घटा, रिमझिम पड़े फुहार। गांव-गांव झूला पड़े, गूंजे मंगल चार।। गूंजे मंगलचार, खुशी तन-मन मंे छाई। गरजें खुश हो मेघ, बही मादक पुरवाई। ‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी की वर्षा आई। हरित खेत, वन, बाग, हर तरफ सुषमा छाई।।

विविध शीर्षक के अन्तर्गत कवि महोदय ने सामयिक समस्याओं पर कुण्डलिया की रचना की है, जिसमें किसान, देशप्रेम, महंगाई, बलवान और काव्य का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। किसान को अन्नदाता कहा जाता है। वह अनेक प्रकार के कष्ट सहकर अभावों में जीवन व्यतीत करता है। कवि महोदय की किसान के प्रति बड़ी सहानुभूति है - करता है श्रम रात दिन, कृषक उगाता अन्न। रुखा-सूखा जो मिले, रहता सदा प्रसन्न।। रहता सदा प्रसन्न ए धूप ए वर्षा भी सहकर ।
सींचे फसल किसान ए ठण्ड ए पानी में रहकर ।
श्ठकुरेला श् कविराय ए उदर इस जग का भरता ।
कृषक देव जीवंत ए सभी का पालन करता ।

कवि ने महंगाई को घुड़सवार की उपमा प्रदान की है - चाबुक लेकर हाथ में, हुई तुरंग सवार। कैसे झेले आदमी, महंगाई की मार।। मँहगाई की मार ए हर तरफ आग लगाये।
स्वप्न हुए सब ख़ाक ए किधर दुखियारा जाये ।
श्ठकुरेला श् कविराय ए त्रास देती है रुक रुक ।
मँहगाई उद्दंड ए लगाये सब में चाबुक ।

कविवर त्रिलोक सिंह ‘ठकुरेला’ द्वारा विरचित ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया-संग्रह कथ्य और शिल्प की एक अनूठी रचना है। इसमें भावों की लहर प्रवाहित हो रही है और कला का वैभव बिखर रहा है। कवि कुण्डलिया छन्द की रचना में सिद्धहस्त हैं और आधुनिक हिन्दी काव्य में कुण्डलिया छन्द के मुकुटमणि हैं।

 

डाॅ॰ बाबूराम (डी.लिट्.)

प्रो़फेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र

लेखक    ः    त्रिलोक सिंह ‘ठकुरेला’
पुस्तक    ः    काव्यगंधा (कुण्डलिया-संग्रह)
प्रकाशक    ः    नवभारत प्रकाशन, जोधपुर (राजस्थान)
संस्करण    ः    2013
मूल्य    ः    150 रुपये



Friday, October 7, 2022

आनंद की अनुभूति : आनंद मंजरी

आनंद की अनुभूति : आनंद मंजरी

हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में अनेक विधाओं का योगदान रहा है। इनमें से कुछ विधाएँ बहु प्रचलित, कुछ विधाएँ अल्प प्रचलित और कुछ तो आज लगभग लुप्त-सी हो गई है। ‘मुकरी’ अथवा ‘कह मुकरी’ इसी प्रकार की विधा है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि आज यह विधा लगभग लुप्त होने की कगार पर है। लेकिन कुछ कवियों/साहित्य प्रेमियों की बदौलत यह विधा अभी भी साँस ले रही है। सर्वविदित है कि मुकरी एक प्राचीन एवं लोकप्रिय लोक काव्य-रूप है। इस चार पद या चरण वाले सममात्रिक छंद के प्रत्येक पद में 16-16 मात्राएँ अर्थात् कुल 64 मात्राएँ होती है लेकिन क्रम विधान का पालन न करते हुए इसके अपवाद रूप में भी कुछ मुकरियाँ देखी जा सकती है। मुकरी को पहेली का एक प्रकार माना गया है। “भारतीय आचार्यों ने पहेली के सोलह प्रकार माने हैं। उनमें एक प्रकार ‘मुकरी’ से मिलता-जुलता है। पाश्चात्य विद्वान टिलियर्ड ने इसे ‘डिसगाइस्ड स्टेटमेंट’ नामक काव्य-कोटि के अंतर्गत रखा है।” (आनंद मंजरी, भूमिका से (बहादुर मिश्र), पृ. 10)

