दोपहरी सी हो गई, उस दिन ढलती साँझ |
सुमन खिलाकर भी हुआ, जिस दिन उपवन बाँझ ||
दबी हुई इक चाह थी, या थी उसकी भूल |
पनपाया फिर ओस ने, काँटों भरा बबूल ||
लोभ बढे रज भाव से, मन में ले विस्तार |
धूल डालता सत्य पर, बढ़ता स्वार्थ विकार ||
शब्द-शब्द मुखरित करे, छंद-छंद में प्यार |
घने नीम की छाँव से, बढकर गहन विचार ||
मन ही कहता आस रख, मन ही खोता धीर |
दुर्गम पथ लम्बा सफ़र, जब देते हैं पीर ||
मन के मैले पृष्ठ की, धूल उडाता कौन |
खामोशी मैंने धरी, तुमने साधा मौन ||
सीधी सच्ची सोच हो, उत्तम रहें विचार |
वहाँ मुसीबत हो नहीं, सिर पर कभी सवार ||
माँ वाणी माँ निर्मला, माँ कमला सी जान |
बुद्धि धन सब मातु है, कर माँ का गुणगान ||
स्वार्थ हथौड़ा जब चले, टूटे प्रेम लकीर |
रिश्तों की दौलत घटे, खोता मन का धीर ||
बना शाख को पालना, हरित पर्ण की सेज |
वृक्ष पके फल को रखे, कब तक भला सहेज ||
आशा है विश्वास है, प्रेम समर्पण त्याग |
माँ सद्गुण की खान है, माँ से रख अनुराग ||
धर्म नाम को भी गरल, कर देते कुछ लोग |
पनपे मन में द्वेष जब, लगे स्वार्थ का रोग ||
मानव मन में लोभ की, खडी हुई दीवार |
और उसी की ओट में, पनपा भ्रष्टाचार ||
दर्द पराया जान कर, बन जाए अनजान |
मानवता जिसमें नहीं, वह कैसा इंसान ||
तुझसे पाए पुष्प पर, बैठी थी जो भोर |
प्रेम दिवस देकर गई, नचा गई मन मोर ||
दिनकर को ठगने लगी, कोहरे की दीवार |
पुष्प सुवासित भीगकर, बाँट रहे हैं प्यार ||
अकुलाई प्यासी गई, नदिया रही उदास |
तोड़ दिया संसार ने, जब उसका विश्वास ||
पुष्प गंध मन मोहिनी, नयन सोहते रंग |
पाकर जूही पर चढ़ें, कतिपय दुष्ट भुजंग ||
अशोक कुमार रक्ताले
५४, राजस्व कॉलोनी, उज्जैन. (म.प्र.)
सुमन खिलाकर भी हुआ, जिस दिन उपवन बाँझ ||
दबी हुई इक चाह थी, या थी उसकी भूल |
पनपाया फिर ओस ने, काँटों भरा बबूल ||
लोभ बढे रज भाव से, मन में ले विस्तार |
धूल डालता सत्य पर, बढ़ता स्वार्थ विकार ||
शब्द-शब्द मुखरित करे, छंद-छंद में प्यार |
घने नीम की छाँव से, बढकर गहन विचार ||
मन ही कहता आस रख, मन ही खोता धीर |
दुर्गम पथ लम्बा सफ़र, जब देते हैं पीर ||
मन के मैले पृष्ठ की, धूल उडाता कौन |
खामोशी मैंने धरी, तुमने साधा मौन ||
सीधी सच्ची सोच हो, उत्तम रहें विचार |
वहाँ मुसीबत हो नहीं, सिर पर कभी सवार ||
माँ वाणी माँ निर्मला, माँ कमला सी जान |
बुद्धि धन सब मातु है, कर माँ का गुणगान ||
स्वार्थ हथौड़ा जब चले, टूटे प्रेम लकीर |
रिश्तों की दौलत घटे, खोता मन का धीर ||
बना शाख को पालना, हरित पर्ण की सेज |
वृक्ष पके फल को रखे, कब तक भला सहेज ||
आशा है विश्वास है, प्रेम समर्पण त्याग |
माँ सद्गुण की खान है, माँ से रख अनुराग ||
धर्म नाम को भी गरल, कर देते कुछ लोग |
पनपे मन में द्वेष जब, लगे स्वार्थ का रोग ||
मानव मन में लोभ की, खडी हुई दीवार |
और उसी की ओट में, पनपा भ्रष्टाचार ||
दर्द पराया जान कर, बन जाए अनजान |
मानवता जिसमें नहीं, वह कैसा इंसान ||
तुझसे पाए पुष्प पर, बैठी थी जो भोर |
प्रेम दिवस देकर गई, नचा गई मन मोर ||
दिनकर को ठगने लगी, कोहरे की दीवार |
पुष्प सुवासित भीगकर, बाँट रहे हैं प्यार ||
अकुलाई प्यासी गई, नदिया रही उदास |
तोड़ दिया संसार ने, जब उसका विश्वास ||
पुष्प गंध मन मोहिनी, नयन सोहते रंग |
पाकर जूही पर चढ़ें, कतिपय दुष्ट भुजंग ||
अशोक कुमार रक्ताले
५४, राजस्व कॉलोनी, उज्जैन. (म.प्र.)
"मन के मैले पृष्ठ की, धूल उडाता कौन |
ReplyDeleteखामोशी मैंने धरी, तुमने साधा मौन ||"
वाह ! वाह ! बहुत खूब !
जीवन की सच्चाई से जुड़े सुन्दर भाव पूर्ण दोहे । बधाई अशोक कुमार रक्ताले जी ....
बहुत-बहुत आभार सर
Deleteवाह ! वाह ! बहुत खूब !
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