भ्रम में डाले, कुछ उलझाए।
खुशियाँ बाँटे, मन बहलाए।
क्या बतलाऊँ तुम्हें, सहेली।
क्या सखि छलनी? नहीं, पहेली।(पृ.31)

दो व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालाप की शैली वाली इस मुकरी का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन ही है, साथ ही यह श्रोता की बुद्धि के विकास एवं इसे सूचनात्मक ज्ञान देने में भी सहायता करती है। पुराने समय में लिखी गई मुकरी को देखने पर स्पष्ट होता है कि मुकरी प्रायः दो सखियों के बीच हुआ संलाप है जिसके अंतिम चरण में एक विस्फोट या विस्मय दिखाई देता है। जहाँ प्रथम वक्ता के संवाद (पहेली की तरह रखी गई बात) को सुनकर द्वितीय वक्ता (श्रोता) को अर्थ भ्रम हो जाता है और जब अंत में अर्थ खुलकर सामने आता है तो श्रोता को आश्चर्य का बोध होता है। इसमें श्रोता के उत्तर (जो अधिकांश मुकरियों में साजन होता है) को गलत ठहराते हुए वक्ता उसका सही उत्तर देता है। इस तरह इसकी अंतिम पंक्ति के प्रथम भाग में श्रोता द्वारा सुझाया उत्तर एवं द्वितीय भाग में वक्ता द्वारा दिया सही उत्तर, दोनों ही होते हैं। इस प्रश्नोत्तरी में चतुराई और शरारत दोनों ही दिखाई देते हैं। मुकरी में कहकर नटने अथवा मुकरने का भाव मुख्य होता है। परंपरागत शैली में लिखी गई मुकरियों में वक्ता एवं श्रोता स्त्रियाँ ही होती है लेकिन यह दो पुरुष अथवा स्त्री-पुरुष की संवाद-शैली में भी हो सकती है।

हिन्दी में अमीर खुसरो इस विधा विशेष के अविष्कारक माने जाते हैं। ख़ुसरो के लगभग 600 वर्षों पश्चात् भारतेंदु ने इस विधा को एक बार फिर नये रूप-रंग के साथ प्रस्तुत कर इसे प्रसिद्धि दिलाई। भारतेंदु की मुकरियों को ‘नये जमाने की मुकरियाँ’ कहा जाता है, जिसमें व्यंग्य की प्रधानता देखी जा सकती है। मुकरी लेखन की परंपरा में नागार्जुन का नाम भी लिया जाता है। आधुनिक युग के कुछ और भी रचनाकारों ने इस परंपरा के विकास में अपना योगदान दिया है, इसमें से एक नाम है – त्रिलोक सिंह ठकुरेला। ठकुरेला जी का मुकरी संग्रह ‘आनंद मंजरी’ इस बात का प्रमाण है कि इस पुरातन विधा का महत्त्व एवं प्रभाव आज भी साहित्य जगत में बना रहा है और इसके लिए ठकुरेला जी का योगदान भी स्मरणीय रहेगा। ‘आनंद मंजरी’ में ठकुरेला जी की एक सौ एक मुकरियाँ संकलित है।

वैसे देखे तो मानव, प्रकृति एवं अध्यात्म यह तीन साहित्य के आधारभूत विषय रहे हैं। पूरे साहित्य संसार का विषय-वितान इन्हीं तीन बिन्दुओं से कहीं-न-कहीं संबद्ध होता है और इन्हीं से ही अन्य विषय पल्लवित होते हैं। ठकुरेला जी की मुकरियाँ भी विविध विषयों से संबद्ध है, जो इस प्रकार है – विभिन्न ऋतुएँ, आकाश (चाँद, तारे आदि), वनस्पति (पेड़-पौधे आदि), जीव-जगत (पशु-पक्षी, जीव-जंतु), दिन-रात, धरती (जल, नदी, सागर), पैसा, नारी एवं नारी शृंगार-परिधान, त्यौहार, रसोई (खान-पान की वस्तुएँ), सामाजिक-व्यवसायिक जीवन, राजनीति, महँगाई, आधुनिक उपकरण और अन्य वस्तुएँ, ईश्वर आदि।

मुकरी के परंपरागत विषयों जैसे – चंदा, तारा, पानी, जाड़ा, सावन, जूता, लोटा, तोता, मैना, आम, बुखार, मच्छर जैसे विषयों को लेकर खुसरो और भारतेंदु ने कई मुकरियाँ लिखी है। इन्हीं परंपरागत विषयों का प्रयोग ठकुरेला जी की मुकरियों में भी बराबर हुआ है। प्रस्तुत संग्रह की पहली ही मुकरी चंदा को लेकर है, जो कि बहुत सुन्दर बन पड़ी है –

जब भी देखूँ, आतप हरता। / मेरे मन में सपने भरता।
जादूगर है, डाले फंदा। / क्या सखि साजन? ना सखि, चंदा। (पृ.15)

एक सखी के द्वारा वर्णित ‘बूझो तो जाने’ वाली बात को दूसरी सखी बूझते हुए उसे प्रियतम/ साजन ही समझने की भूल करती है और फिर सखी उसे शरारती अंदाज़ में सही उत्तर देती है। परंपरागत मुकरियों में विशेषतः अमीर खुसरो की मुकरियों में वर्णन इस तरह से हुआ है कि बूझने वाले को साजन के अतिरिक्त कोई और विकल्प नज़र नहीं आता। इसी तरह का काव्य सौन्दर्य ठकुरेला जी की मुकरियों में भी दिखाई देता है, जहाँ बूझने वाले को सिर्फ साजन उत्तर ही प्रतीत होता है। कुछ इसी तरह की मनभावन मुकरियाँ देखिए –

रस लेती हूँ उसके रस में। / हो जाती हूँ उसके वश में।
मैं खुद उस पर जाऊँ वारी।/ क्या सखि साजन?, ना, फुलवारी। (पृ.19)

रात हुई तो घर में आया।/ सुबह हुई तब कहीं न पाया।
कभी न वह हो पाया मेरा।/ क्या सखि साजन?, नहीं अँधेरा।(पृ.21)

अपने प्रियतम के ख्यालों में डूबे रहना और हर पल उसी की ही बातें करना। प्रेम में यह बहुत स्वाभाविक है, इस तरह का वर्णन प्रस्तुत संग्रह की मुकरियों में देखा जा सकता है –

मैं झूमूँ तो वह भी झूमे।/ जब चाहे गालों को चूमे।
खुश होकर नाचूँ दे ठुमका।/ क्या सखि साजन? ना सखि, झुमका। (पृ.24)

यौवन के सारे रस लेता। / चूम-चूम के पागल करता।
प्रेम पिपासा, करता दौरा। / क्या सखि साजन? ना सखि, भौंरा। (पृ.26)

मैं उसकी बाँहों में सोती।/ मीठे-मीठे स्वप्न सँजोती।
सखी, अधूरा बिन उसके घर।/ क्या सखि साजन? ना सखि, बिस्तर। (पृ.26)

उपर्युक्त सभी मुकरियों के उत्तर में साजन के बदले दूसरा सही उत्तर मिलने पर श्रोता हतप्रभ तो होता है, उसके मनोरंजन के साथ-साथ उसका बुद्धि परीक्षण भी होता है। उपर्युक्त सभी मुकरियाँ बहुत ही प्रभावी बन पड़ी है। विरह के बिना प्रेम अपूर्ण है, विरह के भाव को प्रस्तुत करती मुकरी और उसमें उसके उत्तर विरहन के स्थान पर उसके सही उत्तर का आनंद लीजिए –

जब-जब उसको विरह सताए।/ पी, पी कहकर वह चिल्लाए।
सखि, न लगाना उसको पातक। / क्या सखि विरहन? ना सखि, चातक। (पृ.30)

प्रेम में कभी न कभी विरहावस्था से तो गुजरना ही पड़ता है। एक विवाहित स्त्री के लिए अपनी सौतन से बड़ा न कोई शत्रु है और न ही इससे बड़ा जीवन में कोई दुःख। सौतन के आने से होने वाले नुकसान को रेखांकित करती निम्न मुकरी का सौन्दर्य अनूठा है और उसका सही उत्तर तो और भी अद्भुत प्रतीत हुआ है –

जब-जब आती दुःख से भरती।/ पति के रूपये पैसे हरती।
उसकी आवक रास न आई।/ क्या सखि सौतन? ना, महँगाई। (पृ.28)

ठकुरेला जी ने कुछ मुकरियों में नवीन उपकरणों को विषय बनाकर भी अच्छी मुकरियाँ लिखी है, जैसे – कंप्यूटर, हीटर, मोबाइल। विभिन्न व्यवसायों को लेकर भी कुछ मुकरियाँ संग्रह में देखी जा सकती है, यथा – भिखारी, दर्जी, चपरासी, मदारी आदि। बेटी, नारी, जोगी आदि को लेकर भी सुन्दर मुकरियाँ संग्रह के सौन्दर्य को शोभित कर रही है। मच्छर को लेकर एक सुंदर मुकरी देखिए –

बिना बुलाए, घर आ जाता।/ अपनी धुन में गीत सुनाता।
नहीं जानता ढाई अक्षर।/ क्या सखि साजन? ना सखि, मच्छर। (पृ.25)

कथ्य की दृष्टि से संग्रह में विविधता दिखाई देती है और शिल्प की दृष्टि से भी सभी मुकरियाँ 16-16 मात्राएँ कुल 64 मात्राओं एवं चरण के अंत में आठवीं मात्रा पर यति के क्रम विधान का अनुपालन करती हुई शुद्ध मुकरियाँ सिद्ध होती है। बेशक, संग्रह की तमाम मुकरियाँ पाठक को आनंद की अनुभूति कराने में सक्षम कही जा सकती है। संग्रह से गुजरने के पश्चात् शीर्षक ‘आनंद मंजरी’ सार्थक प्रतीत होता है। यह संग्रह शोधार्थियों और साहित्य प्रेमियों के लिए तो लाभकारी सिद्ध होगा ही, साथ ही मुकरी जैसी लुप्त होती विधा को जीवित रखने में यह संग्रह संजीवनी साबित होगा। त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी को इस सुन्दर संग्रह के लिए बधाइयाँ एवं साधुवाद। भविष्य में भी इनके इस तरह के संग्रह पढ़ने का सुअवसर हमें प्राप्त होगा ।

कृति- आनन्द मंजरी ( मुकरी संग्रह)
कवि- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मूल्य- 60 रुपये
प्रकाशन वर्ष- 2019 , पृष्ठ- 48
प्रकाशक - राजस्थानी ग्रंथागार,
सोजती गेट, जोधपुर (राजस्थान)
-डॉ. पूर्वा शर्मा 
201एरीज -3 42 यूनाइटेड कॉलोनी 
नवरचना स्कूल के पास समा , वड़ोदरा (गुजरात ) - 390008

Friday, March 18, 2022

जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान : नयी सदी के दोहे

जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान

दोहाप्रेमियों के लिए खुशखबरी। हर बार की तरह, प्रतीक-बिम्ब-प्रतिमानों का सुदृढ़ गठबंधन कर, विभिन्न अलंकारों से सज-धज कर आ गया नया दोहा संकलन - जाने-माने सम्पादक द्वय रघुविन्द्र यादव तथा डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के सम्पादकत्व में – नयी सदी के दोहे। दोहे, जो धारदार हैं, समकालीन हैं, अपने रचनाकारों की पहचान हैं और सम्पादक द्वय की इस जिद का प्रमाण हैं कि संकलन में केवल और केवल मानक दोहे शामिल किये जायेंगे। यह बताते हुए प्रसन्नता अनुभव कर रही हूँ कि एक भी दोहा ऐसा नहीं मिला, जो मानकता की कसौटी पर खरा न उतरा हो। दोहाकारों को दृदय की गहराइयों से सलाम।

वैविध्यपूर्ण जीवन का एकांगीपन दर्शाया तो क्या दर्शाया? यानी – खायेंगे तो गेहूँ, वरन् रहेंगे ऐहूँ। यद्अपि संकलन में सादगीपूर्ण रचाव के उदाहरण भी हैं, परन्तु छुअन की गहराई से भरे-पूरे, जैसे –

धागा, बाती, तेल औ’, माचिस, लकड़ी, मोम।
एक उजाले के लिए, कई ज़िन्दगी होम।। (सत्यशील राम त्रिपाठी)

खिचड़ी बन जब तक रहे, रिश्ते थे अनमोल।
जब से चावल-दाल हैं, रहा न कोई मोल।।(रवि खण्डेलवाल)

रूप बदलते गाँव में, लोक-रंग बेहाल।
मोबाइल में खुल गये, कई सिनेमा हाल।। (रमेश गौतम)

वक़्त देख बदला अगर, माली का बर्ताव।
नामुमकिन है रोकना, फूलों का बिखराव।। (राजेश जैन राही)

मोती-माला की सभी, करते हैं तारीफ़।
कोई तो अनुभव करे, धागे की तकलीफ़।। (डॉ. हरिप्रकाश श्रीवास्तव)

छत पर चढ़ जो मारते, सीढ़ी को ही लात।
जीवन में बनती नहीं, उनकी बिगड़ी बात। (डॉ. सुरेश अवस्थी)

उपरोक्त के अतिरिक्त बहुत कुछ और भी। निवेदन इतना-सा कि इन दोहों के खारे-कड़वेपन के लिए दोहाकारों को दोष न देना। सच तो यह है, उनकी लेखनी की नोक पर वही टिक पाया, जो उन्होंने खुली आँखों से देखा, चेतन मन से भोगा और संवेदनशील हृदय से महसूस किया। कम शब्दों में – जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान।

पृष्ठभूमि समाज, राजनीति, प्रशासन की हो या सामान्य जीवन की, विरोधाभास-विसंगतियाँ-विडम्बनाएँ कब नहीं थीं? रचनाकार भी इनके विषय में तब तक लिखते रहेंगे, जब तक वे सुसंगतियों का रूप धारण नहीं कर लेतीं। अब मिलते हैं अपने परिवेश की छलनागत तथा छिछलेपन से ग्रस्त परिस्थितियों से–

सम्भव है इस देश में, ऐसा ही व्यवहार।
फ़सल उजाड़ी साँड ने, पकड़े गये सियार।। (डॉ. सतीशचन्द्र शर्मा)

मरने पर उस व्यक्ति के, बस्ती करे विलाप।
पेड़ गिरा तब हो सकी, ऊँचाई की माप।। ( हरेराम समीप)

विसंगतिपूर्ण स्थितियाँ कवि को बेचैनी के लिहाफ में लपेट देती हैं, उसकी छटपटाहट उससे लिखवाती है -

भावों में चिनगारियाँ, शब्द-शब्द में क्रोध।
सुनते हैं वह कर रहा, ‘अमर-प्रेम’ पर शोध।।(हरीलाल ‘मिलन’)

सागर के विस्तार को, सदा चुभा यह शूल।
अदने-से तालाब में, खिले कमल का फूल।।(सीमा पाण्डे मिश्रा)

रोज बिछाते गोटियाँ, रोज़ खेलते दाँव।
जिन्हें सिखाया दौड़ना, काट रहे वे पाँव।। (डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’)

पत्थर-सी ठोकर कभी, कभी जोंक-सा प्यार।
रह-रह कर देता मुझे, यह निष्ठुर संसार।। (शैलेन्द्र शर्मा)

जिसे मसीहा मान कर, नमन किया हर बार।
वही हमें देता रहा, आँसू का उपहार।। (रामबाबू रस्तोगी)

फलक सियासी पर हुये, मेघ वही आबाद।
नहीं बरसते जो कभी, करते केवल नाद।। (राजपाल सिंह गुलिया)

प्रायोजन अब बन गया, इस युग की पहचान।
प्रायोजित विद्वान हैं, प्रायोजित सम्मान।। (रमेश प्रसून)

खड़े बिजूके खेत में, बनकर पहरेदार।
भोले-भाले डर रहे, चतुर चरें सौ बार।। (त्रिलोक सिंह ठकुरेला)

जवाँ सभ्यता हो रही, तोड़ समय का खोल।
आग बुझाते लोग अब, डाल-डाल पेट्रोल।। (नज़्म सुभाष)

मधुर बोल की डाल पर, खिलें झूठ के फूल।
हरियाली ओढ़े खड़ी, नागफनी के शूल।। (नीलमेन्दु सागर)

केवल विज्ञापन हुये, संवेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुये हैं कोश।। (डॉ. भावना तिवारी)

विकास के नाम पर हमने ऐसा कुछ खो दिया, जिसका हमारे पास रहना ज़रूरी था। इस कचोट को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है –

चिड़िया, दाना, घोंसला, चूज़े, कलरव, शाम।
सुधियों में अब रह गये, पीपल, बरगद, आम।। (प्रभु त्रिवेदी)

हरियाणवी कहावत है– बड़बोलेके डूण्डल़े (मोटे तिनके) बी बिक ज्याँ, ना बोलणिए की रास (अन्न का ढेर) बी पड़ी रह ज्या। ऐसा ही कुछ कहता है यह दोहा –

साँठ-गाँठ कर बच गया, था जिसका सब दोष।
अपराधी घोषित हुआ, बैठा जो खामोश।। (डॉ. जे. पी. बघेल)

वृद्धजनों की वर्तमान स्थिति पर क्या खूब लिखा है, देखिये –

सरकारों से जूझकर, पाये सब अधिकार।
पर घर ने रखवा लिये, बूढ़े से हथियार।।(शशिकांत गीते)

बूढ़े बरगद की जड़ें, भूख-प्यास से त्रस्त।
शाखा-गूलर-पत्तियाँ, सब अपने में मस्त।। (अवनीश त्रिपाठी)

पुरातनता से टूटते मोह के मुँह बोलते चित्रण की बानगी –

तुलसी, कोठी, चिट्ठियाँ, गौरैया, सन्दूक।
कल तक थे जितने मुखर, उतने ही अब मूक।। (राहुल शिवाय)

प्रतीकात्मकता के काबिले गौर उदाहरण –

आपस में लड़ने लगे, प्रत्यय, सन्धि, समास।
देख-देख कर व्याकरण, रहता बहुत उदास।। (स्व. रामानुज त्रिपाठी)

काग बने दरबार के, जब से ख़ासमख़ास।
बगुलों को चौधर मिली, हंसों को वनवास।। (रघुविन्द्र यादव)
 
सन्तान हित माँ की भूमिका का एक उत्कृष्ट शब्द चित्र देखिये –

सबने अपना सुख जिया, सबको हुई थकान।
माँ गौरैया की तरह, भरती रही उड़ान।। (रमेश गौतम)
 
देश की आबोहवा को, सांस्कृतिक प्रदूषण, किस क़द्र बिगाड़ रहा है, इसकी एक झलकी –

जब से अपने देश में, पछुआ बही बयार।
शील हुआ घायल मृदुल, नैतिकता बीमार।। (डॉ. मृदुल शर्मा)

संकलन के पृष्ठों को व्यंग्य की छलछल से भिगोये बिना दोहाकारों को तसल्ली कहाँ –

शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।। (डॉ. मिथिलेश दीक्षित)

सहम गयी यह देखकर, चिड़ियों की चौपाल।
गिद्ध नाश्ते के लिए, अण्डे रहे उबाल।। (डॉ. महेश मनमीत)

जीना है तो सीख लो, कोयल रहना मूक।
नई व्यवस्था ने लिखा, देशद्रोह है कूक।। (डॉ. नीरज कुमार सिन्हा)

एकलव्य यों कर रहे, गुरुकुल में अभ्यास।
तोड़ अँगूठा द्रोण का, बदल रहे इतिहास।। (मनीष कुमार झा)

रात स्वप्न में दोस्तो, देखे अजब प्रसंग।
संसद में मुजरा हुआ, चम्बल में सत्संग।। (अशोक ‘अंजुम’)

मोटा तगड़ा हो गया, मन्दिर का दरबान।
जैसा था वैसा रहा, अन्दर का भगवान।। (दीनानाथ सुमित्र)

बाबू को जिसने दिया, धन के बदले फूल।
उसकी फ़ाइल पर जमी, मोटी-मोटी धूल।। (बजरंग श्री सहाय)

जीवन की भागदौड़ में आदमी इतना बेखबर हो गया कि रिश्तों का ताना-बाना कमज़ोर पड़ता चला गया; त्रासदी यह कि उससे उसका सर्वोत्तम छिन गया –

कब धागा कच्चा हुआ, दिया न कुछ भी ध्यान।
गठरी की गाँठें खुली, बिखरे मोती धान।। (डॉ. मधु प्रधान)

कहीं-कहीं सन्देशपरकता के छींटे भी गिरे हैँ–

वर्षों से सब सह रहा, होकर हल्कू मौन।
ऐसे में उसके लिये, लड़े बताओ कौन।। (डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव)

और अब देखते हैं लोकतन्त्र और उसकी प्रशासन व्यवस्था का हाल –

केसरिया, नीले, हरे, काले, पीले व्याल।
लोकतन्त्र की देह पर, रंग-बिरंगे व्याल।। (जय चक्रवर्ती)

बिके मेघ कुछ कैद हैं, कुछ हैं कहीं फ़रार।
चार दिनों में गिर गई, सावन की सरकार।। (अरुण कुमार निगम)

अंधे-बहरों की सभा, काने का है राज।
जिसने लज्जा त्याग दी, उसके सर पर ताज।। (चित्रा श्रीवास)

विश्व बैंक से कर्ज़ ले, देश हुआ धनवान।
अजगर भी पाने लगा, सरकारी अनुदान।। (राजेन्द्र वर्मा)

वन पाखी वनफूल की, व्यर्थ हुई हर आस।
आकर राजोद्यान तक, लौट गया मधुमास।। (रामनाथ बेख़बर)

पानी आँखों का मरा, ढीठ हो गये लोग।
पानी, पानी था कभी, आज हुआ उद्योग।। (चक्रधर शुक्ल)

इस दोहे को पढ़कर मेरे नवगीत की पंक्ति अनायास ज़ुबां पर आन विराजी –

पानी बेच रहा बोतलबंद
किसना प्याऊवाला।

समय किसी का सगा नहीं, वह क्या से क्या कर दे, कहा नहीं जा सकता, उदाहरण पेश हैं–

रातरानियों को मिला, आँगन का अधिकार।
तुलसी विस्थापित हुई, खोज रही है प्यार।। (गरिमा सक्सेना)

बदल गये हैं माज़रे, बदल गये अंदाज।
शेर दिहाड़ी कर रहे, गीदड़ के घर आज।। (कमलेश व्यास)

रोते-रोते पुण्य ने, धरे पाप के पाँव।
कहाँ बसूँ, किस ठौर मैं, तू ही तू हर गाँव।। (पार्थ तिवारी)

समर्थ का कौन क्या बिगाड़ सकता है, इस ओर संकेत देखिये –

क्या कर लेगी रूप का, कड़ी धूप संगीन।
चश्मा, छाता, ओढ़नी, सब जिसके रंगीन।। (केशव शरण)

किसी का दर्द किस रूप में मुखरित होता है, एक बानगी –

बैठी हैं घेरे हुये, यादें मन का घाव।
जैसे हो चौपाल में, जलता हुआ अलाव।। (डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’)

सकार भाव को पोसता यह दोहा भी किसी से कम नहीं –

रंगी प्रीत से खिड़कियाँ, द्वार धरी मुस्कान।
तब जाकर यह घर बना, इतना आलीशान।। (कुँअर उदयसिंह)

मन है तो मानुष है, मानुष है तो कामनाएँ भी हैं –

मन का पौधा हो हरा, हर ले जीवन-पीर।
सच्चाई की खाद हो, और प्रेम का नीर।। (डॉ. नलिन)

बिटिया की विदाई-घड़ी का भावुक करने वाला जीवंत दृश्य है –

सोन चिरैया उड़ चली, पकड़ पिया का हाथ।
व्याकुल स्वजन-सहेलियाँ, आँगन हुआ अनाथ।। (रामहर्ष यादव)

जीवन के विविध रंगों के बीच जीवन-दर्शन न हो तो कुछ खालीपन रह जाता, अच्छी बात यह कि संकलन में इसे स्थान मिला है –

पक्षी जैसे साथियो, मान, समय, विश्वास।
एक बार यदि उड़ गये, कभी न लौटे पास।। (शिव कुमार दीपक)
 
प्राकृतिक आपदाएँ जीवन को बेबसी की सौगात देती रहतीं हैं, बानगी स्वरूप –

कभी बाढ़, सूखा कभी, आग कभी भूडोल।
भूखी धनिया बाँचती, रोटी का भूगोल।। (ब्रजनाथ श्रीवास्तव)

अंधेरा चाहे लाख षड्यंत्र रचे, उजाला आकर रहता है, इस भाव का एक उदाहरण देखिये -

जीत उजाले की हुई, हार गया फिर स्याह।
बिटिया ने घर में रचा, फिर गुड़िया का ब्याह।। (शुभम श्रीवास्तव)

संकलन में शामिल प्रत्येक (कुल 53) दोहाकार के एक-एक प्रतिनिधि दोहे की बानगी बता रही है कि बात शिल्प की हो, भाव की या गेयता की, कोई किसी से कम नहीं। ऐसे पठनीय-संग्रहणीय, त्रुटिरहित छपाई वाले संकलन के लिए दोहाकार-सम्पादक द्वय पुन: पुन: बधाई के पात्र हैं। दोहा-शोधार्थियों, विद्यार्थियों के लिए यह लाइट-हाउस का काम करेगा, ऐसी उम्मीद है।

समीक्षक- कृष्णलता यादव
677, सेक्टर 10ए
गुरुग्राम 122001
9811642789

पुस्तक – नयी सदी के दोहे
सम्पादक द्वय – रघुविन्द्र यादव, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
प्रकाशक – श्वेतवर्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ – 136, मूल्य – 160रु